Wednesday, August 31, 2016

माओवादियों से कैसे होगी बात? - विश्वरंजन

माओवादियों से कैसे होगी बात?

Thursday, September 1, 2016
विश्वरंजन

23 जून 2016 को रेवोल्यूशनरी आर्म्ड फोर्सेस आफ कोलंबिया, जिसे स्पैनिश भाषा में फ्यूरजाज आरमाडाज रेवोल्यूसिऔनायिस डी कोलंबिया या फार्फ के नाम से जाना जाता है, और कोलंबिया की सरकार के बीच संधि प्रस्ताव पर हस्ताक्षर हो गया. कोलंबिया की यह रेवोल्यूशनरी पार्टी जो मार्क्ससिस्ट-लेनिनिस्ट-माओवाद और चे गुवेरा के सिद्धांतों को मानती है, कोलंबिया में 1964 से शासन के साथ एक दीर्घकालीन हिंसात्मक युद्ध कर रही थी. 2015 में इस गुट ने एकतरफा शांति का प्रस्ताव रखा और युद्ध को रोक दिया. इसके बाद शासन से बातचीत के जरिए शांति बहाली की बात की तथा कोलंबिया के शासन से भी बहुत से इलाकों से सेना हटाने तथा आर्थिक सुधारों को जमीनी स्तर पर लाने हेतु पहल करने का आग्रह किया. साथ ही साथ गिरफ्तार रेवोल्यूशनरी समर्थकों के रिहाई की मांग भी की गई. शासन से वार्ता के लिये रेवोल्यूशनरी पार्टी का उच्चतम नेतृत्व सामने आया.

कोलंबिया का दीर्घकालीन माओवादी आंदोलन भारत के माओवादी सशस्त्र संघर्ष से बहुत मायनों में एक जैसा है. दोनों देशों में माओवादियों ने अपनी लड़ाई कमोबेश जंगलों में लड़ने का मन बनाया था. दोनों ने इस लड़ाई के लिये धन उन इलाकों में काम करने वाले कारखानों के मालिकों तथा व्यावसायियों पर दबाव डाल कर इकट्ठा किया. कोलंबिया के माओवादियों ने धन एकत्र करने के लिये ड्रग ट्रेड का भी इस्तेमाल किया. भारतीय माओवादियों ने भी बस्तर और झारखंड के कुछ इलाकों में गांजा और अफीम की खेती कराई, जिन्हें शासन द्वारा नष्ट किया गया. दोनों देशों के माओवादियों ने जंगल काटे और लकड़ियों को वन तस्करों को बेचा.

बस्तर में किसी भी बड़े माओवादी नेता ने आत्मसमर्पण नहीं किया है और न ही कनिष्ठ स्तर के माओवादियों के समर्पण से माओवादी हौसलों में कोई गिरावट आई है.

दोनों देशों के माओवादियों ने अवयस्क बच्चों के हाथों में हथियार पकड़ाये और अपने दीर्घकालीन युद्ध में इस्तेमाल किया. दोनों माओवादी संगठनों के सशस्त्र गुरिल्लाओं की संख्या 11,000 से 18,000 के बीच आंकी जाती रही है. जाहिर है, कोलंबिया में माओवादियों के बीच युद्ध विराम और शासन के साथ बातचीत के जरिए शांति बहाली के कारण भारत में बहुत सारे बुद्धिजीवियों ने भी मांग उठाना शुरू कर दिया है कि भारत में माओवादियों के साथ बातचीत का रास्ता अपनाते हुए शांति स्थापित करने की पहल करनी चाहिए. क्या भारत में भी इस तरह का पहल करने का समय आ गया है, इस पर निर्णायक समझ के लिए दोनों देशों के माओवादी युद्ध के विभिन्न चरणों को समझना जरूरी है.

कोलंबिया में 1998 से 2002 तक शांति वार्ता के असंख्य असफल प्रयास किये गये थे. 2002-2005 में कोलंबिया मिलिटरी तथा पैरामिलिटरी फोर्सेस ने माओवादियों पर इतना दबाव बनाया कि माओवादियों को पीछे हटने पर बाध्य होना पड़ा. हालांकि माओवादी छुटपुट आतंकी घटनाओं को अंजाम देते रहे. इसी बीच कोलंबिया में माओवादियों के खिलाफ व्यापक राजनैतिक माहौल बनाने की कोशिश की गई. इस पूरी अवधि में कोलंबियन फौज ने माओवादियों के खिलाफ जबर्दस्त दबाव बनाये रखा, जिससे माओवादियों में बिखराव और थकान के लक्षण साफ परिलक्षित होने लगे. 2012-14 में फिर शांति बहाली के लिए माओवादियों और कोलंबिया शासन के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत शुरू हो गई.

भारत में स्थिति भिन्न है. भारत में माओवादियों में न ही बिखराव नजर आ रहा है और न ही माओवादियों में कोई थकान का अनुभव किया जा रहा है. यह सच है कि झारखंड में माओवादी संगठन में कुछ बिखराव आया है परन्तु आज भी वहां का सबसे सशक्त माओवादी संगठन सीपीआई माओवादी ही है. बस्तर में काफी संख्या में माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया, इस तथ्य को सीपीआई माओवादी के महासचिव गणपति ने माना भी है परन्तु किसी भी बड़े माओवादी नेता ने आत्मसमर्पण नहीं किया है और न ही कनिष्ठ स्तर के माओवादियों के समर्पण से माओवादी हौसलों में कोई गिरावट आई है.

सुरक्षा बलों की हाल की कामयाबियां अन्दरूनी बस्तर, झारखंड और बिहार के अन्दरूनी इलाकों में माओवादी पकड़ को कमजोर करने में असफल रही हैं. जिस तरह कोलंबिया ने माओवादी विरोधी राजनैतिक एकता का परिचय दिया तथा माओवाद के खिलाफ जनमानस को संगठित किया गया, भारत में आज भी उसका नितांत अभाव है.

सबसे बड़ी बात यह है कि सीपीआई माओवादी के महासचिव गणपति, जो माओवादियों के सर्वोच्च नेता हैं; ने कभी भी शांति पहल की बात नहीं की. भारत में माओवादियों और शासन के बीच बातचीत की मध्यस्थता की बात कुछ सिविल सोसायटी के लोग करते रहे हैं जिसका कोई अर्थ नहीं निकलता. जब तक शांति-वार्तालाप का औपचारिक प्रस्ताव माओवादियों के पॉलित-ब्यूरो से नहीं आये तब तक यह माना जा सकता है कि माओवादी शांति-वार्ता के लिए कम से कम आज तो तैयार नहीं हैं.

अब प्रश्न उठता है कि क्या शासन माओवादियों से वार्तालाप के लिए तैयार है? अगर है तो क्या उसने माओवादियों के शीर्षस्थ नेतृत्व से संपर्क स्थापित करने में सफलता पाई है? क्या शासन ने अपनी इंटेलिजेंस एजेंसियों को इस काम में लगाया है? क्या सिविल सोसायटी, सोशल एक्टविस्ट तथा माओवाद समर्थकों के साथ शासन सार्थक बातचीत शांति स्थापना के लिए कर रही है? क्या शासन के पास कोई मसौदा तैयार है जिसके अंतर्गत शांति- वार्ता की शुरुआत की जा सके. आज की तारीख में ऐसा नहीं लगता है कि शासन ने इस ओर कोई भी सार्थक सोच की पहल की हो. बीच-बीच में शासकीय नुमाइंदों और राजनेताओं के ऐसे बयानों का कोई मतलब नहीं है कि माओवादी हमारे भटके हुए भाई हैं और उन्हें मुख्य धारा में जुड़ना चाहिए. इस बात का अर्थ तभी है, जब सरकार गंभीरतापूर्वक उपरोक्त प्रक्रियाओं पर विचार करे.

दूसरी ओर सरकार को यह भी समझना पड़ेगा कि माओवादी नेतृत्व किन स्थितियों में बातचीत करने के लिए राजी होगा? जब तक माओवादी नेतृत्व, पार्टी में बिखराव की स्थिति से सशंकित न हो जाये या पार्टी अपने आधार क्षेत्रों में लगातार तथा जबर्दस्त पुलिस दबाव महसूस न करने लगे तब तक वह क्यों शासन से बातचीत करने को राजी होगा? कोलंबिया में माओवादियों को अलग जमीनी हकीकत से मुखातिब होना पड़ा था, जिसके कारण उन्होंने शांति-संधि पर हस्ताक्षर किया. भारत में आज की तारीख में जमीनी हकीकत माओवादियों के बिल्कुल प्रतिकूल नहीं हुई है.

(लेखक छत्तीसगढ़ के पूर्व पुलिस महानिदेशक एवं स्वतंत्र सुरक्षा समीक्षक हैं.)
नवभारत से साभार

किसी कंपनी के लिए राज्य द्वारा भूमि का अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य के दायरे में नहीं आता.

किसी कंपनी के लिए राज्य द्वारा भूमि का अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य के दायरे में नहीं आता.
सुप्रीमकोर्ट
* * लोहाडीगुडा में भी आदिवासियों को जमीन वापस की जायें।
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सिंगूर के मामले में सुप्रीमकोर्ट का एतिहासिक फैसला . सामाजिक संगठन के लोग हमेशा से यही कहते रहे है कि किसी सरकार द्वारा उधोग के लिये भूमि अधिग्रहण   सार्वजनिक हित कैसे हो सकता है .
विशुद्ध रूप से उधोगपति अपने हित और स्वार्थ के लिये राज्य जिला और पुलिस का एकतरफा स्तेमाल करके जरूरत से कई गुना जमीन पर काबिज़ हो जाते है ,जब भूमि मालिक इसके खिलाफ सरकार से अपील करता है जनहित का तर्क देकर यही सरकारें सामने आ जाती है .
सुप्रीमकोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया है सार्वजनिक हित के नाम पर उधोगों के लिये जमीन का  अधिग्रहण नहीं किया जा सकता .कोर्ट ने न केवल दो महीने में जमीन किसानों को वापस करने का आदेश दिया बल्कि यह भी कहा कि किसानों से मुआवज़ा वापस नहीं लिया जा सकता क्योकि अपनी जमीन का  किसान उपयोग नहीं कर पा रहे थे।
सामाजिक कार्य कर्ता अतिन्दरो कहते है कि
"" सिंगुर विषयक चर्चा में एक बात बारबार आ रहा है कि ज़मीन "किसानों के पास" वापस किया जा रहा है। लेकिन वास्तविक रूप में तो वह ज़मीन कृषिकार्य का उपयोगी रहा ही नहीं है। पूरा एरिया में कंस्ट्रक्शन हो चूका है। चिंता की बात ये है कि पश्चिम बंगाल में जो नोटोरोइस 'लैंड सिंडिकेट' यानि जमीन माफिया यानि प्रोमोटर-राज का घराना को बामफ्रण्ट सरकार एवं उसके बाद तृणमूल सरकार ने आगे लेके गया है, वही सिंडिकेट के चक्कर में वहाँ विकट डेवलपमेंटल कुछ काम, जैसे की हाउसिंग काम्प्लेक्स (बन्ध हुआ हिंदमोटोर कारखाना के कंपाउंड में जैसी काम्प्लेक्स बना दिया है "श्रीराम देवेलोपेर्स") ना बन जाये।
डिटेल में देखे तो, सिंगुर में टाटा जब ज़मीन लिए थे तब जिन लोग उस ज़मीन में खेती-किसानी करते थे उन लोगो के विषय में या उन किसानों का इस विषय कहना क्या है, उस ज़मीन में खेती करना असंभव है तो दूसरा जमीन मिलेगा या नहीं, कैसे मिलेगा - ये सब चीजों लेके कुछ चर्चा या विवेचना आ नहीं रहा है, ना तो मीडिया रिपोर्ताज में और ना ही सुप्रीम कोर्ट का निर्देश में।"
वे आगे बताते है कि   , " ऐसे टाटा या अन्य दानवों ज़मीन वापस लेने का लड़ाई में, सबसे पहले ये सब डिटेल्स को पता करते हुए ही आगे चलना चाहिए, ता की जाथार्थ न्याय हो पाय, और जिन लोगों एवं कौमों से ज़मीन छिना हुआ है उन्ही लोगों तथा कौमों के पास ही ज़मीन वापस जाये।"

*** लोहाडीगुडा में भी आदिवासियों को जमीन वापस की जायें।
छत्तीसगढ़ सरकार ने बस्तर में टाटा स्टील प्लांट के लिये 2500 हेक्टेयर जमीन विशुद्ध गैरकानूनी रूप से कब्जाई है,न प्रोपर ग्रामसभा हुई और न  जनसुनवाई ,अर्धसैनिक बलों के हस्तक्षेप और गुण्डागर्दी से जमीनों का अधिग्रहण किया गया ,एसे भी हजारों आदिवासी थे जिनके पास जमीन ही नहीं थी उन्हें उनके गांव से खदेड़ दिया गया .
अब जब टाटा ने स्टील प्लांट  को न खोलने की औपचारिक घोषणा कर दी है तो प्रभावित आदिवासियों को तुरंत जमीन वापस की जायें और जौ लोग गांव छोडकर चले गये उन्हें वापस बसाया जायें.

टाटा के स्टील प्लांट के लिये लोहांडीगुडा इलाके में दस गांव के 1709  लोग प्रभावित हुये थे इनमें से ह1165  लोगों की जमीन अधिग्रहित की गई ,जिनकी जमीन नहीं गई या जिनके पास जमीन थी ही नहीं एसे परिवार भी उनके घरबार बर्बाद हो गये.
आदिवासी जमीन देने का लगातार विरोध करते रहे ,बड़े बड़े आंदोलन भी हुये ,सरकार ने कहा कि मुआवज़े के साथ परिवार के लोगों को नौकरी ,चिकित्सा और अन्य  जीने योग्य जरूरी  सुविधाएँ दी जायेंगी. ओर अब जबकि टाटा ग्यारह साल बाद बस्तर को छोडकर जा रहा है ,तो स्वाभाविक ही है कि आदिवासी अपनी जमीन की वापसी की म कर रहे है .
लेकिन सरकार किसी की सुनने को तैयार नहीं है लोग धरना प्रदर्शन भी कर रहे है ,हालात यह है कि अधिग्रहित जमीन पर कब्जा उधोग विभाग का है जिसकी मंशा कब्जा छोडने की  नहीं है।
प्रभावित आदिवासियों के राशन कार्ड तक नहीं बन रहे है .
सुप्रीम कोर्ट के आदेश में स्पष्ट है कि अधिग्रहित जमीन का उपयोग किसी और काम में नहीं किया जा सकता, तो सरकार के पास जमीन वापसी के अलावा कोई रास्ता नहीं है .
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 Dr. Lakhan singh 

टाटा का सिंगूर में भूमि अधिग्रहण रद्द : दस साल बाद मिलेगी किसानों को जमीन


टाटा का सिंगूर में भूमि अधिग्रहण रद्द : दस साल बाद मिलेगी किसानों को जमीन
( 31 अगस्त 3016)
संघर्ष संवाद




अदालत ने अपने फैसले में कहा कि भूस्वामियों को मिला मुआवजा सरकार को नहीं लौटाया जाएगा, क्योंकि उन्होंने जमीन का दस साल तक इस्तेमाल नहीं किया।

उच्चतम न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में खामियां पाईं।

आज से 12 सप्ताह के भीतर किसानों को जमीन लौटाने का आदेश।


नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने 31अगस्त 2016 को पश्चिम बंगाल के सिंगूर में टाटा नैनो प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गई करीब 1000 एकड़ जमीन वापस किसानों को देने का फैसला किया। फैक्टरी सिर्फ दो महीने चली थी. किसानों के विरोध के बाद टाटा को उस जगह से भाग जाना पड़ा था.

अदालत ने कहा कि भूमि अधिग्रहण कलेक्टर ने जमीनों के अधिग्रहण के बारे में किसानों की शिकायतों की उचित तरीके से जांच नहीं की। किसी कंपनी के लिए राज्य द्वारा भूमि का अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य के दायरे में नहीं आता।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस फैसले को अपनी जीत बताया है। उन्होंने सिंगूर अधिग्रहण के खिलाफ वाम मोर्चा सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण के विरोध में एक आंदोलन चलाया था। इस के परिणामस्वरूप उन्हें बंगाल चुनावों में बड़ी सफलता मिली थीं और वे मुख्यमंत्री बनी थीं।

उल्लेखनीय है कि कलकत्ता हाईकोर्ट ने सरकार के अधिग्रहण को सही ठहराया था, जिसके खिलाफ किसानों की ओर से गैर सरकारी संगठनों ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।

कोलकाता से लगभग 40 किलोमीटर दूर सिंगूर में टाटा मोटर्स की महत्वाकांक्षी नैनो परियोजना के लिए संयंत्र स्थापित करने के लिए 2006 में तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने कुल 997.11 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। उस समय विपक्षी दल तृणमूल कांग्रेस (अब सत्ता में) और कृषि जमीं जिबिका रक्षा कमेटी (केजेजेआरसी) का कहना था कि इसमें से 400 एकड़ जमीन किसानों से उनकी मर्जी के खिलाफ ली गई है, लिहाजा यह जमीन उन्हें लौटा दी जानी चाहिए।

 ममता बनर्जी ने तब इसको लेकर धरना भी दिया था। विरोध करने वालों का यह भी कहना था कि सिंगुर में चावल की बहुत अच्छी खेती होती है और वहां के किसानों को इस परियोजना की वजह से विस्थापित होना पड़ा। सिंगुर ने नैनो प्लांट विरोध प्रदर्शन और आंदोलन के कारण किसी न किसी मुश्किल में घिरा रहा।

वहां 28 अगस्त 2008 के बाद प्लांट में कोई काम नहीं हो पाया है। विवाद को देखते हुए टाटा मोटर्स ने नैनो प्लांट का काम रोक दिया।
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ब्रेकिंग न्यूज कोंटा
सुकमा जिले के कोत्ताचेरु गाँव के लोगों ने लगाया पुलिस पर आरोप । ग्रामीणों ने लगाया पुलिस पर बलात्कार और नंगा कर मारपीट का आरोप । कल 30 अगस्त की शाम 04 बजे आई थी गाँव में पुलिस । हिड़मे मड़कम पति देवा मड़कम, भीमे कवासी पति जग्गू कवासी के साथ किया सुरक्षा बल के जवानों ने बलात्कार । गाँव के एक युवक मंगड़ू पोड़ियामी पिता भीमा पोडियामी को नंगा कर की  मारपीट । सुकमा जिला अंतर्गत कोत्ताचेरु गाँव के पटेल पारा की घटना ।
(कापी पोस्ट )

Tuesday, August 30, 2016

यहाँ बक्साइड नहीं है, लोहा नहीं है अनेक मूल्यवान खनिज सम्पदा नहीं है इसी लिये रोड भी नहीं है और पुलिया भी नहीं है ...

