Friday, July 15, 2016

 छत्तीसगढ़ में बस्तर निलंबित लोकतंत्र का अफसरी टापू.
 (सुनील कुमार संपादक छत्तीसगढ़ )
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बस्तर के कलेक्टर अमित कटारिया की वहां के एक पत्रकार के साथ फोन पर बातचीत की रिकॉर्डिंग भयानक है  ,और वह छत्तीसगढ़ के इस नक्सल-हिंसाग्रस्त इलाके में लोकतंत्र की मौजूदा हालत को साबित करती है। एक अफसर अगर अपनी आलोचना पर किसी को कीड़ा और चूहा कहकर कुचल देने की धमकी दे, तो फिर यह बातचीत सामने आने पर यह कलेक्टर की बात नहीं, सरकार की बात है कि इस पर वह क्या कर रही है।
 इस ताजा सुबूत से दो बातें उठती हैं कि नक्सल हिंसा से घिरे बस्तर के लिए सरकार की सोच, बंदूकों के अलावा और कैसी है। दूसरी बात यह कि सत्ता लोगों में जैसी बददिमागी ला रही है उसे सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी कब तक, और किस हद तक बर्दाश्त करेंगी?

बस्तर में अब स्थानीय प्रशासन और पुलिस को राजधानी से यह खुली छूट मिली दिखती है कि वे जिनसे नाखुश हों, उन्हें नक्सल बताकर बस्तर से भगा दें। इसके अलावा पत्रकारों को जेल में डाल दें, सामाजिक कार्यकर्ताओं का सरकारी खर्च पर प्रायोजित-विरोध करवाएं। सुरक्षा बलों की हिंसा के सच कहने वाली राष्ट्रीय संवैधानिक संस्थाओं की बातों को अनदेखा करें और मीडिया को अपनी पसंद के मुताबिक राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी दो कतारों में खड़ा करें।
यह सिलसिला बस्तर में लगातार चल रहा है और छत्तीसगढ़ के बाहर इस प्रदेश को पूरी दुनिया में स्थायी बदनामी दिला रहा है।
जहां सरकार के पास अनगिनत बंदूकें हैं, लोगों के फोन टैप करने की सहूलियत है वहां पर सुबूतों से कार्रवाई के बजाय सामाजिक कार्यकर्ताओं और प्राध्यापकों को नक्सली कहकर भगाना लोकतंत्र की एक शर्मनाक नौबत है।
 अभी जेएनयू के प्राध्यापकों की एक टीम पर आरोप लगाया जा रहा है कि उसके प्राध्यापकों ने गांवों के आदिवासियों की बैैठक में कहा कि वे नक्सलियों से मिलकर रहें। जिस बस्तर में गांव-गांव में पुलिस, खुफिया पुलिस, पुलिस के खबरची हैं, वहां पर या तो पुलिस ऐसे सुबूत जुटाकर दुनिया को सुनाती, या किसी पर नक्सली होने का आरोप लगाने के पहले सोचती कि यह अपने आप में अपराध है, लेकिन बस्तर के बेकाबू अफसरों को लोकतांत्रिक समझ और जिम्मेदारियों से आजाद कर दिया गया है।

हम पहले भी लिख चुके हैं कि बस्तर एक निलंबित लोकतंत्र से गुजर रहा है और वह अफसरों के प्रशासन वाला एक स्वायत्तशासी टापू बना दिया गया है। ऐसे अफसरों को यह माकूल बैठता है कि वहां के पत्रकार बाहरी दुनिया को हालात न बताएं, और बाकी दुनिया वहां न आए, लेकिन इससे नक्सल हिंसा खत्म नहीं होगी, आदिवासियों पर सरकारी जुल्म बेधड़क बढ़ते चलेगा, जिससे नक्सली वहां अधिक जनाधार पाते चलेंगे।
अब दूसरी बात, बस्तर से परे भी छत्तीसगढ़ में जगह-जगह सत्ता या पैसों की ताकत से बददिमागी दिखती ही रहती है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह सहित कई ऐसे मंत्री और अफसर हैं जो अपने विनम्र बर्ताव के लिए जाने जाते हैं, लेकिन जब उनके मातहत मंत्री और अफसर लोगों को लात मारते दिखते हैं, धमकाते दिखते हैं, तो सत्ता की साख चौपट हो जाती है।

 जिस तरह कहा जाता है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है, उसी तरह सत्ता की एक बददिमागी पूरी सत्ता के लिए लोगों के मन में हिकारत और नफरत भर देती है। ऐसे में कुछ लोगों का अच्छा बर्ताव भी लोगों को याद नहीं रहता है।
राज्य सरकार को तुरंत ही इन दोनों बातों पर ध्यान देना चाहिए। अकेले बस्तर के अफसरों की हरकतें इस राज्य की सारी कामयाबी को खबरों से परे धकेल रही है और लोकतंत्र में रमन-सरकार को यह बहुत भारी पड़ रहा है।
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