29 अगस्त 2016

यहाँ बक्साइड नहीं है, लोहा नहीं है अनेक मूल्यवान खनिज सम्पदा नहीं है इसी लिये रोड भी नहीं है और पुलिया भी नहीं है ...





बस्तर-यहाँ बक्साइड नहीं है, लोहा नहीं है अनेक मूल्यवान खनिज सम्पदा नहीं है इसी लिये रोड भी नहीं है और पुलिया भी नहीं है । आखिर किनके लिए सरकार सड़क-पुलिया का निर्माण करेगी? जहा खनिज सम्पदा का भंडार है वहा सरकार विकास कर देती है सिर्फ और सिर्फ खनिज सम्पदा के दोहन के लिए चमचमाती सड़के बन जाती है, पुलिया बन जाता है ।
 इन आदिवासी ग्रामो में सरकार विकास के लिए एक कदम भी आगे नहीं बढाती , आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रो में अगर विकास की योजनाये बनती है तो सिर्फ आधिकारियो,नेताओ,और ठेकेदारो पूंजीपतियो के पोषण के लिए । छत्तीसगढ़ सरकार विकास के नाम पर भारी मात्रा में नक्सल उन्मूलन के नाम पर सुरक्षा बलो की तैनाती कर रखी है लेकिन आज भी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रो में सडक,बिजली, पानी,पुल मुलभुत सुविधाओ का दरकिनार है..
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( बस्तर प्रहरी )

बस्तर में आज भी  बरसात के मौसम में ऐसे कितने गांव है जो जिलामुख्यालय तो दूर की बात है  ब्लाक मुख्यालय से संपर्क  टूट जाता है औरबरसात के 4 माह इन क्षेत्रों में एक दूसरे से संपर्क नहीं हो पाता और उन क्षेत्र के लोग अपनी बदहाली की आंसू रोते रहते है।  विकास के दावे और वादे हर कोई करता है मगर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। खोखले विकास और अधूरे वादों की ऐसी ऐसी तस्वीर उत्तर बस्तर कांकेर जिले में  देखनें को मिलता है। पिछले चार दशक से ग्रामवासी लकड़ी बांस का पुल बनाकर जान जोखिम में डाल कर आते जाते है।


 छत्तीसगढ़ में आदिवासी बाहुल्य  क्षेत्र आमाबेडा ब्लाक के शारदा नदी में ग्रामीण जान जोखिम में डालकर लकड़ी के बने पुल के सहारे नदी पार कर रहे हैं. नदी पर बने लकड़ी का पुल दो जिलो नारायणपुर और कोंडागांव(केशकाल) को आपस में जोडती है, डिजिटल इण्डिया  बनाने का नारा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी दे रहे लेकिन भाजपा शाषित राज्यों में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर में पुल सडके बनाने के दावे खोखले साबित हो रही है, यह तस्वीर उत्तर बस्तर कांकेर जिले के आमाबेडा उप तहसील का है आमाबेडा से मात्र चार किमी की दुरी पर स्थित शारदा नदी पर बना यह लकड़ी का पुल आमाबेडा अथवा जिला कोंडागांव, जिला नारायणपुर के दर्जनों गाँव को आपस में जोडती है।

जानकारी के अनुसार आमाबेडा से कोंडागांव जिला के केशकाल ब्लाक जाने के लिए स्थानीय प्रशासन द्वारा सडक का निर्माण जो किया गया है वाह अत्यंत जर्जर स्थिति में है, बारिश के दिनों में पूरा मार्ग किचड़ो से भरा रहता है जिससे मार्ग पूरी तरह अवरुद्ध हो जाता है उस स्थिति में लगभग तीनो जिलो के दर्जनों गाँव के ग्रामीण खडगा नदी पर स्वयं के द्वारा बनाया गया यह लकड़ी का पुल जान जोखिम में डाल कर आवागमन करते है



ग्रामीणों के अनुसार आमबेडा के अर्रा,माताला ब आलनार,मुल्ले बंडापाल,देवगांव अथवा आस पास के दर्जनों गाँव के ग्रामीण कोंडागांव जिले के इरागाँव, चुरेगाँव वही केशकाल ब्लाक,नारायणपुर जिले के गाँव, फरसगांव आस पास के अनेक गाँव इसी लकड़ी के पुल पर आना-जाना करते है।

ग्रामीणों ने बाताया कि हर छे  माह में शारदा नदी पर लकड़ी का पुल बनाया जाता है,लकड़ी का पुल नदी से सात फिट ऊपर है इस लकड़ी की पुलिया को पार करते हुए कई बार ग्रामीण गिर चुके है जिससे उन्हें काफी चोटे भी आई है। इस पुलिया को पार करके स्कूली बच्चे भी स्कुल जाते है , वो भी कभी कभी गिर जाते है इस परेशानी से हम ग्रामीणों को कब निजाद मिलेगा यह हम भी नहीं जानते ।


आदिवासी बाहुल्य आमाबेड़ा क्षेत्र के कुरुटोला के ग्रामीणों ने श्रम दान से लकड़ी के पुलिया का निर्माण कर आवागमन व्यवस्थित किया है । पुराने स्टाप डेम के ऊपर बल्लियों के सहारे लकड़ी का पाटा बना कर पुलिया का निर्माण किया गया है । लेकिन नदी में पानी ज्यादा होने पर यह लकड़ी का पुल बाह ज्यादा है। ग्रामीणों के अनुसार हर साल यह लकड़ी का पुल को आस-पास के सारे ग्रामीण श्रम दान से बनाते है । नागरबेड़ा,टिमनार,कुरुटोला,चागोंड़ी,एटेगाव आदि ग्राम के ग्रामवासि इस लकड़ी के पुल में आवागमन करते है ।  अगर कोई इन गावो में बीमार है तो जिला मुख्यालय लाने के लिए उन्हें 60 किमी का सफ़र तय करना होता है, वो भी अगर छोटे नालो में पानी कम हो तो। आमाबेड़ा जाने के लिए उन्हें 30 किमी का सफ़र तय करना होता है। अगर कुरुटोला में पुलिया और सड़क का निर्माण हो जाए तो उन्हें मात्र 7 किमी का सफ़र तय करना पडेगा। खाद,बिज,स्वास्थ्य ,शिक्षा के लिए बारी दिकत्तो का क्षेत्र वासियो को सामना करना पड़ता है । इसी लकड़ी के पुल से बच्चे पाठशाला भी जाते है । फिलहाल तो ग्रामीणों ने सरकार के विकास के दावों को पोल खोलते श्रम दान से आवागमन सुचारू व्यवस्थित किया है । यह पुल15 से 20 गावो को जिला मुख्यालय और आमाबेड़ा से जोड़ता है । पुल के बह जाने से बरसात में अनेक गावो का जिला मुख्यालय से संपर्क टूट जाता है।

tameshwar sinha पर 11:08 am

Monday, August 29, 2016

धर्म पति है और राजनीति पत्नी तो वो कौन है -रवीशकुमार

धर्म पति है और राजनीति पत्नी तो वो कौन है

रवीश कुमार August 29, 2016 9 Comments

जब से मैंने सुना है कि धर्म पति है और उसकी कोई पत्नी भी है तब से मैं मतदाताओं के बारे में सोच रहा हूँ कि वो इन दोनों में से किसी एक के क्या लगते हैं या दोनों के क्या लगते हैं। पति के साइड से मतदाता देवर हुआ या पत्नी की साइड से साला लगेगा। मैं यह नहीं कह रहा कि राजनीति मतदाता की भाभी लगती है परंतु यह ज़रूर पूछ रहा हूँ कि कोई तो बताये कि वो मतदाता की क्या लगेगी। धर्म भैया है या जीजा है। लोकतंत्र में कोई भी रिश्ता मतदाता के बग़ैर नहीं हो सकता है।

धर्म और राजनीति अगर पति पत्नी हैं तो वो कौन हो सकता है। कोरपोरेट ! मल्लब उनके ही घर में तो ये पति पत्नी रहते हैं इसलिए पूछना तो बनता है कि मकान मालिक भी कुछ लगेगा या नहीं। धर्म और राजनीति ने लव मैरिज किया है या अरेंज वाला। यह भी कहा गया है कि हर पति की यह ड्यूटी होती है कि अपनी पत्नि को संरक्षण दे। हर पत्नि का धर्म होता है कि वो पति के अनुशासन को स्वीकार करे। जैन मुनि ने धर्म और राजनीति की शादी तो करा दी लेकिन संविधान को कहीं छोड़ आए। उसे संरक्षण और ड्यूटी के दायित्व से चलता कर दिया है। जैसे संविधान न तो धर्म हुआ न ही किसी की ड्यूटी। जबकि उसमें बताया गया है कि किस अनुच्छेद के तहत किसकी ड्यूटी क्या है । संविधान क्यों है? चुनाव क्यों है?

हरियाणा विधानसभा की यह घटना प्रकाश में आते ही सोशल मीडिया के नौनिहाल वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पता लगाने लगे। जब पता नहीं चल पाया तो मैंने सोचा कि भारत सरकार को वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पता लगाने के लिए एक कमेटी बनानी चाहिए। दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने जितने शोध नहीं किये होंगे उससे ज़्यादा भारत की सरकारी कमेटियों ने करके फेंक दिये होंगे। हमारी कमेटियाँ वैज्ञानिक होती हैं तभी तो उनकी रिपोर्ट धूल भी खा लेती है। कमेटी पता लगाएगी कि वैज्ञानिक क्या है और दृष्टिकोण क्या है। हम भी अपनी तरफ से पता लगाते हैं।

दुनिया की कोई भी दृष्टि बग़ैर किसी कोण के मुकम्मल नहीं है। दृष्टि का मतलब है देखना। नज़र का वहाँ तक पहुँचना जहाँ तक सबकी नज़र नहीं पहुँच पाती। बग़ैर कोण की दृष्टियों क्या बेकार होती हैं? तिरछी नज़र मे इश्क़ है तो टेढ़ी नज़र में नफ़रत। कोण वाली दृष्टि में विज्ञान है या नहीं अब यही पता लगाना रह गया है। उसके विज्ञान का पता चलते ही कमेटी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पता लगा लेगी। क्या पता इसी चक्कर में कुछ वैज्ञानिकों का भी पता चल जाए जो कि अपने दृष्टिकोण के साथ नज़र नहीं आते। आते भी हैं तो उपग्रह छोड़ने से पहले धार्मिक दृष्टिकोण से सलाह मशवरा करने चले जाते हैं।

जिन लोगों ने अभी तक राजनीति को कुवांरा रखा वही अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर हंगामा कर रहे हैं। हमारी राजनीति की बारात निकल गई है और हम हैं कि जनवासा में हंगामा कर रहे हैं। मैं तो प्रसन्न हूँ कि राजनीति की धर्म से शादी हो गई। राजनीति अब अपने पति के संरक्षण और अनुशासन में रहेगी। मल्लब घर में रहेगी। मुनी जी, मौलवी जी और संत जी बाहर जाकर चुनाव लड़ आएँगे। मुझे नहीं पता कि तमाम पत्नियों को नई सखी राजनीति की ये हैसियत पसंद आई है या नहीं। वो तो अभी तक इसी राजनीति से अपने लिए आज़ादी मांग रही थीं कि हमें पतियों और पिताओं की चौकीदारी से मुक्त करो। लो कल्लो बात। अब उनकी राजनीति भी पत्नी हो गई है! हाथ पीले कर दिये गए हैं।

हरियाणा सरकार के मंत्री खुलेआम डेरा सच्चा सौदा के स्कूल को पचास लाख दे आए। ऐसा नहीं कि सिर्फ बुलाया ही जाता है। हमारे नेता मंत्री विधानसभा से ऊँची संतों की धर्म सभा में जाते भी तो हैं। अगर डेरा सच्चा सौदा के स्वामी को सदन में बुलाया जाये तो मैं स्वागत करूँगा। मुझे उनका डीजे गाना बहुत पसंद है। you are the love charger, you are my love charger यह सुनते हुए मैं भाव विभोर हो जाता हूँ। जब सदन में उनका कार्यक्रम होगा तो हम नीरस और नीतिगत विधानसभाओं को जीवंत होते हुए भी देख सकेंगे। नीति निर्माताओं में झूम पैदा होगी और वे मोहबब्त करने वाले सच्चे आइटम बन सकेंगे। इससे समाज में शांति आएगी।

जब भी ये कार्यक्रम हो, केजरीवाल जी को भी बुला लें। विशाल डडलानी को नहीं बुलायें। हो सकता है डडलानी जी हरियाणा के पहले इंग्लिश रॉक की नक़ल मार लें। कांग्रेस को भी बुला लें। उसके विधायक भी तो यह सब होते देख रहे थे। बीजेपी की सहायक नदी की तरह बहने वाली कांग्रेस को एतराज़ भी हुआ तो इस बात से कि मंत्री ने ख़ुद जाकर डेरा सच्चा सौदा को पचास लाख क्यों दिये। कांग्रेस ये आरोप जानबूझ कर इसलिए लगाती है कि बीजेपी उसे याद दिलाए कि उसने भी तो डेरा को संरक्षण दिया है। ये है कांग्रेस का आलसीपन। चाहती है कि बीजेपी ही मेहनत कर ये बताती रहे कि कांग्रेस भी उसी के जैसी है। कांग्रेस जब तक बीजेपी के साथ सदन में प्रवचन सुन रही थी तब तक दिक्कत नहीं हुई। दिक्कत तब हुई जब मंत्री जी वहाँ अकेले चले गए जहाँ से कांग्रेस भी वोट के लिए संसाधन जुटाती है। कांग्रेस कोई वैकल्पिक राजनीति की बात नहीं कर रही है।

जब संस्थाओं का सत्यानाश ही करना है तो गाजे बाजे के साथ होना चाहिए। एकमुश्त होना चाहिए। हम भूल जाते हैं कि हमारी एक आस्था संविधान भी है। उसकी अपनी एक पवित्रता है। हम नहीं चाहते कि इस प्रतियोगिता में कल किसी पादरी या मौलवी को भी बुलाया जाए। ऐसा नहीं है कि हम उनके अनुभवों,ज्ञान, मूर्खताओं और पाखंडों को महत्व नहीं देते। बिल्कुल देते हैं लेकिन उनकी जगह विधान सभा नहीं है। संसद नहीं है। लोकतंत्र में राजनीति एक स्वतंत्र कार्य है। मुनी जी के अनुसार यह किसी पति के अधीनस्थ होगी तो उसकी स्वतंत्रता चली जाएगी। संविधान पति पत्नी को बराबर मानता है। धर्म पति के रूप में पत्नी को अनुशासित करने वाला है तो संविधान छोड़ धर्म से ही अपने अधिकार मांग लीजिये। ये आपकी आस्था से खिलवाड़ नहीं है, संविधान में जो आपकी आस्था है उससे कोई खेल रहा है।

रविश कुमार

इन बाबाओ़ को प्रवचन पंडाल तक रखिये

इन बाबाओ़  को प्रवचन पंडाल तक रखिये ,इन्हें विधानसभाओं या लोकसभा से दूर रखिये .
***
अजीब है हमारा देश
चर्चा इसपर नहीं हो रही कि एक धार्मिक संत विधानसभा में प्रवचन कैसे दे सकता है .
नंगा शब्द बुरा लगता होगा ,इसका पर्यावाची शब्द जरूर होंगे है लेकिन मतलब उन सबके एक ही है ,
और उन्होंने कहा भी क्या ?
धर्म पति और राजनीति पत्नी होना चाहिए ,और हां पत्नी पर पति का नियंत्रण होना चाहिए.
अब उनके इसी वक्तव्य का विश्लेषण कर लेते है,तकनीकी रूप से.
बहुधर्मी देश में निश्चित ही पति की भूमिका में सिर्फ जैन धर्म तो होगा नही.
तो राजनीति किस धर्म को अपना पति माने .
इस्लाम के कानून से देश चलना चाहिए ?
हिन्दू धर्म या सिखी ,ईसाई या भगवान बुध्द की शिक्षायें  उनका मार्ग दिखाये या फिर पांचों पति कि भूमिका अदा करेंगे.
आप हंस रहे है
ये बाबा लोग एसे ही उलजलूल बिना सोचे समझे कुछ भी बोलते रहते है .
इनसे कोई  पूछने से रहा कि यदि धर्म का नियंत्रण हो गया संविधान बेचारा कहां जायेगा.
यह बताने की जरूरत नहीं है कि  सभी धर्म समान नहीं होते  ,यदि एसा होता तो सनातन धर्म के  पैरलल भगवान महावीर जैन धर्म नही चलाते और न बौध्द ,न इस्लाम आता और न ईसाईयत .
थोडी देर को मानलेते है कि राजनीति का नियंत्रण इस्लाम का हो जाये और यह देश इस्लामिक घोषित हो जाये,
वो सभी धर्म के डंडे झंडे समेटने को कह दे तो ?
यदि हिन्दू राष्ट्र  बन जायें , सारे जैनियों और बौधिस्टों  की घर वापसी शुरु कर दे तो ?
उन्होंने आज यह भी कहा कि एक हजार साल बाद धर्म सड जाता है ,
अब
हिन्दू ,इस्लाम, ईसाइयत ,बौध्द हो या जैनी  सब सडे हुये धर्म हुये ,तो अब राजनीति किसे अपना पति माने .
इन सडे हुये धर्म को ?
बहस तो यही होना थी कि इन बाबाओ़  को प्रवचन पंडाल तक रखिये ,इन्हें विधानसभाओं या लोकसभा से दूर रखिये .
यह बडा अनर्थ   कर देंगे.

Sunday, August 28, 2016

महासमुन्द में आदिवासियों की अभी तक के सबसे बड़े जमीन घोटालों में से एक बडी लूट


 छत्तीसगढ़ के  ,महासमुन्द में आदिवासियों की अभी तक के सबसे बड़े जमीन घोटालों में से एक बडी लूट .
*****
* फोरलेन डायवर्जन योजना की आड़ में एक हजार 135 एकड़ जंगल और आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर किया.
* 2005 से 2008 के बीच 148 आदिवासी परिवारों की 500 हेक्टेयर जमीनों को गैर-आदिवासियों के नाम पर फर्जी तरीके से रजिस्ट्री कराई गई.
* 148 आदिवासी परिवारों की जमीनों के साथ शासन से मंजूर 500 करोड़ रुपए की मुआवजा राशि भी हड़प ली गई.
* पीड़ितों में महासमुंद, सराईपल्ली, बसरा और पिथौरा जैसी पिछड़ी तहसीलों के गरीब आदिवासी परिवार शामिल हैं
* आदिवासियों की जमीन और जंगलों पर कब्जा करके हजारों एकड़ जमीन और कई सौ करोड़ रुपए की राशि लूटने की एक और करतूत.
********

भूू-माफियाओं ने अधिकारियों के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय राजमार्ग पर फोरलेन डायवर्जन योजना की आड़ में एक हजार 135 एकड़ जंगल और आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर किया.

इसके बाद सैकड़ों की संख्या में आदिवासी परिवारों की जमीन गैर-आदिवासियों के नाम पर रजिस्ट्री कराई गई और फिर शासन से चार गुना अधिक मुआवजा राशि मंजूर कराते हुए करोड़ों रुपए हड़प लिए गए.
एक अनुमान के मुताबिक यह घोटाला 500 करोड़ रुपए से अधिक का है.
यह पूरा मामला प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले महासमुंद का है.
मामले की जांच एंटी करप्शन ब्यूरो कर रहा है.
इसके पहले विभागीय स्तर पर की गई जांच में घोटाला होना सही पाया गया है.
कहा जा रहा है कि इस जमीन के दलालों ने इतने बड़े पैमाने पर घोटाला सत्ताधारी भाजपा के प्रभावशाली नेताओं के संरक्षण में किया है.
जमीनों पर कब्जे वर्ष 2005 से 2008 के बीच में किए गए हैं.
एंटी करप्शन ब्यूरो के एक अधिकारी ने अनुसार ,
"यह तो इस घोटाले की पहली परत है,
इसी से जुड़े 15 अन्य शिकायतें मिली हैं."
वहीं, सूत्र कहते है कि, "इसमें लोकसेवकों द्वारा फर्जी दस्तावेज तैयार करने और शासकीय जमीन बेचने में संलिप्तता है.
शासकीय दस्तावेजों में कूटरचना और धोखाधड़ी करने पर तहसीलदार, आरआई और पटवारी के खिलाफ भ्रष्टाचार अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत अपराध दर्ज किया गया है."
बताया जा रहा है कि इसमें रायगढ़ और महासमुंद जिले की पिथौरा तहसील के कई प्रभावशाली नेता शामिल हैं.
दूसरी तरफ, महासमुंद जिले के वर्तमान कलक्टर उमेश अग्रवाल का कहना है,
"इस घटनाक्रम से संबंधित कई प्रकरण रद्द किए जा चुके हैं. विभागीय जांच पूरी हो चुकी है. अब शासन स्तर पर कार्रवाई की जानी है."
जानकारी के मुताबिक दलालों ने ये कब्जे महासमुंद और सरायपाली के बीच फैले जंगल और उस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों की जमीन पर किए हैं.
50 हेक्टेयर में करीब 183.53 हेक्टेयर जमीन पिथौरा तहसील के पिल्बापानी क्षेत्र की है.
इस घोटाले के चलते सरकारी खजाने को 500 करोड़ों रुपए की चपत लगी है
2005 में महासमुंद से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-53 के लिए फोरलेन डायवर्सन योजना तैयार की गई.
2005 से 2008 के बीच 148 आदिवासी परिवारों की 500 हेक्टेयर जमीनों को गैर-आदिवासियों के नाम पर फर्जी तरीके से रजिस्ट्री कराई गई.
इस दौरान सभी 148 आदिवासी परिवारों की जमीनों के साथ शासन से मंजूर 500 करोड़ रुपए की मुआवजा राशि भी हड़प ली गई.
2013 में विभागीय स्तर पर इस प्रकरण की जांच की गई.
इसमें सामने आया कि 2005 से 2008 के बीच तत्कालीन कलेक्टर एसके तिवारी के कार्यकाल के दौरान कलेक्टर के हस्ताक्षर से आदेश जारी होते रहे.
हालांकि तत्कालीन कलेक्टर तिवारी का कहना है कि दस्तावेजों में किसी अन्य व्यक्ति ने फर्जी तरीके से उनके हस्ताक्षर किए हैं.
विभागीय जांच में तत्कालीन रजिस्ट्रार बीबी पंचभाई और एसडीएम केडी वैष्णव भी दोषी पाए गए.
इस वर्ष राज्य शासन को भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर सामान्य प्रशासन मंत्रालय के प्रमुख सचिव ने कारण बताओ नोटिस जारी किया.
मगर आज तक इन दोनों अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.
फिलहाल जांच के लिए यह प्रकरण एंटी करप्शन ब्यूरो के अधीन है.
विभागीय जांच प्रतिवेदन में घोटाला सत्यापित होने के बावजूद आदिवासी परिवारों को मुआवजा तो दूर उनकी जमीनों का नामांतरण तक नहीं हुआ.
जमीन पाने की उम्मीद में यहां के सैकड़ों आदिवासी परिवार कलेक्टर कार्यालय से लेकर राजधानी रायपुर के मंत्रालय तक वर्षों से चक्कर काट रहे हैं.
पीड़ितों में महासमुंद, सराईपल्ली, बसरा और पिथौरा जैसी पिछड़ी तहसीलों के गरीब आदिवासी परिवार शामिल हैं.
*****

सरकार ज़मीन छीन कर उद्योगपतियों को देना चाहती है ၊

सन दो हज़ार ग्यारह मार्च के महीने मे करीब 4OO सुरक्षा बल के सैनिकों और पुलिस वालों ने छत्तीसगढ़ के ताड़मेटला, तिम्मापुरम और मोरपल्ली गांव पर हमला किया ၊
सरकार चाहती थी कि गांव में रहने वाले आदिवासी गांव छोड़ कर भाग जायें ၊
सरकार ज़मीन छीन कर उद्योगपतियों को देना चाहती है ၊

आदिवासी पुलिस के हमले से जान बचाने के लिये जंगल में भागे ၊

सुरक्षा बलों नें तीन आदिवासी महिलाओं से बलात्कार किया ၊

पुलिस ने तीन आदिवासियों की हत्या कर दी ၊

पुलिस और सुरक्षा बल गांव में छह दिन तक रहे ၊

गांव से बाहर जाते समय पुलिस ने आदिवासियों के तीन सौ घरों में आग लगा दी ၊

आदिवासियों के घरों में रखा अनाज जला दिया गया ၊

जाते समय पुलिस वाले एक आदिवासी लड़की को साथ में लेकर चले गये ၊

उस लड़की को सारी रात थाने में निवस्त्र रखा और पुलिस वालों ने उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया ।

मुझे गांव वालों ने फोन पर यह सब बताया ၊

मैं उस दिन मुम्बई में था ၊

मैनें इस सब को फेसबुक पर लिख दिया ၊

फेसबुक पढ़ कर दन्तेवाड़ा के कलेक्टर आर प्रसन्ना ने मुझे फोन कर के पूछा कि मेरी बात की सच्चाई का क्या सबूत है ?

मैने कलेक्टर को जवाब दिया कि आप खुद इन गांवों में जाइये और अपनी आंखों से सच्चाई देख लीजिये ၊

और अगर मेरी फेसबुक पोस्ट मे लिखी बात झूठ निकले तो मुझे जेल मे डलवा दीजियेगा ၊

मैने कलेक्टर से यह भी कहा कि थोड़ा अनाज भी साथ में लेकर जाइयेगा ၊

कलेक्टर ने एक ट्रक में राशन पैक कराया और पुलिस द्वारा जलाये हुए गांवों की तरफ बढ़े ၊

उस समय दन्तेवाड़ा का SSP कल्लूरी था ၊

कल्लूरी कम्पनियों का दलाल है ၊

कल्लूरी ने कलेक्टर की गाड़ी गांव के बाहर रास्ते में ही रोक  दी ၊

कल्लूरी ने कलेक्टर के सीने पर पिस्तौल रख दी ၊

कल्लूरी ने कलेक्टर द्वारा लाया गया अनाज भी लुटवा दिया ၊

हम ने इस सब के बारे में फिर लिखा ၊

सरकार ने कलेक्टर और कल्लूरी दोनों का ट्रांसफर कर दिया ၊

कलेक्टर ने तुरंत चार्ज दे दिया , लेकिन कल्लूरी ने पद नहीं छोड़ा ၊

मैनें पत्रकारों को फोन किया कि इन गांवों में जाकर आदिवासियों से मिलिये ၊

हिन्दु अखबार से अमन सेठी और नई दुनिया से आनिल मिश्रा आन्ध्र के रास्ते पुलिस से छिप कर इन गांवों में पहुंचे , और रिपोर्ट प्रकाशित करी ၊

बात बिल्कुल सच्ची थी ၊ जैसा मैने लिखा था , वही सब हुआ था ၊

मैने स्वामी अग्निवेश को फोन कर के इस घटना के बारे में बताया ၊ और उनसे इन गांवों में जाकर आदिवासियों के लिये अनाज पहुँचाने के लिये कहा ၊

स्वामी अग्निवेश दिल्ली से फ्लाइट लेकर छतीसगढ़ पहुँचे और अनाज खरीद कर एक गाड़ी में भरवा कर इन पुलिस द्वारा जलाये गये गांवों की तरफ चले ၊

रास्ते में पुलिस ने स्वामी अग्निवेश की गाड़ी को रोक लिया ၊

पुलिस ने कहा कि आपकी जान को खतरा हो सकता है ၊

असल में आगे पुलिस अधीक्षक कल्लूरी गुण्डो और विशेष पुलिस अधिकारियों को शराब पिला कर अवैध हथियारों से लैस होकर इन गांवों की तरफ जाने वाले रास्ते पर खड़े थे ताकि मीडिया तथा सामाजिक कार्यकर्ता इन जलाये हुये गांवों तक ना पहुंच सकें ၊

कुछ देर के बाद स्वामी अग्निवेश ने पुलिस से कहा मुख्यमंत्री को बता दो मैं जलाये हुए गांव में जा रहा हूँ ၊
स्वामी अग्निवेश पत्रकारों के साथ इन गांवों की तरफ बढ़े ၊
गांव के बाहर दोरनापाल गांव में कल्लूरी के गुण्डो और सशस्त्र विशेष पुलिस अधिकारियों ने स्वामी अग्निवेश और पत्रकारों पर हमला कर दिया ၊

भारी पथराव से स्वामी अग्निवेश और पत्रकारों की गाड़ियों के कांच फूट गये ၊

एक बड़ा पत्थर स्वामी अग्निवेश के सर पर पड़ा, लेकिन भारी पगड़ी के कारण वे बच गये ၊

स्वामी अग्निवेश और पत्रकारों को जान बचा कर वापिस आना पड़ा ၊

आदिवासी पत्रकार लिंगा कोड़ोपी दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी कर चुके थे ၊

लिंगा कोड़ोपी ने इन जलाये हुए गांवों में जाने का निश्चय किया ၊

आदिवासी पत्रकार लिंगा कोड़ोपी चुपचाप इन गांवों में गये ၊

लिंगा कोड़ोपी ने वीडियो इंटरव्यु रिकार्ड किये और वापिस दिल्ली आये ၊

हमने पीड़ित आदिवासियों के कुछ इंटरव्यु यूट्यूब पर डाल दिये ၊

इस बात से सरकार डर गई ၊

लिंगा कोड़ोपी वापिस दन्तेवाड़ा गये ၊

पुलिस ने लिंगा कोड़ोपी को गिरफ्तार कर लिया ၊

पुलिस ने मीडिया को बताया कि लिंगा कोड़ोपी को एस्सार के ठेकेदार से नक्सलवादियों के लिये पन्द्रह लाख रुपये लेते समय पकड़ा गया है ၊

लेकिन पुलिस ने लिंगा कोड़ोपी को उनके घर से पकड़ कर ले जाते समय जीप में कहा कि तुम ताड़मेटला के वीडियो यू ट्यूब पर डालते हो ၊ उसका मजा तुम्हें अब चरवायेंगे ၊

आदिवासी पत्रकार लिंगा कोड़ोपी को दन्तेवाड़ा के नये एसपी अंकित गर्ग के निवास पर ले जाया गया ၊

एसपी के घर पर पुलिस वालों ने लिंगा को निवस्त्र कर दिया और लिंगा के मलद्वार में तेल और मिर्च में डूबा हुआ डंडा घुसेड़ दिया ၊

लिंगा की आंत फट गयी ၊ लिंगा को जेल में डाल दिया गया ၊

इसके बाद पुलिस दिल्ली आयी और लिंगा कोड़ोपी की बुआ सोनी सोरी को पकड़ कर छत्तीसगढ़ ले गई ၊

एस पी अंकित गर्ग ने आधी रात को थाने मे आकर सोनी सोरी को निवस्त्र किया , सोनी सोरी को बिजली के झटके दिये और उनके गुप्तांगों में पत्थर के टुकड़े ठूंस दिये ၊

नन्दिनी सुन्दर ने सर्वोच्य न्यायालय को पुलिस द्वारा तीन गांव  जलाये जाने की इस घटना की सूचना दी ၊
सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को इस घटना की जांच करने के लिये आदेश दिया ၊

जब सीबीआई इस घटना की जांच के लिये वहाँ गयी तो विशेष पुलिस अधिकारियों ने सीबीआई के अधिकारियों पर हमला कर दिया ၊

सीबीआई ने पुलिस के हमलों से से खुद को बचाने की प्रार्थना की ၊

अब सीबीआई को पुलिस मारे तो उसकी रक्षा करने के लिये सुप्रीम कोर्ट किसे कहे ?

सुप्रीम कोर्ट मे सीबीआई ने इस साल जवाब दिया है कि हाँ वहाँ घर जलाने हत्या और बलात्कार की घटनायें तो हुई है ၊

सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई से पूछा कि क्या जिस दिन पुलिस गांव में गई थी उस दिन बलात्कार और घर जलाने की घटनायें हुई हैं ?

सीबीआई ने 2 अगस्त 2O16 को सुप्रीम कोर्ट में जवाब दिया कि हाँ जिस दिन पुलिस गांव में गई थी उसी दिन आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार हुए हैं ၊

लेकिन चूंकि गांव के लोग आशिक्षित है इसलिये बलात्कार किसने किये , हमें नहीं पता ၊

यानी हमें आदिवासियों पर राज तो करना है , लेकिन उनकी भाषा जानने की ज़रूरत भी भारत को नही है ၊

मतलब आदिवासी बलात्कार पीडित महिला की बात इसलिये नहीं सुनी जायेगी क्योंकि प्रधानमंत्री के नीचे काम करने वाली सीबीआई के पास कोई अनुवादक ही नहीं है जो बस्तर की पीड़ित आदिवासी महिला का दर्द दिल्ली के बादशाहों तक पहुंचा दे ၊

अदाणी , अम्बानी , जिन्दल और टाटा के लिये आदिवासियों के गांव जलाना और आदिवासी महिलाओं से बलात्कार करना तुम्हें बहुत मंहगा पड़ेगा , सरकार ၊

हम ना चुप बैठेगें , ना तुम्हें छोड़ेगे ,

लड़ाई जारी रहेगी ၊
हिमांशु कुमार 

छत्तीसगढ़ के अभी तक के सबसे बड़े जमीन घोटालों में से एक है. :महासमुन्द की घटना


यह छत्तीसगढ़ के अभी तक के सबसे बड़े जमीन घोटालों में से एक है. :महासमुन्द की घटना
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* आदिवासियों की जमीन और जंगलों पर कब्जा करके हजारों एकड़ जमीन और कई सौ करोड़ रुपए की राशि लूटने की एक और करतूत.

भूू-माफियाओं ने अधिकारियों के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय राजमार्ग पर फोरलेन डायवर्जन योजना की आड़ में एक हजार 135 एकड़ जंगल और आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर किया.

इसके बाद सैकड़ों की संख्या में आदिवासी परिवारों की जमीन गैर-आदिवासियों के नाम पर रजिस्ट्री कराई गई और फिर शासन से चार गुना अधिक मुआवजा राशि मंजूर कराते हुए करोड़ों रुपए हड़प लिए गए.

एक अनुमान के मुताबिक यह घोटाला 500 करोड़ रुपए से अधिक का है.

यह पूरा मामला प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले महासमुंद का है.
मामले की जांच एंटी करप्शन ब्यूरो कर रहा है.

इसके पहले विभागीय स्तर पर की गई जांच में घोटाला होना सही पाया गया है.
कहा जा रहा है कि इस जमीन के दलालों ने इतने बड़े पैमाने पर घोटाला सत्ताधारी भाजपा के प्रभावशाली नेताओं के संरक्षण में किया है.
जमीनों पर कब्जे वर्ष 2005 से 2008 के बीच में किए गए हैं.

एंटी करप्शन ब्यूरो के एक अधिकारी ने अनुसार ,
"यह तो इस घोटाले की पहली परत है,
इसी से जुड़े 15 अन्य शिकायतें मिली हैं."
वहीं, सूत्र कहते है कि, "इसमें लोकसेवकों द्वारा फर्जी दस्तावेज तैयार करने और शासकीय जमीन बेचने में संलिप्तता है.

शासकीय दस्तावेजों में कूटरचना और धोखाधड़ी करने पर तहसीलदार, आरआई और पटवारी के खिलाफ भ्रष्टाचार अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत अपराध दर्ज किया गया है."

बताया जा रहा है कि इसमें रायगढ़ और महासमुंद जिले की पिथौरा तहसील के कई प्रभावशाली नेता शामिल हैं.

दूसरी तरफ, महासमुंद जिले के वर्तमान कलक्टर उमेश अग्रवाल का कहना है,
"इस घटनाक्रम से संबंधित कई प्रकरण रद्द किए जा चुके हैं. विभागीय जांच पूरी हो चुकी है. अब शासन स्तर पर कार्रवाई की जानी है."

जानकारी के मुताबिक दलालों ने ये कब्जे महासमुंद और सरायपाली के बीच फैले जंगल और उस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों की जमीन पर किए हैं.

500 हेक्टेयर में करीब 183.53 हेक्टेयर जमीन पिथौरा तहसील के पिल्बापानी क्षेत्र की है.
इस घोटाले के चलते सरकारी खजाने को 500 करोड़ों रुपए की चपत लगी है

2005 में महासमुंद से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-53 के लिए फोरलेन डायवर्सन योजना तैयार की गई.

2005 से 2008 के बीच 148 आदिवासी परिवारों की 500 हेक्टेयर जमीनों को गैर-आदिवासियों के नाम पर फर्जी तरीके से रजिस्ट्री कराई गई.

इस दौरान सभी 148 आदिवासी परिवारों की जमीनों के साथ शासन से मंजूर 500 करोड़ रुपए की मुआवजा राशि भी हड़प ली गई.

2013 में विभागीय स्तर पर इस प्रकरण की जांच की गई.

इसमें सामने आया कि 2005 से 2008 के बीच तत्कालीन कलेक्टर एसके तिवारी के कार्यकाल के दौरान कलेक्टर के हस्ताक्षर से आदेश जारी होते रहे.

हालांकि तत्कालीन कलेक्टर तिवारी का कहना है कि दस्तावेजों में किसी अन्य व्यक्ति ने फर्जी तरीके से उनके हस्ताक्षर किए हैं.

विभागीय जांच में तत्कालीन रजिस्ट्रार बीबी पंचभाई और एसडीएम केडी वैष्णव भी दोषी पाए गए.

इस वर्ष राज्य शासन को भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर सामान्य प्रशासन मंत्रालय के प्रमुख सचिव ने कारण बताओ नोटिस जारी किया.
मगर आज तक इन दोनों अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.

फिलहाल जांच के लिए यह प्रकरण एंटी करप्शन ब्यूरो के अधीन है.

विभागीय जांच प्रतिवेदन में घोटाला सत्यापित होने के बावजूद आदिवासी परिवारों को मुआवजा तो दूर उनकी जमीनों का नामांतरण तक नहीं हुआ.

जमीन पाने की उम्मीद में यहां के सैकड़ों आदिवासी परिवार कलेक्टर कार्यालय से लेकर राजधानी रायपुर के मंत्रालय तक वर्षों से चक्कर काट रहे हैं.

पीड़ितों में महासमुंद, सराईपल्ली, बसरा और पिथौरा जैसी पिछड़ी तहसीलों के गरीब आदिवासी परिवार शामिल हैं.

पर्सा ईस्ट केते बासन कोल माइन विस्तार परियोजना की जनसुनवाई–रद्द करने की मांग

पर्सा ईस्ट केते बासन कोल माइन विस्तार परियोजना की जनसुनवाई– छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन जनसुनवाई के निरस्तीकरण की मांग करता है .
***

** कोलमाईंस विस्तार परियोजना की जनसुनवाई रद्द की जायें.
* परियोजना विस्तार की यह मंशा कानूनी प्रक्रिया का एक भद्दा मज़ाक है
* , परियोजना के सम्बंधित गलत या भ्रमात्मक जानकारी देना या किसी अहम् जानकारी को छुपाना कानूनी अपराध
* NGT ने कहा था की इस क्षेत्र में भरपूर जैव विविधता, दुर्लभपशु-पक्षी, तथाहाथी कॉरीडोर होने की जानकारी के चलते खननस्वीकृति से पूर्व इसका सम्पूर्ण समग्र अध्ययन अत्यंत आवश्यक है |
* क्या ऐसे किसी परियोजना को नई पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है जिसकी वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति ही निरस्त हो चुकी हो
* जनसुनवाई निरस्त की जाए और कंपनी द्वारा जनता को भ्रमित करने के प्रयासों को तुरन्त रोका जाए |
* छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन मांग करता है की सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से पूर्व इस परियोजना का कोई विस्तार ना किया जाए
***************
अहम् तथ्यों  को छुपाकर और कानूनी प्रक्रिया का मज़ाक बनाकर की जा रही है पर्सा ईस्ट केते बासन कोल माइन विस्तार परियोजना की जनसुनवाई– छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन जनसुनवाई के निरस्तीकरण की मांग करता है |
दिनाँक 11 सितम्बर 2016 को सरगुजा ज़िले के हसदेव अरण्य क्षेत्र स्थित पर्सा ईस्ट केते बासन कोल माइन के विस्तार के लिए पर्यावरणीय  जनसुनवाई का आयोजन किया जा रहा है | अदानी कंपनी द्वारा संचालित राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड की इस खदान की क्षमता 10 एमटीपीए से बढ़ाकर 15 एमटीपीए किये जाने के सम्बन्ध में यह जनसुनवाई की जा रही है |
परन्तु इस सम्बन्ध में तैयार की गई पर्यावरणीय जांच रिपोर्ट में कई अहम् तथ्यों को छुपाया गया है और इस परियोजना की NGT द्वारा वन स्वीकृति के निरस्तीकरण या इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट में लंबित केस का कोई ज़िक्र ही नहीं किया गया है |
पर्यावरणीय प्रभाव आँकलन नोटिफिकेशन के नियमों के अनुसार जिसमें धारा 8 (6) शामिल है, परियोजना के सम्बंधित गलत या भ्रमात्मक जानकारी देना या किसी अहम् जानकारी को छुपाना कानूनी अपराध है और परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृति के निरस्तीकरण का अपने आप में ही पूर्ण आधार है| इस संबंध में यह बात विशेष है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने 23 मार्च 2014 को पर्सा ईस्ट केते बासन खदान की वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति को निरस्त कर दिया था और आदेश दिया था की पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति इस परियोजना की पुनः जांच करे और एक समग्र अध्ययन करे की क्या यह क्षेत्र पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण है कि कोयला खनन के लिए इसका विनाश नहीं किया जा सकता |
 गौर तलब है कि NGT ने अपने फैसले में इस बात का विशेष उल्लेख किया था कि वन सलाहकार समिति लगातार इस क्षेत्र के संरक्षण के लिए कोयला खनन का विरोध करती रही है और इस सलाह के विपरीत जाकर परियोजना को मिली वन डायवर्सन की स्वीकृति ना सिर्फ गैर कानूनी है परन्तु इससे कई अहम् सवालों की अनदेखी की गयी है |
NGT ने कहा था की इस क्षेत्र में भरपूर जैव विविधता, दुर्लभपशु-पक्षी, तथाहाथी कॉरीडोर होने की जानकारी के चलते खननस्वीकृति से पूर्व इसका सम्पूर्ण समग्र अध्ययन अत्यंत आवश्यक है |
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रैल 2014 को निर्देश दिए की मामले की सुनवाई पूरी होने तक और पर्यावरण मंत्रालयकी जांच पश्चात नए निर्देश आने तक मौजूदा खनन कार्य जारी रह सकता है
| परन्तु सुप्रीम कोर्ट में चल रही कानूनी प्रक्रिया को नज़रन्दाज़ कर और पर्यावरण मंत्रालय के वन सलाहकार समिति के किसी अध्ययन एवं अंतिम निर्देश के पूर्व ही इस खनन परियोजना के विस्तार की कार्यवाही की जा रही है | साथ ही कम्पनी के निर्देश पर तैयार पर्यावरणीय जांच रिपोर्ट ने यह तक बताना ज़रूरी नहीं समझा की इस सम्बन्ध में कोई भी नई प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से प्रभावित होगी

 | साथ ही इस परियोजना विस्तार के कारण वन सलाहकार समिति का लंबित अध्ययन ही बेमानी  हो जायेगा क्यूंकि जांच का मूल आधार ही जांच से पूर्व ही नष्ट हो जाएगा | साफ़ है की परियोजना विस्तार की यह मंशा कानूनी प्रक्रिया का एक भद्दा मज़ाक है और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव के प्रति कंपनी की अत्यंत असंवेदनशीलता का गहरा उदाहरण है |

11  सितम्बर 2014 को पर्यवार्नीय स्वीकृति के समबन्ध में होने वाली जनसुनवाई से एक और अहम् सवाल उत्पन्न होता है | क्या ऐसे किसी परियोजना को नई पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है जिसकी वन भूमि डायवर्सन की स्वीकृति ही निरस्त हो चुकी हो | या फिर क्या संवेदनशील इलाकों में वन स्वीकृति के बिना ही पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है | इसका जवाब शायद पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के 31 नवम्बर 2011 के निर्देश में ढूँढा जासकता है जिसमें स्पष्ट कहा गया था की वन स्वीकृति के बिना या उसकी प्रक्रिया के पूर्ण होने से पहले ना ही पर्यावरणीय स्वीकृति दी जा सकती है और ना ही इस सम्बन्धमें कोई भी कार्यावाही की जा सकती है |
गौरतलब है की इस निर्देष वाले पत्र का ज़िक्र तो कंपनी की रिपोर्ट में किया गया है लेकिन इस निर्देश के पालन की दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया क्यूंकि कानूनी रूप से इस परियोजना की वन स्वीकृति निरस्त की जा चुकी है और उस पर सुप्रीम कोर्ट में केस लंबित है |

इन तथ्यों को ध्यान में रख कर छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन यह मांग करता है की आगामी 11 सितम्बर 2016 को होने वाली जनसुनवाई निरस्त की जाए और कंपनी द्वारा जनता को भ्रमित करने के प्रयासों को तुरन्त रोका जाए | साथ ही केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय कानूनी निर्देश का पालन करते हुए वन सलाहकार समिति को इस क्षेत्र के सम्पूर्ण समग्र अध्ययन के तुरंत निर्देश दे जिसमें NGT द्वारा निर्देशित सभी 7 मुद्दों और प्रश्नों की जांच शामिल हों |

 छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन मांग करता है की सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय से पूर्व इस परियोजना का कोई विस्तार ना किया जाए जिससे इस क्षेत्र के पर्यावरण, जैव विविधता और आदिवासी संस्कृति का विनाश हो जायेगा |
भवदीय
आलोक शुक्ला
9977634040 

फर्जी आत्मसमर्पण पर प्रभात सिंह की विशेष रिपोर्ट

*मैं तो किसान का बेटा हूँ… खेती करता हूँ… नक्सली बताकर सरकार ने क्यों सरेंडर कराया ???*
August 27, 2016 Bhumkal

http://bhumkalsamachar.com/wp/sukma-gompad-tiranga-yatra-village-banda-fake-surrender/

फर्जी आत्मसमर्पण पर प्रभात सिंह की विशेष रिपोर्ट

हम बण्डा गाँव की हकीकत से आपको रूबरू करवाते हैं…

तिरंगा यात्रा से लौटते वक्त मेरी मोटरसाइकिल में कुछ खराबी आ गई थी | जिसे ठीक करते करते रात हो गई | काफी रात होता देख किसी अनहोनी की आशंका में मेरे साथियों ने बण्डा गाँव में ही रुकने का विचार किया | पास के घर में परिवार के मुखिया से एक रात अपने घर में पनाह देने की गुजारिश की और उसने हमारी गुजारिश सहर्ष स्वीकार की | हम जिसके घर में रुके वह पीसम पेंटा का घर था | काफी थके-हारे होने के बावजूद बातचीत करते-करते उसने जो अपनी कहानी सुनाई और उसके बाद गाँव की जो असलियत सामने आई वह दिल दहला देने वाली है | बण्डा गाँव के कूल पाँच लोगों का पुलिस ने कथित रूप से आत्मसमर्पण कराया | जबकि सारे लोग गाँव के खेती करने वाले किसान थे | आज भी वे खेती कर अपना परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं | इनमें से पहली कहानी है पिसम पेंटा कि…

तीन भाइयों में सबसे छोटा पिसम पेंटा के परिवार को सलवा जुडूम कथित जन आन्दोलन शुरू होते ही गाँव छोड़कर भागना पड़ा | परिवार आंध्रप्रदेश (वर्तमान में तेलंगाना का हिस्सा) कमाने चला गया | सलवा जुडूम का असर थमने के बाद दोनों बड़े भाई पिसम राजा एवं पिसम एंका घर लौट आये | गाँव आकर देखा तो पता चला सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं ने उसका घर जला दिया था | घर का सारा सामान जिसमें बर्तन, सोने चाँदी के गहने, कपड़े आदि सभी लूट लिया गया था | टूटे और जले हुए घर की दीवारों के अलावा कुछ भी लूटेरों ने नहीं छोड़ा था | भाइयों ने गाँव में छोटी सी झोपड़ी बनाई और नए जीवन की शुरुआत की | सलवा जुडूम प्रारंभ होने से पहले उसके घर में 40 बकरियाँ, 20 भैसें, 20 गायें थी जो लूट लिए गए | तेलंगाना से पिसम पेंटा घर नहीं लौटा वह वहाँ से बेंगलोर कूली (मजदूरी) करने चला गया | बेंगलोर से लौटकर कोंटा सलवा जुडूम कैम्प में आकर रहने लगा | वहाँ से बैलाडीला मजदूरी करने चला गया जहाँ उसे 11 बी खदान में काम मिल गया | एक माह बाद जब वह घर लौटा तब उसे पता चला की घर परिवार पूरा तबाह बर्बाद हो चूका है |


भाईयों के बिमारी की खबर मिलते ही पिसम पेंटा अपने गाँव बण्डा लौट आया | माँ पिसम आदि खाँसी से और पिता पिसम मुच्चा की मौत पेट फूलने की बिमारी से पहले ही मौत हो चुकी थी | भाई राजा बीमार पड़ा तो मंदिर में पूजा, वड्डे (बैगा गुनिया) से झाड़-फूँक से लेकर भद्राचलम के अस्पताल तक ईलाज करवाया | अंत में पैसे ख़त्म हो जाने के कारण घर लेकर आ गया | राजा का हाथ सुज (फूल) गया और शरीर पूरा सुख गया था | उसने गाँव में अंतिम साँसे ली | दुसरे भाई पिसम एंका की मौत खाँसी से हुई, मूँह से खून निकलता था | कोंटा से लेकर चिंतूर (तेलंगाना), भद्राचलम तक ईलाज करवाया | भद्राचल से डाक्टरों ने उसे खम्मम ले जाने को कहा सरकारी अस्पताल में भी ईलाज करवाने के लिए पैसे नहीं थे इसलिए पेंटा घर वापस लेकर आ गया | कुछ दिन बाद कोंटा में भर्ती करवा दिया और अंत में उसकी भी मृत्य हो गई | दो सालों में दोनों भाइयों की मौत हो गई | गाँव में पीसम पेंटा का परिवार देवी देवताओं की आदिवासी रीति रिवाज से पूजा करता था | पीसम पेंटा बताता है कि कुछ दिनों के बाद मेरे दोनों भाइयों की मृत्यु इसलिए हो गई क्योंकि हम लोगों का पूजा पाठ करना छुट गया था |



पिसम पेंटा के पास करीब 25 एकड़ भूमि है जिसमें से 10 एकड़ में वह खेती करता है | सनातन से यह मूल निवासी परिवार कृषि कार्यों के सहारे जीवन यापन कर रहा है | दोनों भाइयों में राजा की शादी हो चुकी थी; उसके बच्चे नहीं थे तो उसकी पत्नी मायके लौट गई अब वो वही बण्डा गाँव के पुली पारा में अपने माता पिता के साथ रहती है |



साथ में मजदूरी करने वाली मुर्राम राजे से पेंटा की जान-पहचान थी | मुर्राम राजे ग्राम डोंडरा (कोंटा) की रहने वाली थी दोनों ने विचार किया कि पहले घर बनायेंगे फिर विवाह रचाएंगे; दोनों ने अपना घर बनाया और आदिवासी रीति रिवाज से विवाह किया | पेंटा को शादी का दिन महिना तो याद नहीं पर साल याद है | वह बताता है कि उसकी शादी 2009 में गर्मी के मौसम में हुई | पेंटा और राजे को 17 अगस्त 2015 को लड़की हुई | घर लौटने के बाद उसने अपनी मेहनत और लगन से कूल 10 भैसें, 15 गायें, और 11 मुर्गे-मुर्गियाँ जुटा ली हैं | सुबह शाम असली दूध की चाय पिसम को उसकी पत्नी बना कर देती है | वह दही भी जमा लेता है; जिसे वह दोपहर या शाम के भोजन के रूप में दही भात का सेवन करता है |



पीसम पेंटा बताता है कि उसके साथ गाँव के और चार लोगों बसंत कोर्राम, तेलम मुत्ता, पोड़ियम देसा, पुल्ली रातैया का भी पुलिस ने सरेंडर करवाया | कोंटा में दो दिन रखने के बाद दोरनापाल में 3 दिन रखे और सरकारी जलसे में सभी का सरेंडर करवाया गया | लेकिन सरेंडर की परिभाषा इनमें से कई लोगों को मालुम भी नहीं हैं | बसंत कोर्राम जेल एक बार जेल जा चूका है तो वहीं पुल्ली रातैया सलवा जुडूम के बाद से कोंटा में रहकर ड्राइवरी सीख लिया है, तब से वह कोंटा में ही रह रहा है | पोड़ियम देसा गाँव में नहीं रहता वह काम की तलाश में तेलंगाना ही ज्यादातर रहता है | जिसे सरकार के लोग पलायन कहते हैं |

कोर्राम बसंत फर्जी मामले में जेल गया बाहर निकला तो सरकार ने सरेंडर करवा दिया…

कोर्राम बसंत (28) के साथ जो हुआ उसे सुनकर किसी का भी दिल दहल जाए | चार भाइयों में बसंत तीसरे क्रम पर था उसका जन्म एक आदिवासी किसान परिवार में हुआ था | बसंत का बड़ा भाई कोर्राम विनोद 2002 में उचित ईलाज नहीं मिलने से दम तोड़ दिया | महज दो दिन ही हुए थे बुखार को कोत्तागुड़ा तेलंगाना ले जाते समय रास्ते में मौत हो गई | दुसरे भाई कोर्राम महेश की दो लडकियां हुई एक की मौत बिमारी की वजह से हो गई | बसंत का एक पुत्र हैं जबकि उसके एक पुत्र की मौत डिलीवरी के समय हो गई | सबसे छोटे भाई रमेश की शादी एक साल पहले हुई है किन्तु बच्चा नहीं हो रहा है |

बसंत बताता है; सलवा जुडूम आन्दोलन की तबाही से घबराए पूरा परिवार जोगगुड़ा तेलंगाना चला गया था | सलवा जुडूम का डर कुछ कम हुआ तो परिवार आंध्रप्रदेश से 2007 में लौटकर कोंटा आया और कोंटा राहत शिविर (कैम्प) में रहने लगा | बसंत ने आगे बताया कि एक साल कैम्प में रहते हुए बीते ही थे कि 2008 में राहत शिविर (कैम्प) से पुलिस वाले कोंटा थाना बुलाये | थाने में एक दिन रखे फिर वहाँ से जेल भेज दिए | बसंत को जेल भेजने से पहले पुलिस ने उसका जुर्म तक उसे नहीं बताया | बसंत के मुताबिक़ उसे तीन माह दंतेवाड़ा जेल में रखा गया फिर जगदलपुर जेल भेज दिया गया | पुलिस ने उसके उपर कूल 8 फर्जी केस लगाए थे | आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण सभी केस विधिक सहायता प्रदान करने वाले वकीलों ने लड़ा | जगदलपुर से दंतेवाड़ा अधिकाँश पेशी में नहीं लाये जाने कारण ट्रायल में उसे 4 साल लगे | दंतेवाड़ा अदालत में आठों केसों का ट्रायल चला और कोर्राम बसंत सभी केस में दोषमुक्त होकर बाहर आया | बसंत को दिन महिना तो याद नहीं पर इतना जरुर याद है की जब वह रिहा हुआ उस वक्त गर्मी का मौसम था और साल 2011 |

बसंत आगे बताता है कि, सलवा जुडूम शुरू होने के बाद एक भाई रमेश राहत शिविर (सलवा जुडूम कैम्प) में रहता था | वही से वह आंध्रा (वर्तमान तेलंगाना) कमाने गया था | वह वहाँ कुली (मजदूरी) काम करता था | आंध्रा से पुलिस पकड़कर 2010 में कोंटा ले आई | जब बसंत जेल में था तब रमेश को थाने में कुछ दिन बिठाकर रखा गया और बाद में रमेश का सरेंडर कराया गया | बसंत के जेल से छुटने के बाद से वह 2011 में एसपीओ (वर्तमान सहायक आरक्षक) बन गया | परिवार में वह सबसे अधिक पढ़ा लिखा था | छत्तीसगढ़ सरकार की मेहरबानी से वह छठवीं कक्षा पास हो गया था | उसे पुलिस ने कहा था “नौकरी नहीं करोगे तो जेल भेज देंगे |” इस डर से वह पुलिस की नौकरी कर रहा है | वह अब गाँव नहीं आता; पुलिस बनने के बाद से वह कोंटा में रहता है | जब बसंत या उसका परिवार कोंटा बाजार सामान खरीदने-बेचने जाता है तो रमेश से यदा-कदा मुलाकात हो जाती है |

बसंत कहता है मुझे भी कोंटा पुलिस ने ऐसा ही कहा था | मैंने पुलिस बनने से इनकार कर दिया तो मुझे नक्सली बोलकर जेल भेज दिए | जब उससे केस के बारे में हमने पुछा तो वह बताता है कि मुझे कुछ भी नहीं मालुम और अंत में वह जेल से सभी मामलों में बरी हुआ | जेल से लौटने के बाद फिर राहत शिविर में पुलिस के संरक्षण में रहने लगा | गाँव का माहौल ठीक हुआ तो 2012 में सारा परिवार गाँव लौटा और खेती कार्य शुरू किया | सभी भाइयों की शादी सलवा-जुडूम शुरू होने से पहले हो चुकी थी | गाँव आने के बाद बसंत ने शादी की और उसका परिवार खुशी से जीवन यापन कर रहा था |

बसंत बताता है कि “इस साल गर्मी में मुझे पुलिस ने सरेंडर कराया | पुलिस वाले बुलाकर ले गए थे और बोले कि “सरेंडर करोगे तो थाना में नाम रहेगा, पुलिस वाले नहीं मारेंगे कहीं रात में पकड़ेंगे भी तो थाना में लाकार छोड़ देंगे | नाम लिखकर वे रख लिए, सरेंडर कराने से पहले दो दिन कोंटा पुलिस थाने में और 3 दिन दोरनापाल ले जाकर रखे थे | हमसे नक्सलियों के बारे में पुलिस ने किसी प्रकार की पुछताछ भी नहीं की गई | सरेंडर करने के बाद पुलिस वाले नहीं मारेंगे ऐसा एसपी साहब बोले |” सरेंडर के बाद हम लोगों को दोरनापाल से कोंटा थाना लेकर आये और बोले कि “यहीं रहो, पुलिस बनो” | लेकिन हम किसान थे खेती बाड़ी करना था और पुलिस बनने के बाद हमें माओवादियों से भी खतरा था | इसलिए पुलिस के डराने के बाद भी हम लोग गाँव लौट आये, तब से मैं खेती कर रहा हूँ |” आत्मसमर्पण क्या होता है यह इन्हें पता ही नहीं और ना ही बस्तर पुलिस को; शायद इसलिए इन्हें पुलिस पकडती है साथ रखती है फिर आत्मसमर्पण का खेल किया जाता है | नक्सलियों का साथ देने के सवाल पर बसंत कहता है पानी चावल जो माँगते हैं वो देते हैं गाँव में जो आता है उसे देना पड़ता है | कभी बन्दुक नहीं पकड़े, कभी नक्सलियों के साथ घूमें भी नहीं हैं | पुलिस वाले हमारे गाँव आते हैं तो नाश्ता ले कर आते हैं | पुलिस वाले हमसे कुछ नहीं माँगते हैं | नक्सलियों या पुलिस द्वारा मुर्गा-बकरा लूटने की बात पर उसने बताया कि नक्सली कभी मुर्गा बकरा नहीं माँगे, पुलिस वाले सरपंच और पटेल से माँगते हैं तो वो लोग देते हैं |

पाँचवी पास तेलम मुत्ता कथित सरेंडर के बाद भी कर रहा खेती…

तेलम मुत्ता सलवा जुडूम के खौफ से कोंटा राहत शिविर (बेस कैम्प) 2006 में अपने परिवार के साथ चला गया | जुडूम का असर कुछ कम हुआ तो 2008-09 में गाँव वापस लौटा आया | घर लौटा तो घर जलाया जा चूका था | गहने जेवरात बर्तन कपड़े सब लूट लिए गए थे |

गाँव में सबसे सफल किसानों में से एक मुत्ता के घर में 15 बकरी, 20 गाय, 15 भैस, बैल 05 जोड़ी, मुर्गी 20 आदि सभी लूट लिया गया था | अपने गाँव बण्डा वापस आने के बाद खेती के बल पर उसने पक्का खपरैल का मकान बनाया | अभी उसके पास लगभग इतने ही पालतू जानवर हैं; जो उसने अपनी मेहनत के बल पर जुटाए हैं | लेकिन हाल ही में अज्ञात बिमारी से उसकी काफी सारे मुर्गे मुर्गियाँ मर रहे हैं | उसके पास 05 एकड़ खेत हैं जिसमें 10 बोरा धान, 50 किलो तील और 10 क्विंटल मिर्ची की पैदावार होती है | जिसे तेलंगाना के चिंतूर ले जाकर बेचते हैं | जिससे उसे सालान लाख डेढ़ लाख रुपयों की आमदनी हो जाती है | चिंतूर गाँव से मात्र 05 किलोमीटर की दुरी पर है, कोंटा कुछ ज्यादा दूर है और वहाँ सही दाम भी नहीं मिलता है | साल में करीब तीन हजार की सब्जियाँ भी तेलम मुत्ता अपनी खेती से शहर ले जाकर बेच लेता है |

सरकार से पहले धान मिलता था पर इस साल नहीं मिला है | वह बताता है कि हर साल ऐसा होता है कि किसी ना किसी को छोड़कर धान के बीज दिए जाते हैं | यानी आधे लोगों को बीज दिए जाते हैं आधे को नहीं दिए जाते हैं | सिविक एक्शन प्लान के तहत केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की तरफ से कपड़ा (टावेल) और सोलर लाईट मिला था | गाँव में जिसे सोलर लाईट नहीं मिला उसे कम्बल दिया गया | लेकिन पता नहीं क्यों इस साल के अप्रेल माह में नक्सली बताकर गाँव के 05 लोगों के साथ मुझे पुलिस ले गई | गुरुवार को ले गए और सोमवार को छोड़ दिए | पहले कोंटा थाना ले जाकर रखे वहाँ से दोरनापाल ले गए | हम लोगों को यह बोलकर ले गये कि “तुम लोग संघम में थे” | उसे सही आंकड़ा तो याद नहीं पर वह बताता है कि वहाँ 124 या 126 लोगों के साथ फोटो खिंचा गया था | वहाँ मुरलीगुड़ा, चिंताकोंटा, सोन्नमगुड़ा, मलालबण्डा जैसे गाँव से लोगों को लाया गया था | फोटो खिंचाने के वक्त एसपी और आईजी साहब भी मौजूद थे | किन्तु उसे उन अधिकारियों के नाम नहीं पता हैं |

Saturday, August 27, 2016

बस्तर से टाटा को टाटा बाय बाय लोहाडीगुडा बना सिंगूर

          बस्तर से टाटा को टाटा बाय बाय
                लोहाडीगुडा  बना सिंगूर
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* आखिर टाटा ने बस्तर से वापस जाने के निर्णय की औपचारिक घोषणा कर ही दी .
* टाटा, छत्तीसगढ़ सरकार और बस्तर में तैनात फोर्स  पर  बहुत शाप है आदिवासियों का.
* जो टाटा के सामान समेटने पर सियापा कर रहे है और विकास की दुहाई दे रहे है उन्हें एनएमडीसी  के आसपास के गाँव और दही सा बन गये लालपानी को देख लेना चाहिए उनकी सारी विकास की अवधारणा की हवा निकल जायेगी.
* टाटा के प्रवक्ता ने कहा कि माओवादी हिंसा के कारण वह बस्तर से जा रहे है , जाते जाते बड़ा झूठ बोल गया टाटा .
यह झूठ जनतांत्रिक आन्दोलन के खिलाफ हिंसा को जस्टिफाई करने के लिये दिया गया है .
***
टाटा और उसके  लठैत के रूप में काम कर रहे स्थानीय प्रशासन ने हर गैर कानूनी काम किये.
कलेक्टर जगदलपुर ने कैसे फोर्स के बल पर जबरदस्ती  ग्राम सभायें कराई ,एक कमरे में बारी बारी से ग्रमीणों को बुलाकर अंगूठे लगवाये गये कौन नहीं जानता.
तीनों ने मिलकर आदिवासियों की 2500 हेक्टेयर जमीन पर कब्जा किया .
लोहाडीगुडा और आसपास के दस गाँव को उजाड़ा गया ,घरबार स्कूल अस्पताल खतम कर दिये गये.
और हां यही टाटा है इसके साथ जिस दिन अनुबंध हुआ उसी दिन से सलवाजुडूम की शुरुआत हुई ,यह माना जाता है कि सलवाजुडूम के लिये टाटा ने ही महेंद्र कर्मा और सरकारी  योजना को वित्तीय यहायता पहुचाने का काम किया . इसके लिये वक्ती कलेक्टर ने वाकायदा प्रोजेक्ट तैयार किया.
बृह्मदेव शर्मा  ने सबसे पहले टाटा के खतरे से सबको आगाह किया और उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना  पड़ा. जगदलपुर की सडकों पर व्यापारियों भाजपाई और हां कांग्रेसियों ने उनको अपमानित करते हुये प्रोसेशन निकाला ,यह अपमान टाटा को बहुत मंहगा पडने वाला था.
इसके बाद प्रतिरोध फूट पडा ,आदिवासी महासभा और मनीष कुंजाम ने लंबी लडाई लडी ,आदिवासी संगठन भी सडक पर उतरे और एक बडा जन आंदोलन खड़ा हो गया. लोगों ने ग्राम सभा और जनसुनवाई का बहिष्कार किया ,अपनी जमीन से कब्ज़ा छोडने से इंकार कर दिया .
भारी फोजफांटा और टाटा के लिये प्रतिबद्ध शासन भी टाटा को मर्सिया पढने से रोक नहीं पाया.
9500 करोड़ 2000 हेक्टेयर जमीन और  2500 हेक्टर  बेलाडीला से आयरन ओर डिपोजिट   आवंटन भी  टाटा को बस्तर में अपनी लूट को कायम नहीं रहने दिया.
अब कानून और न्याय  तो यही कहता है कि जिन आदिवासियों से जमीन छीनी या अधिग्रहित की गई है उन्हें वापस कर दी जायें और जितना नुकसान इन सालों में हुआ है उसका मुआवजा टाटा से वसूल करके इन्हें प्रदान किया जायें.
अब वो जाते जाते कह रहे है कि  माओवादी हिंसा के  कारण वे वापस जा रहे है .,
उनका यह रणनीतिक बयान  लोकतांत्रिक आंदोलन के खिलाफ और माओवादी हिंसा को ज़ायज बताने के लिए ही है .
चलो मान लेते है कि टाटा को भगाने में  उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका है, यदि ऐसा है तो उनका यह काम प्रशंसा के योग्य ही कहा जायेगा .
रायगढ जशपुर सरगुजा से लेके जांजगीर तक ऐसे आंदोलन की जरूरत है .
काश वहाँ से भी लुटेरों की लूट खतम हो.
प्रतिरोध तो सब जगह है और आज नहीं तो कल जीत उनकी ही होनी है .
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तीन दशक लंबे संघर्ष का नाम है नर्मदा बचाओ आंदोलन

तीन दशक लंबे संघर्ष का नाम है नर्मदा बचाओ आंदोलन


(संघर्ष संवाद )

ओडिशा के संबलपुर की रहने वाली गार्गी शतपथी पिछली 29 से 31 जुलाई तक नर्मदा बांध विस्थापितों के साथ बड़वानी में रही। लौटकर गार्गी ने अपने अनुभवों  की दास्ताँ भेजी जिसे हम आप से साझा कर रहे है;

महानदी को लेकर आमने-सामने ओडिशा और छत्तीसगढ़ की सरकार । ओडिशा सरकार के आरोप के अनुसार, महानदी के ऊपरी भाग में छत्तीसगढ द्वारा छोटे-बडे बांध बनाए जाने के चलते राज्य में पानी की समस्या पैदा हो रही है । इसी टार की स्थति से नर्मदा नदी गुजर रही है, नर्मदा की हालत भी अच्छी नहीं है । पुनर्वास के बिना ही नर्मदा में सरदार सरोवर का हाइट बढाने के खिलाफ लडाई का बिगुल बजा दिया गया है । जून में बांध का गेट खोलने पर अनेक गांव डूब में आनेकी स्थिति में थे । इसे लेकर एनबीए (नर्मदा बचाओ आंदोलन) ओर से रीले अनशन शुरू हो गया था। आंदोलन को और जोरदार करने के लिए नर्मदा की घाटी में राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन किए जाने का निर्णय लिया गया । ऐसे में इस सम्मेलन में भाग लेने का मौका मुझे मिला। नर्मदा आन्दोलन एक ऐसा नाम था जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे थे। हमारे किताबों मे जब कभी विकास व विस्थापन की चर्चा होती, उसमे नर्मदा आंदोलन और मेधा पाटेकर का उल्लेख रहता। बडे बांध से किस तरह विस्थापन, पर्यावरण, संस्कृति की जो तबाही मचती है यह मैरे लिए नई बात नही थी। मैं ओडिशा के संबलपुर जिले की हूं। जहां पर आजाद भारत का सबसे पहला विस्थापन हुआ था। नेहरू जी द्वारा विकास का आधारशीला महानदी में हीराकुद बांध के जरिए रखा गया था। विश्व का यह  सबसे लंबा बांध होने के चलते  22 हजार परिवार विस्थापित एवं 150,000 परिवार प्रभावित हुए थे। उस वक्त लोगों को जिस तरह घर से खदेड कर जंगल मैं फेंका गया था, उस पर हो रही चर्चा मैं बचपन से सुनती आ रही थी। स्कूलों के दिनों से जब कभी किसी लेख में नर्मदा और मेधा जी के आंदोलन को पढती थी, उनका मौन समर्थक बन गयी थी। इसके चलते जब इस सम्मेलन में सामिल होने का मौका मिला तो मैं उसको खोना नही चाहती थी।

नर्मदा के सफर में अनेकों से मुलाकात

अंत में वह दिन आभी आ गया जब मैं मैरी दोस्त शांती और दूसरे साथियों के साथ दिल्ली से नर्मदा की यात्रा शुरू की । यह यात्रा मैरे लिए नर्मदा आंदोलन के साथ भारत के दूसरे प्रांतो में चल रहे जल, जमीन व जंगल की लडाइ के बारे में जानने के अवसर भी था। इस में दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ियों के आंदोलन से लेकर झारखण्ड के खान विरोधी आंदोलन, उत्तराखंड का बांध विरोधी आंदोलन आदि सामिल था। ट्रेन में इन सभी प्रसंगों पर चर्चा करते  कब हम लोग इंदोर पहुँच गए पता नही लगा। यहाँ हां पर सभी प्रतिभागिओं को स्वागत करने मेधा जी पहुंची थी।

इस के बाद कार्यक्रम के अनुसार सभी को प्रभावित गांव होते हुए बडवानी पहुंचना था। लेकिन मैरी दोस्त की हालत बिगडने के चलते हम सभी के साथ जा नही सके। मैरी दोस्त का हालत बिगड जाना हमारे लिए एक सुनहेरा मौका लेकर आया था। जहां पर हमें अपने जीवन का 31 साल आंदोलन को देने वाली एक महिला का साथ मिला। बडबानी  के पाच घंटे की यात्रा हम ने मेधा जी के साथ किये ।  इतने साल आंदोलन करने के बाद एक महिला का व्यक्तित्व कैसे हो जाती है यह  देखना भी मैरे लिए महत्वपूर्ण बात थी। यात्रा  के दौरान कभी नर्मदा बांध में हो रहे विस्थापन तो कभी लोक समस्याओं के बारे में बताती रहती, तो कभी अगले दिन  होने वाले सम्मेलन पर फोन के जरिए साथियों से जाएजा लेती रही। लंबे यात्रा के बाद हम बडवानी पहुंच गए थे। बडवानी मध्य प्रदेश का  एक महत्वपूर्ण जिला है । जहां उतरने के बाद व्यसत माहोल व कामकाज के दौरान भी मेधा जी हमें यह बताना नही भूलिकी उन्होनें हमारे लिए बडे किसान परिवार में रहने की व्य्वस्था की है। मै एक  पत्र्कार हूं, गांव आना मैरे लिए नई बात नही थी। लेकिन अंजान जगह पर रात गुजारना एक नई बात थी।इसके लिए मैं परेशान नहीं थी। मैरे परेशानी का कारण था शौचालय।

तीन दिन का कार्यक्रम था, तो जहां पर रहने की  व्य्वस्था होगी वहां पर शौचालय कैसा होगा, खूले में जाने की शंका से त्र्ास्त थी। सहर से आइ एक  महिला की सोच को सायद मेधा जी ने जान लिया था। या फीर वह इस सोच के बारे में जानती थी इस लिए अमीर शब्द का उपयोग किया। ताकी हम डर न जाए। लेकिन कार्यक्रम के अंतिम दिनों में मेधा जी सभी विधार्थियों से अनुरोध किया कि वे गांव का असली तसवीर देखने के लिए अपनी कैरियर शुरूवात से पहले कम से कम एक साल किसी आंदोलन में जुडकर किसी गांव में रहे। बडवानी में हम जिस घर में रूके हुए थे वहां पर हमारे आराम का पूरा ध्यान रखा गया था। अतिथि की तरह हमारी चर्चा हुई। दाल-ढोगली जो मै कभी नहीं खाई थी, वह खाने का मौका मिला।  हमारे गृहकर्त्त्ता के घर में चार भाइ, भाबी और बच्चे थे। वे भी विस्थापित थे। बडवानी में शिक्षा की इतनी अच्छी व्य्वस्था न होने के चलते अधिकांश बच्चे बाहर ही पढ रहे थे। भाबीया  ऐसे बात कर रही थी, जैसे वे हमे बरसों से जानती हों। सभी का यह स्नेह और अपनापन हमारे लिए नहीं बल्की मेधा जी के लिए था। एक भाबी बोली, जब मेधा जी हमारे लिए अपनी पूरी जवानी दे सकती हैं हम उनके मैहेमानों को कुछ दिन रख नही सकते? यह आंदोलन तो हमारे लिए है। अगले दिन मूझे पता चला, आराम का यह सुविधा केवल हम दोनों को नही बल्की सम्मेलन में भाग लेने आए सभी साथियों को मिला था। नर्मदा बचाव आंदोलन की ओर से जब कभी कोई कार्यक्रम का आयोजन किया  जाता हैं, बाहर से आए लोग गांव के विभिन्न घरों में रहते हैं। इसी से ही आंदोलन के साथ गांव लोगों का जुडाव का पता चलता है।

31 साल के आंदोलन में सामिल होने का मौका

दूसरा दिन सम्मेलन का दिन था, जहां पर 31 साल पुराने इस आंदोलन को और नजदीक से देखने का अवसर था। मैरे लिए यह अवसर एनबीए के कार्यलय से शुरू हुआ। गुंडिया, भगवती, धंडोरा, पेमाल के साथ । भगवती  एक मजदूर हैं और सालों से इस आंदोलन में जुडी हुई हैं। भगवती बताती हैं, पहले उनका घर व जमीन डूब क्षेत्र में आता था, अब सरकार द्वारा जारी दूसरे सर्वे में उनकी जमीन को बाहर कर दिया गया है। उनकी जमीन डूब क्षेत्र में तो नही आता, लेकिन गेट खुलने के बाद जमीन के चारो ओर पानी भर जाएगा। घर और जमीन एक टापू की तरह हो जाएगा। ऐसे में वहां रहना कैसे संभव होगा। अगर सरकार क्षतिपूर्त्त्ती और जमीन नहीं देगी। तो क्य करेंगे। इस आंदोलन से लाभ मिलने की आशा है। वहीं दूसरी ओर धंदोरे से आई पैमाल का कहना था कि घरके बदले उनको 20 हजार क्षतिपूर्त्त्ताी मिली है।  वे जमीन की भी हकदार हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के चलते वह उनको नही मिल पा रहा है। जमीन के लिए वे कितनी बार भाग दौड कर चूकी हैं इसका कोई ठिकाना नहीं। प्लट करवाने के लिए पटवारी ने पांच हजार रूपय्ो रिस्वत की मांग की थी। उन्होंने रिश्वत तो नही दिया रिश्वत की मांग को रिकर्ड करके जिलाधीश को सूनवा दिया । इसका परिणाम स्वरूप पटवारी निलंबित हो गया है। पेमाल, भगवती केवल एक उदाहरण थी। आगे मूझे नर्मदा विस्थापितों की जर्जर स्थिति को और भी नजदीक से देखना बाकी था। इस दौरान हमैं एक वरिष्ठ महिला पत्रकार से मिलने का मौका मिला। वे तीस सालों से पत्रकारिता कर देश में चल रहे विभिन्न आंदोलन क्षेत्र जा चुंकी हैं। थोडी सी चिडचिडि थीं, लेकिन अनेक महत्वपूर्ण बातों की जानकारी भी दे रही थी।

उन्होनें ने ही मेधा जी के सबसे करीबी एक बहन के बारे में बताया। एक साधारण गृहिणी किस तरह आंदोलनकारी बनी वह बताया। साथ ही उनके किसान पति उनके अनुपस्थिति में बच्चे संभाले य्ाह कहना नही भूली।एक आंदोलन को एक महिला का नेतृत्व देने का यह परिणाम था की इस आंदोलन में ज्यादा से ज्यादा महिलाएं जूडी थी। नर्मदा घाट के निकट सम्मेलन स्थल में भी भारी संख्य में महिलाओं की उपस्थिति उसका प्रमाण था। सम्मेलन में केवल स्थानीय लोग नही बल्की गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगड, झ्ाारखंड समेत लगभग 12 राज्यों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। यह सभी आंदोलनकारी एक जूट होकर केवल नर्मदा की लडाई नहीं बल्की अपनी सभी की लडाई को मझबूत कर रहे थे। जहां प्रतिपक्ष केवल पुंजिपती या दलाल नही था बल्की सत्ताधारी भी थे, तो उनके खिलाफ लडने के लिए शक्ति भी इतनी ताकदबर और एकजूट होने की आवश्यकता है यह संदेश दिया जा रहा था।

इस दौरान मुझे बिमल भाई से मुलाकात करने का मैका मिला। उन्होनें टिहरी बांध के बारे में जानकारी दी। साथ ही बांध क्यों नामक एक किताब भी दिया । पहला दिन का सम्मेलन एवं नर्मदा कीनारे वाला शपथ कायर््ाक्रम समाप्त होते होते लगभग रात हो गय्ाा था। लेकिन मेधा जी का काम समाप्त नही हुआ, लोगों के लिए खाने और रहेनी का व्य्ावस्था वह प्रत्य्ाक्ष रूप से देख रही थी। यह  अनेक छात्र्ााओं प्रभावित कर रहा था। बांगालोर से आई समाज सेवा की छात्र्ाा बोली, पुस्तक की इस महिला का बास्तविक रूप देख मैं अभीभूत हो रही हूं।। इस छात्र्ाा से बात करते वक्त जर्नालीजम पढने के दौरान गुजरात से आई मैरी एक सहपाठी जिस तरह मेधा जी को गाली करती थी वह य्ााद आरहा था। आंदोलनकारी हो य्ाा आम महिला सब के लिए अच्छी या बूरी नही हो सकती हैं। सभी अपने अपने चसमों से उसे देखते हैं।

कलाकार से विद्यार्थी तक

नर्मदा बचाव की इस आंदोलन में  कलाकार से लेकर विद्र्थी, पत्र्कार, अधिवक्ता, डक्य्ाुमेंटरी फील्म निर्मता सभी सामिल हो कर इसे मझबूत कर रहे थे। आंदोलनों मे सांस्कृतिक दलों की एक महत्वपूर्ण योगदान है। इससे पहले में ओडिशा के किसान आंदोलन में भी इस योगदान को देख चुकी थी। इस लिए यह मैरे लिए नया नहीं था। आंदोलनात्मक गीत व संगीत जैसे शरीर मे एक ऊर्जा पैदा कर देता था। विशेषकर सम्मेलन से पेहेले केरल के बच्चों के गानों की अगुवाई में रैली शुरू हुआ यह सडकों पर सभी का ध्यन खींच रहा था। इनके अलावा दिली से आई सुसान भाभी से मिलने का अनुभव अच्छा रहा। उनके पति शंकर महानंद आंदोलनात्मक गीत लिखते हैं और सुसान भाभी गाती थी। उनका गान सम्मेलन में आए अनेक विद्यार्थियों को भी छूं लिया था।

दिल्ली विश्विवद्यालय की अनेक छात्र्ााएं उनकी सांस्कृतिक दल में सामिल होने की इच्छा जाहीर कर रही थी। केरल की सुसान का विवाह छत्तीसगड के शंकर के साथ हुआ था। सुसान का कहना था कि पहले तो दोनों को एक दूसरे का भाषा भी ठीक से समझ नही आरहा था, उनकी प्रेम गाथा शूनते वक्त मूझे एक दूजे के लिए फील्म याद आरहा था। सुसान केरल, छत्तीसगड, ओडिशा होते हुए दिली पहुंचीथी। इस लिए जब उनको आप कहां से आए हो पूछा जाता, वे चार राज्यों का नाम लेती थी। इस दौरान झ्ाारखंड के दीपक दास जी का गाना ऐ दादा जागरेञ मूझ्ो इतना अच्छा लगा की, घर आने के बाद तुरंत इसको फेसबूक में सेय्ाार कर लिया । जेएनयू, दिली विश्वविद्यालय्ा, बेंगलुरू, पुणे और ओडिशा से आए विद्यार्थिय्ाों को देखने का  एक अलग अनुभव रहा।

नर्मदा का डूब कहां ले जाएगा

सम्मेलन समाप्त हो चूका था। अधिकांश चले गए थे। लेकिन हम लोग रह गए। शराब के पावंदी की मांग पर दूसरा दिन का सम्मेलन बुलाया गया था। लेकिन हम में से कुछ पहुंच गए थे संभावित विस्थापित गांव पिपलोद। पिप्पल मुन्नी य्ाहां पर जन्म व तपस्या  के बाद ज्ञान प्राप्त होने के चलते गांव का नाम पिपलोद पडा यह बताते हैं 60 साल के भागीराम यादव। नर्मदा बांध के बारे में कुछ कहने के लिए अनुरोध पर वे इतिहास के पन्हों में चले गए। भागीराम के अनुसार नर्मदा में बांध होगी यह चर्चा तो थी। लेकिन पहली बार बांध बनने की पुक्ता जानकारी रेडिओ से उन्हे मिली थी। तब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्र्ाी थे। नेहरू  के समय पर 210 मीटर का बांध का फैसला था, लेकिन मोरारजी देसाई के घोषणा में 460 मीटर बांध बनाने की जानकारी दी गई। यह बात जैसे इलाके में एक आंतक का माहौल पैदा कर दिया था। भागीराम के अनुसार, तब लोगों को लगा जैसे वे सभी बरवाद हो जाएंगे। ऐसे में 25-30 साल की एक युवती द्वारा गांव में बैठक बुलाकर चर्चा किया । बांध का विरोध करने का फैसला लिया गया । गांव के किसान, आदिवासी सभी उस महिला के साथ जूड गए। पिपलोद जहां कूल 700 परिवार के लोग रहते हैं। उन में से 55 परिवार अनुसूचित जनजाती व 50 परिवार अनुसूचित जाती के हैं। अनुसूचित जनजाती के सभी लोग गांव छोड कर चले गए हैं। य्हापर 50 परिवार मछवारों का है।

लेकिन पिछले दो सालों से मछवारों के परिवार कों य्ाहां पर मछली पकडने पर पाबंदी लगाई गई है। य्ाहां तक की 2012 में बाढ के चलते घरो में पानी आगया था। दूसरी ओर सरदार सरोवर बांध पर गुजरात सरकार अपना कब्जा जमा रही है। इस के चलते यह पाबंदी है। मछली पालकों की समिति बनाने पर भी मध्य प्रदेश सरकार की ओर से महत्व नहीं दिए जाने की शिकाय्ात स्थानीय लोगो ने की। किशोर मानठाकुर कहते हैं, बांध के निकट वे क्षेती कर रहे थे। लेकिन आज यह पूरा इलाका बालु हो जाने के चलते क्षेती करना संभव नही हो रहा है। प्लट के साथ 5 लाख क्षतिपूर्त्त्ती दिए जाने का वादा था। लेकिन अबतक 24 हजार मिला है। गीता बाई विवाह के बाद पारिवारीक कारणों के चलते अपने मां घर चली आई हैं, उन्हें क्षतिपूर्त्त्ताी के हिस्से से बाहर कर दिया  गया  है। पिपलोद गांव में पहले डूब से कुछ लोगों को जमीन के बदले जमीन एवं मुआवजा मिलने का निर्देश था। इस पर भागीराम बताते हैं कि 2001 में डूब में उनका तीन एकर की जमीन गई थी। उससे उन्हे 4 लाख 95 हजार मिला था। साथ ही उन्हे प्लट मिला था। लेकिन वह सभी प्लट अतिक्रमण बाला था। इसके खिलाफ उन्होनें अदालत में मामला दायार किया है। जो आज तक चल रहा है। य्ाहां के अनेक आदिवासी बसाड में रहने चले गए हैं। य्ाहां जहां वे बडे क्षेत्र्ा में रहते थे, उन्हें छोटे-छोटे घर में रहना पडा रहा है। प्लट के नाम पर अनेक लोगों को गुजरात में प्लट मिली है। कुछ लोगों ने उसको मंजूर कर  वहा चले गए हैं तो अन्य्ा कुछ इसके खिलाफ लडाई लड रहे हैं। कुछ आदिवासी परिवारों को प्लट के साथ सीर्फ एक चरण की क्षतिपूर्त्त्ती मिली है। दूसरा चरण नहीं मिला है। क्षतिपूर्त्त्ती पैसा पाने के लिए रिश्वत देना पड रहा है यह कहते हैं रघुराम य्ाादव। दूसरी ओर सभी विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन नही मिली है। अनेक लोंगों को सीर्फ पैसा मिला है। उस अर्थ का व्य्ावहार मोटर साइकल और शराब पर किए जाने का उदाहरण कम नही था। गांव घुमते वक्त एक शराबी हमारे पीछे पीछे आरहा था, उसके बारे में पुछताछ करने पर क्षतिपूर्त्त्ताी राशि मिलने के बाद वह इस तरह शराबी होने के बारे में जानकारी दी गई। विस्थापित गांव की यह कहानी मैरे लिए नई नही थी।

ऐसी कहानी में पहले भी शून चूकी थी, अंतर केवल जगह व बांध या कारखाने का था। पिपलोद के बाद हम पिपरी गांव गए। डिसंबर माह में गेट खुलने के बाद इस गांव में पानी भर जाएगा। डिसंबर होने में कुछ ही माह होने के बावजूत कुछ लोग अभी भी गांव छोडे नही हैं। जमीन के बदले जमीन की मांग में लोग पैसे को हाथ भी नही लगा रहे हैं। विस्थापन विरोधी स्लोगान के साथ ही गांव ने हमें स्वागत किया । गांव के दीवार, घर का दरवाजा हर जगह पर बडे बांध विरोधी, विस्थापन विरोधी स्लोगान लिखा था। यहां तक की पंचायत कार्यालय में इस गांव का एक भी लोग ”मुआवजा नही लेने की बात लिखी गई थीञ कार्यालय  के बरंदा में बैठे गांव के 54 साल के बालाराम नारायण जी यादव ने बताया,  सरदार सरोवर बांध के खिलाफ मेधा जी जुडने से बहत पहले वे इस आंदोलन में सामिल थे। 1977 में बांध की घोषणा की गई । इस के खिलाफ 1979-80 में 200 गांव के लोग बस में जाकर विधानसभा का घेराव किया था। नर्मदा बचाव, निमाड बचाव का नारा हर तरह गूंज रहा था। आंदोलन का नेतृत्व भाजपा के एक नेता नर्मदा प्रसाद जी तिवारी ने लिया था। आज सभी राजनैतिक दल बांध के पक्ष में हैं। लेकिन तब कांग्रेस, भाजपा सब आंदोलन में सामिल थे। लेकिन वह एक दीशाहीन आंदोलन था। मेधा जी जूडने के बाद आंदोलन को दीशा मिली। बांध जनीत आक्रोश के कारण ही उस वक्त के चुनाव में कांग्रेस चुनाव जीत गई। लेकिन इस का फाय्ादा नही हुआ। भाजपा सरकार आने के बाद स्थिति और भी खराब हो रहा है। उसी दिन शाम को नदी पार कर हम चिगलदा गए। लेकिन अगले दिन हमै पहाड उपर का आदिवासी गांव जाना था। जहां पहुंच कर लगा जैसे जीवन में अनुभव का एक नया आयम जूड गया है। सायद इस क्षेत्र के बारे में मै शब्द से बयन ना कर सकूं।

आधा घंटे की बातचीत में इन लोगों का समस्या, मानसिकता या मांग के बारे में जानना इतना सहज नहीं। यहां पर पहाडों मे अनेक गांव बसे हैं। जीन में से बादल एवं बिताडा यह दो गांव हम गए थे। महाराष्ट्र और मधîप्रदेश के बीचों बीच यह सभी गांव के लिए सडक मार्ग नही है। जल मार्ग के जरिए बीमार अस्पताल, किसान अपना उत्पाद लेता है, गर्भवती महिला प्रसव के लिए जाती हैं। ओडिशा में ऐसा इलाका देख चुकी थी। मध्यप्रदेश की स्थिति वैसा तो नही ज्य्दा खराब था। नाव और फीर पहाड चढ कर हम सभी बादल गांव पहुंच गए। हर तरफ हरियली और पहाड। यह पहाड जैसे बादल को चुमने के लिए बेताव भी। यहां पर घरों की दूरी काफी ज्यदा थी।

घर के पास सब क्षेती करते हैं। गांव के लोगों ने बताया, वे बहत कम ही बाजार जाते हैं। अपने जरूरत के हिसाब से उत्पाद कर लेते हैं। आवश्यकता भी कम होती है। शिक्षा और स्वास्थ्य्ा मूल समस्य बनी हुई है। कुछ साल पहले एक जिलाधीश अनेक ताम-झ्ाम के साथ य्ाहां आए थे। लोगों को आशा थी कुछ होगा, लेकिन वह आश आज भी पूरे होने की इंतजार में है। यहां पर स्कूल था, लेकिन शिक्षक नहीं थे। ऐसे में नर्मदा बचाव संगठन द्वारा 2001 में जीवन शाला की शुरूवात हुई। लडाई-पढाई साथ-साथ नीति को लेकर जीवनशाला विद्यालय का आरंभ हुआ। स्कूलों मे 8 दूनी 16 और भगत सिंह दोनो पढाबो जाता है। यह सुंदर गांव भी सरदार सरोवर का आक्रोश का शिकार होगा। यह मुझ्ो बेचेन कर रहा था। आदिवासी प्रभावित बादल गांव के सखाराम बताते हैं कि इस गांव में गैर आदिवासिओं को आने पर पावंदी है। डिसंबर में यह पूरा गांव पानी में भर जाएगा।

इस के लिए सरकार की ओर से मुआवजा दिया जा रहा है। लेकिन लोग जमीन की मांग कर रहे हैं। कुछ लोग जमीन पाकर गुजरात भी चले गए है। यहां के आदिवासी जो गैर आदिवासिओं के कुचक्र से बचने के लिए उन्हें अपने गांव में रखने के लिए डरते हैं, वे कैसे बाहर जाकर बसेंगे। फीर जमीन भी उन्हें मध्य्ाप्रदेश में न देकर गुजरात में दिया जा रहा है। अपना जमीन खोकर क्य काम करेंगे। फीर सभी को तो प्लट नही मिलेगा, मुआवजा का कितना रकम उनको मिल पाएगा, उसका कितना सही इस्तमाल होगा। बादल गांव के अनेक लोग यहां पर पुरखों से हैं लेकिन उनमे से 42 लोगों के पास जंगल जमीन का पट्टा है। बाकी लोगों को क्या मूआवजा मिल पाएगा। यह सब प्रश्न था लेकिन जवाब भविष्य की गोद में छुपी हुई थी। बादल के बाद हम बिशाडा गांव गए। जहां नर्मदा बचाव आंदोलन की ओर से जीवन शाला बनाया गया था। महाराष्ट्र का एक शिक्षक को यहां पर निय्ाुक्ति मिली थी। बिशाडा समेत निकटस्थ गांव के बेरखडी, रिंजडी गांव 3-4 बार विस्थापित हो चुके हैं। सरदार सरोवर बांध की उंचाई के साथ उन्हें ऊपर से ऊपर जाना पड रहा है। यह लोग और कितने ऊपर जाएंगे या  नीचे जा कर दिहाडी मजदूर बन जाएंगे। यह सारे सबालों का जवाब मैरे पास नहीं था, जवाब खोजना वक्त भी नही था, क्योंकि शाम होने से पहले हमें  लौटना भी था।
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Friday, August 26, 2016

Tata Steel quits Chhattisgarh project


Tata Steel quits Chhattisgarh project

R Krishna Das | Raipur Aug 26, 2016 01:32 PM IST

Tata Steel has finally given up the plan to set up 5.5 million tonne per annum (Mtpa) green-field integrated steel plant in Chhattisgarh’s Bastar district.


The company had inked a Memorandum of Understanding with the Chhattisgarh government in June 2005 for setting up the plant with an estimated investment of Rs 19,500 crore. Since the proposal could not realise, the MoU period was extended that finally ended in June 2016. The company did not seek another extension.


Anand Sinha, Tata Steel’s Chhattisgarh project head, told Business Standard that the company had officially decided to quit the Bastar steel plant project. The delay in the land allocation on the part of state government’s agencies was learnt to be the reason behind the move.


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The company had selected site near Lohandiguda in Bastar district, otherwise infamous for the Naxal violence. About 2000 hectares of land spread across 10 villages was required. Since the pocket had been notified as “tribal area”, the company could not directly purchase land from the villagers. Instead, the government was supposed to procure land and later allot it to the company.


“The Tata Steel had sent a letter to the state investment promotion board (SIPB) informing about the decision to quit the project,” Managing Director of state-run Chhattisgarh State Industrial Development Corporation (CSIDC) Sunil Mishra said. The process of land acquisition in Lohandiguda was in progress, he added.


Besides land, there was another major factor that propelled Tata Steel to take the decision to abandon a mega steel plan. The actual count-down started in February after the steel major lost an iron-ore mine that it was allotted in Dantewada district---about 150 km from the proposed steel plant site.


The company was allotted 2,500 hectares of iron ore bearing land in Bailadila deposit No. 4 in 2008 to feed raw material for the Bastar steel plant. A prospecting licence was issued to the company for the mine that had an estimated reserve of 108 million tonnes of high grade iron ore.


Since the pocket was infested by Naxal activities, the company failed to complete the prospecting work within the set time following which the agreement reached with the state government for the allocation of iron ore mine stood cancelled. Tata steel lost the mine.


According to Mishra, the state government cannot re-allocate or allot the mine to the company under the amended Mines and Minerals (Development and Regulation) Act 2015. The company now had to participate in the auction that would not be viable for the company.


The Tata steel winded up its offices located in Raipur and Bastar while shifting the manpower to other locations.


PROJECT PROFILE


Capacity: 5.5 MTPA with 625-Mw captive power plant

Land Required: 2,044 hectares

Estimated Investment: Rs 19,500 crores

End Products: Long products like Billets, Sections, Wire Rods and Seamless Pipes required for construction purpose

Employment: Nearly 10,000 with 3715 direct employment Opportunity.

(Source: EIA Report)
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पुलिस के खिलाफ खबरें चलाने वाले पत्रकार मनीष फर्जी मामले में अम्बिकापुर से गिरफ्तार

पुलिस के खिलाफ खबरें चलाने वाले पत्रकार मनीष फर्जी मामले में अम्बिकापुर से गिरफ्तार.

August 26, 2016Written by B4M ReporterPublished in सुख-दुख
( भड़ास 4 मीडिया )

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अंबिकापुर के न्यूज़24 के पत्रकार मनीष सोनी को आज गिरफ्तार कर लिया गया। पत्रकारों की गिरफ्तारी के लिए यह तय किया गया था कि ऐसे मामलों में राज्य सरकार द्वारा गठित एक कमेटी मामले की जांच करेगी उसके बाद तय किया जाएगा कि गिरफ्तारी होगी या नहीं। लेकिन इस मामले में पुलिस ने इस नियम का पालन नहीं किया। आज अचानक पुलिस मनीष के घर पहुंची और उन्हें थाने ले गयी। मनीष को एक पुराने मामले में गिरफ्तार किया गया है। पुराना मामला भी पुलिस ने खुन्नस में एकतरफा कार्यवाही करते हुए मनीष के खिलाफ एफआईआर किया था। तब उच्च पुलिस अधिकारियों ने दखल देकर मामले को दबवाया था। लेकिन उसी मामले में अब पुलिस अफसरों ने मनीष को अरेस्ट करा दिया। मनीष की कई खबरों से पुलिस वाले चिढ़े हुए थे।

कुछ महीने पहले मनीष की मां के साथ एक महिला कांस्टेबल ने बदतमीज़ी और गाली गलौज की थी। मां जब रोने लगीं तो मनीष और महिला कांस्टेबल में तीखी बहस हुई। मनीष ने RI को फ़ोन करके पूछा कि इस महिला कांस्टेबल के खिलाफ शिकायत कहां होगी। मनीष ने तुरंत तो शिकायत दर्ज नहीं कराई लेकिन आरआई ने यह बात महिला कांस्टेबल तक पहुंचा दी। इस मामले में मनीष के पास RI से बातचीत का ऑडियो भी है। महिला कांस्टेबल ने तुरंत मनीष के खिलाफ FIR दर्ज करा दिया। यानि शिकायत पत्रकार को महिला कांस्टेबल के खिलाफ करना था लेकिन महिला कांस्टेबल ने ही भनक पाने के बाद मनीष के खिलाफ एफआईआर करा दिया। महिला कांस्टेबल की शिकायत की बिना जांच किए मनीष के खिलाफ FIR हो गयी। मनीष और उसकी माँ ने जब थाने में अपनी शिकायत करानी चाही तो उनकी शिकायत दर्ज नहीं की गई। पुलिस की एकतरफा कार्यवाही की शिकायत जब कुछ अधिकारियों से की गयी तो उनके दखल के बाद उस समय मनीष के सिर पर गिरफ्तारी की लटकी तलवार हट गई थी।

अब उसी मामले की फाइल खोलकर पुलिस के अधिकारी कुछ नई-पुरानी अदावत निकाल रहे हैं। मनीष ने ज़ी न्यूज़ संवावदाता रहते हुए पुलिस के खिलाफ कई स्टोरी की थी जिससे SP चिढ़े थे। RI अपनी चहेती कांस्टेबल को बचाने की कोशिश कर रहे हैं और एक पत्रकार भी इसमें दिलचस्पी ले रहा है। इस पत्रकार की वसूली को मनीष ने कोरिया संवादाता रहते एक्सपोज़ किया था और वो लिस्ट भड़ास4मीडिया में प्रकाशित की थी जिसमें कथित पत्रकार पुलिस से महीना लेने का ज़िक्र था। इस मामले में दिलचस्प बात है कि यह कथित पत्रकार बलवा के मामले में सज़ायाफ़्ता है और बताया जाता है कि उस कथित की पत्नी भी फ़र्ज़ी सर्टिफिकेट के मामले में फरार है।

इस पत्रकार ने मनीष सोनी को फंसाने के लिए कोरिया SP पर भी दबाव डाला था। मनीष सोनी एक आंख से दिव्यांग हैं जबकि उक्त पत्रकार ने मनीष की दिव्यांगता को फ़र्ज़ी बताकर उसकी शिकायत की थी। sp कोरिया ने जब मामले की जाँच कराई तो मेडिकल बोर्ड के दस्तावेज मनीष ने पेश किये थे। रिपोर्ट के आधार पर Sp ने मामले को FIR के लायक नहीं माना तो इस पत्रकार ने पहले RTO फिर SP ऑफिस पहुंच के ऊपर के पुलिस अधिकारियों की धौस दिखाकर हंगामा काटा। तब SP ने धक्के देकर उसे बाहर का रास्ता दिखाया था। बताया जाता है की यह पत्रकार पुलिस अधिकारियों की शिकायत ऊपर के अधिकारियों तक पहुंचाने की धौंस दिखाकर मनमानी करता है। कुछ लोगों का यहाँ तक कहना है कि उसकी गाड़ी में तेल भी पुलिस थानों से भरवाये जाते हैं।
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राम्या पर मुकदमा देशद्रोह कानून का दुरूपयोग है

-           क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच छत्तीसगढ़
  *  राम्या पर मुकदमा देशद्रोह कानून का दुरूपयोग है
 *   देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है
 *   अतिअमीरों के हित में प्रचारित अंधराष्ट्रवाद का विरोध करें
** -क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच
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रायपुर, 26 अगस्त 2016. क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच (कसम) छत्तीसगढ ने एक बयान जारी कर कहा कि कन्नड़ अभिनेत्री राम्या को महज इतना कहने पर कि पाकिस्तान जहन्नुम नहीं है देशद्रोही बताना असहिष्णुता की इंतहा है।
 यह एक प्रकार से झूठा देशप्रेम है जो किसी भी सामान्य असहमति से खंडित हो जाता है और उसे सहमत करने उससे तर्क करने की बजाय उसे दंडित करना जरूरी मानता है। यह सही है कि राम्या का बयान देश केे रक्षामंत्री मनोहर पार्रिकर के उस बयान पर सीधा चोट करता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें पाकिस्तान नही जाना है, क्योंकि वह तो नरक है, लेकिन लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के बयान को खारिज करना न तो राष्ट्र को खारिज करना हैै और न ही देशद्रोह है।
वह महज अभिव्यक्ति है, जिनके शब्दों को देखने से उसका इरादा जाहिर हो जाता है। राम्या ने अपनी बात को स्पष्ट किया है कि वे माफी नहीं मांगेगी, क्योंकि उनका बयान उन लोगों से असहमति है जो नफरत फैला रहे हैं। जाहिर है कि पाकिस्तान के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सद्भावपूर्ण बयान देते हैं और अचानक अफगानिस्तान से लौटते समय बिना निर्धारित कार्यक्रम के लाहौर जाकर वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की माता के पैर छू आते हैं तो इससे उनका देशप्रेम खंडित नहीं होता। उनकी तारीफ की जाती है और स्वयं भाजपा के बड़े पदाधिकारी यहां तक कह देते है कि हम तो भारत-पाक महासंघ बनाने के पक्ष में हैं, क्योंकि जनसंघ के बड़े नेता दीनदयाल उपाध्याय और समाजवाद के पुरोधा डाॅ. राम मनोहर लोहिया ऐसा चाहते थे।
इस बीच जब राजनाथ सिंह और मनोहर पर्रिकर के आक्रामक बयान आ जाते हैं तो दूसरी तरह की चर्चाएं होने लगती हैं। पाकिस्तान के प्रति ऐसे नरम-नरम बयान और रिश्ते लम्बे समय से चलते आ रहे हैं और उनमें किसी एक को स्थायी नहीं समझा जाता।

 कोशिश यही होना चाहिए कि जीत सद्भाव की ही हो और दोनो देशों की कटुता खत्म की जाए। एैसे में अगर कोई यह बयान दे रहा है कि पाकिस्तान नरक नहीं है तो वह कहां से देशद्रोह हो गया?
विडंबना यह है कि संघ परिवार व उनके जैसों के आक्रामक देशप्रेम और देशद्रोह के विभाजन ने कांग्रेस के बीच भी संशय पैदा कर दिया है। ऐसे में सच्चे देशप्रेमियों को माफी न मांगने पर अड़ी राम्या का साथ देना चाहिए।
 भाजपा की तरह कांग्रेस भी बड़े पूंजीपतियों, बड़े जमींदारों की पार्टी है इसीलिए वह अपने द्वारा शासित राज्य कर्नाटक में तथाकथित हिंदू वोट बैंक के लिए संघ परिवार का साथ दे रही है।

  कन्न्ड़ अभिनेत्री के विरूद्ध शिकायत से पहले बंगलौर में एमनेस्टी इंटरनेशनल पर भी इसी धारा के तहत मामला बनाया गया है। मामले पहले भी दर्ज होते रहे हैं लेकिन केन्द्र में एनडीए की सरकार आने के बाद ऐसे मामलों में काफी बढ़ोतरी हुई है। जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार सहित कई छा़त्रों को जेल भेजा गया, तो गुजरात के हार्दिक पटेल पर भी देशद्रोह का मामला बनाया गया।
 यूपीए शासनकाल में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, अरूंधति राय, विनायक सेन सहित हुर्रियत नेताओं पर भी देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया था। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2014 में बिहार, झारखंड, केरल, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, आंधप्रदेश, हिमांचल प्रदेश और छत्तीसगढ में देशद्रोह के 47 मामले दर्ज किए गए। ज्यादातर मामलों की पृष्ठभूमि तथाकथित माओवाद है।
 वस्तुतः देशद्रोह कानून औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने 1860 में बनाया था, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष जताने पर लागू होता था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इसमें संशोधन कर असंतोष जताने को देशद्रोह नहीं माना गया, बल्कि हिंसा भड़काने की अपील को इस कानून से जोड़ा गया। विडम्बना ही है कि सैकड़ो की संख्या में पुराने कानूनों को खत्म करने के बाद भी अंग्रेजों के जमाने के देशद्रोह कानून को न सिर्फ जतन से ढोया जा रहा है बल्कि इसका इस्तेमाल राजनीतिक हितों के लिए भी हो रहा है।
कानूनविदों, मानवाधिकारवादियों अदालतों की स्पष्ट राय के बाद भी इस कानून की परिभाषा अपनी इच्छा के अनुकूल गढ़ी जा रही है। पड़ोसी देशों के साथ हमारे रिश्ते बेहतर हों तनावहीन हो तथा सब गरीब देश मिलकर सब के लिए विकास करें। लेकिन यह न होकर केवल युद्धोन्मादी बयान दिए जा रहे हैं। हमें रोजी-रोटी और जनवाद चाहिए न कि परमाणु बम और पड़ोसी देशों से जंग। यह सब गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, मंहगाई से जनता का ध्यान हटाने के लिए कुटिल साजिश है और जो यह कर रहे हैं उनका न तो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का इतिहास है और न ही वे स्वंय देशप्रेमी हैं।
देशद्रोह कानून की समीक्षा के साथ-साथ इस बात पर भी बहस होनी चाहिए कि संविधान प्रदत्त अधिकारों को कुचलना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन, सामाजिक समरसता और ताने-बाने को तोड़ने की कोशिशों को किस श्रेणी में रखा जाए ?
 कसम ने अति अमीर और सांप्रदायिक फासिस्टों द्वारा देश के काॅर्पोरेटीकरण की आड़ में तथाकथित अंधराष्ट्रवाद या झूठे राष्ट्रवाद के खिलाफ बुद्धिजीवियों से उठ खड़ा होने की तथा पर्दाफाश करने की अपील की है।
चंन्द्रिका ,संयोजक
कसम छत्तीसगढ़

                               
                                                                         
                                                                          

Thursday, August 25, 2016

क्या पुलिस वालों के मानवाधिकार नहीं होते ?


क्या पुलिस वालों के मानवाधिकार नहीं होते ?
ये मानवाधिकार वाले कभी सुरक्षा बलों के मानवाधिकारों के पक्ष में क्यों नहीं बोलते ?
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हम पर इलज़ाम लगाया जाता है।
क्या मानवाधिकार सिर्फ नक्सलियों के ही होते हैं ?
क्या पुलिस वालों के मानवाधिकार नहीं होते ?
ये मानवाधिकार वाले कभी सुरक्षा बलों के मानवाधिकारों के पक्ष में क्यों नहीं बोलते ?

पहली बात तो यह कि मानवाधिकार वाले तभी बोलते हैं जब सरकार निहत्थे लोगों को जान बूझ कर मार डालती है .
इसलिये हमारे द्वारा नक्सलियों के मानवाधिकारों के लिये बोलने वाला वाला इलज़ाम खारिज

दूसरी बात पुलिस वालों के मानवाधिकार की

चलिए आ जाइए मैदान में
दीजिए पुलिस और सुरक्षा बल वालों को उनके अधिकार

१-गलत आदेश का पालन ना करने का संवैधानिक अधिकार
( जब बड़ा अधिकारी आदिवासियों के गाँव जलाने या बलात्कार के सबूत मिटाने का आदेश दे तब , या जब सिपाही को लगे कि सरकार का विरोध करने वाले शांतिप्रिय तरीके से अपनी बातें रख हैं उन पर लाठी या आंसू गैस नहीं छोडनी चाहिये , तब सिपाही को अपने अफसर के गलत आदेश का पालन ना करने का संवैधानिक अधिकार दीजिए )

२-संविधान में दिये गये इस अधिकार को लागू करने के कारण बड़े अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर अदालत में अपने बड़े अधिकारी के खिलाफ मुकदमा चलाये जाने का अधिकार दीजिए सुरक्षा बलों के सिपाहियों को .

३-अपनी पारिवारिक ज़रूरतों के अनुसार छुट्टी का अधिकार
(माँ मरे या पत्नी के बच्चा हो या बच्चा अस्पताल में हो तब छुट्टी मांगने पर बड़े अफसरों द्वारा बेइज्जती से बचाव का अधिकार दीजिए सिपाहियों को )

४- आठ घंटे ही काम का अधिकार
( सिपाहियों से चौबीस- चौबीस घंटे ड्यूटी करवाना बंद करो आज से ही  )

५-सेवा शर्तों में वर्णित काम के अलावा दूसरे काम ना करने का अधिकार
(वी आई पी ड्यूटी वाले सिपाही से घर का काम करवाया जाता है . साहब के घरों में रसोई का काम , झाडू पोंछा , सब्जी लाना बच्चे को स्कूल छोड़ने जाना , साहब के कुत्ते को टट्टी करवाने ले जाना आदि काम सिपाहियों से करवाना बंद करो )

६-कार्यस्थल की सुरक्षा .
सिपाहियों के बैरक के लिये जो पैसा आता है वह कहाँ जाता है ? उसकी बजाय जान बूझ कर उन्हें गाँव  के बीच में सरकारी स्कूलों को कब्ज़ा करके उसमे रहने के लिये मजबूर किया जाता है . जहां उनका झंझट जनता के साथ होता है .बाद में सिपाहियों पर हमला भी कई बार इसी कारण से होता है .

आपको यह भी याद होगा कि पिछले साल जब अबूझमाड़ में पांच सिपाहियों को अगवा किया गया था तब उन्हें रिहा करवाने के लिये सरकार ने कोई भी कार्यवाही नहीं करी बल्कि उनकी रिहाई के लिये मानवाधिकार कार्यकर्ता ही गये थे और उन्हें रिहा करवा कर लाये थे .

७-सिपाहियों की भरती में रिश्वत लेना बंद करो .
क्या आप जानते हैं कि सारे टेस्ट और जांच पूरी होने के बाद सिपाही के नौकरी के लिये गरीब परिवार के युवाओं से बड़ी रिश्वत ली जाती है जिसे कई बार अपनी ज़मीन बेच कर और कई बार क़र्ज़ लेकर चुका कर युवक नौकरी में जाते हैं . बाद में यही युवक सिपाही बनने के बाद अपना दिया हुआ पैसा वसूलने के लिये गरीब जनता से रिश्वत मांगते हैं और उनके घरों में लूटपाट करते हैं .

चलिए दीजिए सिपाहियों को भी उनके मानवाधिकार .

हिमांशु कुमार 

जबरन कलगांव के आदिवासियों पर बीएसपी टाउनशिप थोपी;

छत्तीसगढ़ सरकार ने जबरन कलगांव के आदिवासियों पर बीएसपी टाउनशिप थोपी; विरोध में स्थानीय आदिवासियों ने दिया तहसीलदार को ज्ञापन

( संघर्ष संवाद )

छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य बस्तर के कांकेर जिले के अंतागढ़ ब्लाक के कलगांव में राज्य सरकार भिलाई इस्पात संयत्र  (बीएसपी) की टाउनशिप निर्माण के लिए आदिवासियों की 17.750 हेक्टेयर जमीन जबरन हड़पने जा रही है । स्थानीय आदिवासी इस जमीन पर खेती कर रहे है । कलगांव के आदिवासियों ने 22 अगस्त 2016 को अंतागढ़ तहसीलदार को भूमि अधिग्रहण पर आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि यह पांचवी अनुसूची क्षेत्र है, कोई भी परियोजना के क्रियान्वयन के लिए ग्राम सभा से सहमति आवश्क है। छत्तीसगढ़ सरकार आदिवासियों की जमीनों को फ़ोर्स, बंदूक, फर्जी केस, जेल के नाम से डरा कर कब्ज़ा कर रही  है । पेश  है बस्तर से तामेश्वर सिन्हा की रिपोर्ट;

कांकेर जिले में अंतागढ़ ब्लाक के  ग्राम कलगांव में 40 वर्षो से खेती-किसानी कर रहे ग्रामवासियों से प्रशासन बीएसपी  टाउनशिप निर्माण के लिए  वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन कर जमींन अधिग्रहण करने में लगी है।

जानकारी के अनुसार  बिना ग्राम सभा के प्रस्ताव के प्रशासन कलगांव ग्रामवासियो की जमीन बीएसपी को सौप देना चाह रही है, ग्रामीण टाउनशिप के लिए अपनी जमींन देना नही चाह रहे है।   प्रशासन उनका मालिकाना हक छीन रही है , कभी बन्दुक की नोक पर जमींन हथियाने की कौशिश तो कभी राजनीतिकरण के पैंतरे अपनाते हुए जबरन जमींन अधिग्रहण को आतुर कांकेर जिला प्रशासन के नुमाइंदे, ग्राम सभा के अनुमति के बिना  किसानो की जमींन हडप लेना चाह रही है| प्रशासन द्वारा पेशा कानून 1996 का भी घोर उल्लंघन कर बिना ग्राम सभा के प्रस्ताव के बिना जमीन अधिग्रहण में लगी है।

22-08-2016 दिन मंगलवार को कलगांव के ग्रामीणों ने अंतागढ़ तहसीलदार को आवेदन के माध्यम से जमींन अधिग्रहण को लेकर  आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि यह पांचवी अनुसूची क्षेत्र है, कोई भी परियोजना के क्रियान्वयन के लिए ग्राम सभा से सहमति आवश्क है, बीएसपी के टाउनशिप के लिए प्रशासन जो जमींन अधिग्रहण कर रही है उस परियोजना से  हम असहमत है,ग्राम सभा कलगांव अपने गाँव के पारम्परिक सीमा के अंदर की सारी जमींन एवं निस्तार की सारे साधन का मालिकाना अधिकार के लिए वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत सामुदायिक वन अधिकार की प्रक्रिया चल रही है, परियोजना के लिए जो जमींन अधिग्रहण किया जा रहा है वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्घंन किया जा रहा है, ग्राम वासियों ने टाउनशिप का विरोध करते हुए 6 अक्तूबर 2015 को जनदर्शन कांकेर में शिकायत भी दर्ज कराई थी, लेकिन जनदर्शन में शिकायत का अभी तक निराकरण नही हुआ, ग्राम वासियों ने कहा कि बीएसपी के परियोजना के लिए अधिग्रहण होने वाले 17.750 हेक्टेयर जमींन के अधिग्रहण पर रोक लगाया जाए और उन्हें उनका मालिकाना हक दिया जाए|

भिलाई इस्पात संयत्र द्वारा अंतागढ़ में टाउनशिप निर्माण को लेकर कलगांव वासी जमीन अधिग्रहण को लेकर विरोध दर्ज कर रहे है, ग्रामीणों के अनुसार 17.750 हेक्टेयर जमीन बीएसपी टाउनशिप के लिए अधिग्रहण किया जा रहा है, आदिवासी ग्रामीण 40 वर्षो से उक्त भूमि पर खेती - किसानी कर आनाज पैदा कर अपना जीवन -यापन चला रहे है । ग्रामीणों ने बताया कि उक्त भूमि को ग्राम सभा ने राजस्व पट्टा के लिये 21/08/2012 को सर्व सहमति से प्रस्तावित कर दिया है । वही वन अधिकार कानून 2006 की धारा 5 के अन्तगर्त ग्राम सभा ने सामुदायिक वन अधिकार एव व्यक्तिगत वन अधिकार दावा प्रक्रिया शुरू करने हेतु प्रस्ताव पारित कर दिया गया गया था। ग्रामीणों के अनुसार टाऊनशिप के लिये जैसे ही उन्हें जमीन को अधिग्रहण की खबर मिली तो ग्रामीणों ने असहमति, आपत्ति दर्ज कराते हुये लिखित में तहसीलदार को कई ज्ञापन भी सौपे थे।

ग्रामीणों ने कहा कि  बीएसपी के टाउन शिप के लिए अंतागढ़ में जामिन अधिग्रहण के बाजाय कलगांव में आदिवासियों की जामिन को जबरन अधिग्रहण करने का प्रयास किया जा रहा है। टाउनशिप से सिर्फ उद्योगपति सेठो और राजनेताओं को लाभ है, जिसके किए कलगांव में खेती-किसानी कर रहे किसानों की जमींन को मोहरा बनाया जा रहा है। खबर है कि स्थानिय कांग्रेस नेत्री कांति नाग कलगांव में जमींन अधिग्रहण को लेकर डटी हुई है, ग्रामीणो का कहना है कि श्रीमती नाग को अंतागढ़ में अपनी जमीन पर टाउनशिप निर्माण करना चाहिए न की खेती-किसानी कर रहे कलगांव के किसानों के जमीनों को जबरिया अधिग्रहण में हिस्सेदारी निभाना चाहिए ।

खबर है कि प्रशासन अब ग्राम वासियों के विरोध को देखते हुए सारे नियम -कायदे ताक में रख कर बिना किसी सुचना के ग्राम सभा कराने जा रही है, जिसमे मुठ्ठी भर उद्योगजगत के सेठ मौजूद रहेंगे ।

ज्ञात हो की आदिवासी बाहुल्य बस्तर में उद्योगपतियों को जमीन देने के लिये शासन -प्रशासन अधिग्रहण के तहत ग्राम सभा में फर्जी तरीके से प्रस्ताव पारित करा लिया जाता है। कई मामले ऐसे भी है जिसमे अधिग्रहण की जानकारी ग्रामीणों को भी नही होती है, और न ग्राम सभा होता है और अगर होता भी है तो इसी तरह प्रशासन द्वारा ग्रामीणों के मन में फ़ोर्स, जमीन नही देने पर जेल होना बता कर प्रस्ताव पारित करा लिया जाता है । बस्तर में जमीन अधिग्रहण के कई मामले ऐसे भी है जिसमे जो ग्रामीण विरोध करता है उन्हें फर्जी नक्सल मामलो में लिप्त कर दिया जाता है।
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छत्तीसगढ़ और उडीसा के लोगों में मतभेद पैदा करने का राजनैतिक षडयंत्र .

* महानदी जोडती हैं तोड़ती नहीं
* उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के जनसंगठनों की सारंगगढ में  गहन चर्चा.
*महानदी को लेकर राजनीति बंद की जाये.
* महानदी बचाओ यात्रा और जन चर्चा के लिये लिये गये विभिन्न निर्णय
*छत्तीसगढ़ और उडीसा के लोगों में मतभेद पैदा करने का  राजनैतिक षडयंत्र .
*नदी और उसके पानी पर पहला ह़क किसानों और रहवासियों का है न कि उधोगों का.
* कारपोरेट के लिये काम कर रहीं हैं दोनों राज्य सरकारें.
आयोजन इंटेक रायगढ़  सारंगढ़ चेप्टर एवं संबलपुर उड़ीसा चेप्टर के तत्वावधान में .
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छत्तीसगढ़ और पश्चिमी उड़ीसा की जीवन रेखा महानदी को लेकर  सारंगढ में गंभीर चर्चा की गई, चर्चा मेंरायपुर ,बिलासपुर ,भुवनेश्वर ,संबलपुर,बरमकेला ,सरिया ,सांकरा ,कोसीर ,चंन्द्रपुर  , नदी गांव ,बालपुर , दुर्ग , भिलाई , तुमगांव, सुन्दरगढ, डभरा ,भुवनेश्वर  पोरथ आदि के सामाजिक संगठन शामिल हुये लगभग दो सौ लोगों की उपस्थिति  में  विभिन्न निर्णय लिये गये.
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ल ने कहा कि दोनों राज्य सरकारें गलत तत्थों को बताकर जनता को गुमराह कर रहे है. उन्होंने कहा कि सरकार सार्वजनिक करें कि कितना पानी उधोगपति को देने का अनुबंध किया है .
महानदी सहित नदियों को बचाने, बने बांधों द्वारा हुए विस्थापन, नदियों के पानी का औद्योगिक उपयोग, खासकर पानी निगलने एवं धुआँ उगलने वाले तापविद्युत गृहों से हो रहे नुकसान एवं सामाजिक तनाव पर सार्थक चर्चा हुई।
 वक्ताओं ने महानदी के पानी को लेकर हो रही निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा दोनों प्रदेश की जनता के बीच वैमनस्य फैलाने की तीखी आलोचना किया।
लिंग राज ने हीराकुंड बांध तक पास्को के पाईपलाईन का विरोध और किसानों को पानी देने के सवाल पर चालीस हजार किसानों के साथ किए आंदोलन के अनुभव को साझा करते हुए कहा कि जगह जगह लोगों के बीच सभा करें, उन तक साहित्य पहुंचाया जाए, जैसा कि हमने अपने आंदोलन के समय पुस्तिका बांटी थी।
संबलपुर उड़ीसा के मोहन्ती ने कहा कि पश्चिम उड़ीसा का सबंध छत्तीसगढ़ की संस्कृती ,कला और  परंपराओं से जुडा है . इन दोनों राज्य की जनता के साथ राजनीति नहीं होनी चाहिए. हमें ध्यान रखना चाहिए कि दोनों राज्यों के  आने वाली पीढ़ियों की विरासत पर राजनीति करने का हम विरोध करते है .
दोनों सरकारें  पानी से आम आदमी और किसानों को  दूर रखना चाहती है .

छत्तीसगढ़ चैप्टर के संयोजक ललित सुरजन ने कहा कि दोनों राज्य के सांस्कृतिक मेल को बिगाड़ने की कोशिश हो रही है ,यह माहौल में तनाव पैदा करके नहीं होगा, सामाजिक और अन्य  संगठनों की जिम्मेदारी है कि एसा माहौल तैयार करें जिससे दोनों राज्य सरकार शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत करें और जरूरत हो तो केंद्र सरकार को चर्चा में शामिल किया जायें.
सभा के सुचारू संचालन के लिये बने अध्यक्ष मंडल में सर्व श्री ललित सुरजन, महेन्द्र कुमार मिश्र, लिंग राज, सुदर्शन दास,महंत रामसुंदर दास शामिल थे.
अंत में सभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव में दस सदस्यीय कोर कमेटी बनाने, दोनों प्रदेशों की राज्य सरकारों को ज्ञापन देने, दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों से अविलंब बात करने अनुरोध, पानी पर हुए अध्ययन के आधार पर विभिन्न जगहों पर बैठक करने ,यात्रा की तैयारियों के लिए उड़ीसा में एक बैठक करने आदि प्रस्ताव पारित किए गए। पूरे कार्यक्रम का सफल संचालन श्री परिवेष मिश्रा ने किया.
आयोजन में प्रमुख रूप से महंत श्याम सुन्दर दास, पूर्व सांसद पुष्पा देवी ,परिवेश मिश्रा ,सतीश जायसवाल, कुलिशा मिश्रा ,महेन्द्र कुमार ,आनन्द मिश्रा,नंद कश्यप, डा. लाखन सिंह, गणेश कछवाहा ,और पचास गाँव से आये करीब दो सौ लोग उपस्थित थे।
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