Friday, July 15, 2016

भरमार बन्दूक और आदिवासी संस्कृति पर तथ्यात्मक लेख.
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*बस्तर में भरमार बन्दुक आदिवासियों का पारम्परिक औजार..और उनकी संस्कृति है.
*अवैध हथियार के रुप में जब्त की जा रही  भरमार बन्दुक  हथियार  नहीं आदिवासियों का पेनक ( पुरखा) है.
**  तामेश्वर सिन्हा पत्रकार

छत्तीसगढ़ (बस्तर)- बस्तर में आदिवासियों पर नक्सल उन्मूलन के नाम पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर हमेशा से हमला होते आ रहा है , साथ ही संस्कृति-सभ्यता को भी सुनियोजित तरीके से नष्ट किया जा रह है, बस्तर में नक्सलवाद ने जब से अपना पैर पसारा है,आदिवासियों की संस्कृति और उनके रहन सहन पर अत्यन्त विपरीत प्रभाव पड़ रहा  है .
नतीजा यह है की आज बस्तर में नक्सल उन्मूलन के नाम पर तैनात फ़ोर्स हर आदिवासी को नक्सली समझ बैठती है? आदिवासियों की पारम्परिक औजार भरमार बन्दुक जिसे आदिवासी अपना पेनक(पुरखा) मानते है और उसकी सेवा करते है आज वही पारम्परिक औजार आदिवासियों के लिये जी का जंजाल बन गया है.
 बस्तर में आदिवासी समुदाय भरमार बन्दुक की सेवा करते है. लेकिन बस्तर में नक्सल उन्मूलन के नाम पर तैनात फ़ोर्स उनकी सेवा को नक्सल समर्थक मान बैठती है। यह भरमार उनकी संस्कृति है .
यह आदिवासी संस्कृति पर बिना जानकारी का हमला है. कई बार आदिवासियों द्वारा फोर्स को यह बताने के बाद भी कि यह हमारा पेनशक्ति है पुरखा है फिर भी जब्ति नामा किया जाता है.
चूंकि विश्व में सिर्फ बस्तर ही एक ऐसा आदिवासियों का गढ़ है जहां पेन व्यवस्था पाया जाता है। यहाँ पर पेनक (पुरखा) के कई रुप संबंधित गोत्र के दादा के दादा के दादा जो कई पीढ़ी पूर्व हास होकर मतलब मरकर उनके टोटेमिक जीव वनस्पति या सर्वोच्च प्रिय वस्तु को प्रतिकृति स्वीकार करती है उसी प्रतिकृति को पेनकरण करसाड़ के द्वारा उस पेन का नाल काटकर उसमें शक्ति उत्पन्‍न किया जाता है ,
यह प्रिय वस्तु किसी गोत्र का टंगिया, डांग, लाट, तीर-कमान, भरमार ,बरछी, तलवार, त्रिशूल, छुरी ,गपली,  कोई पेड़, भाला ,लोहे का भाग ,फरसी या हंसिया भी हो सकता है। फोर्स को यहां की पेन सिस्टम की जानकारी ही नहीं है। उपरोक्त प्रतिकृतियां बस्तर की पेनक हैं । इन पेनक को जब्ती करके फोर्स आदिवासियों की पुरखा पेन को खत्म कर रही है मतलब कोया पुनेमी संस्कृति को क्षति पहुंचा रही है। उस पेन के पुझारी के विरोध करने से उसे वही परम्परागत फर्जी नक्सली मामलों में गिरफ्तार करती है.
 हमेशा सुर्खियों में रहा है कि भरमार के साथ नक्सली ने समर्पण किया। दरसल यह भरमार के साथ का समर्पण हमेशा सवालों के घेरे में रहा है . नक्सलियों ने भी आदिवासियों के पारंपरिक औजार भरमार बन्दुक का उपयोग बखूबी किया है .
 लेकिन सरकार और नक्सलवादीयों को क्या मालूम  की आदिवासियों का पारम्परिक औजार भरमार की आदिवासी समुदाय सेवा करता है और उनका यह पेन संस्कृति का आदिम हिस्सा है । यही भरमार बन्दुक(औजार) आज बस्तर के हर आदिवासी के लिये एक विनाश साबित हो रहा है , और उनकी संस्कृति की विलुप्तता बरकारार है ,

*भरमार क्या है और उसकी उत्पत्ति कैसे होती है
आदिवासी समुदाय आदिम काल से ही रचनात्मक गुण पाया गया है जैसे आग की खोज , हिंसक पशुओं को नियंत्रित करने के लिए टेपरा, कोटोड़का का विकास कर हिंसक प्रवृत्ति को मधुर ध्वनि से नियंत्रण में कर पशुपालन का व्यवस्था कायम किये । वैसे ही शिकार करना भी आदिवासी की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति रही है। शिकार के लिए प्रयुक्त पारम्परिक औजार बरछी,भाला ,त्रिशूल ,कटार व भरमार का प्रयोग करते आ रहे हैं .
यह सभी पारम्परिक औजार आज भी आदिवासी क्षेत्रों में ही सभी क्षेत्रों में पाये जाते हैं .गोण्डवाना लेण्ड के रहवासियों में टण्डा, मण्डा व कुण्डा नेंग पूरे जीवनकाल को पूर्ण करती है। इन नेंग के बिना कोई भी कोयतोर का जीवन असंभव है।
जब किसी शिकारी आदिवासी की मृत्यु होती है तब मरनी काम के दौरान कुण्डा होड़हना नेंग होता है। कुण्डा होड़हना मतलब पानी घाट से हासपेन मतलब मर कर पेन होने की क्रिया के महत्वपूर्ण नेंग कुण्डा होड़हना होता है जिसमें पानी घाट जैसे तालाब या नदी से कोई भी जलीय प्राणी (जीव) को नये मिट्टी के घड़ा में रखा जाता है। तब यह जीव में ही उस मृत व्यक्ति का जीव उस परिवार के पेन बानाओं से मिलान करने हेतु लाया जाता है.
 इसी दौरान उस परिवार के विशेष रिश्तेदार सदस्य को पेन जनाता है मतलब स्वप्न या अन्य माध्यम से उसे दिखाई देता है कि अमुक मृत सदस्य किस रुप के पेन में पेन रुप में आना चाहता है. वो उपरोक्त प्रतिकृति में से किसी भी एक औजार ,वृक्ष या अन्य पेन स्वरुप को पेन मांदी में स्वीकार करता है.
यही प्रक्रिया के दौरान यदि शिकारी व्यक्ति के मृत्यु उपरान्त किया जाता है तब वह उसके लोकप्रिय औजार भाला,बरछी, त्रिशूल या भरमार को चयन करता है.वह उसी हथियार में पेनरुप में आरुढ़ हो जाता है.यही औजार भविष्य में पेन रुप में उस परिवार के खुंदा पेन के रुप में जन्म लेते हैं और उस परिवार की रक्षा व मार्गदर्शन करते रहते हैं .
यह इन हथियारों की पेन बनने की प्रक्रिया है.

*बदलते परिवेश में पेनक औजारों की स्थिति
उस समय में इन भरमार या पेनक औजारों को जो उस दौरान परम्परागत बुमकाल (पंचायत)  द्वारा स्वीकृति प्रदान की जाती थी जो बाद में पंजीकृत हुए । इन पंजीकृत भरमारों को थाना व्यवस्था स्थापित होने व नक्सली गतिविधियां होने के बाद सरकार द्वारा थानों में रखने का फरमान जारी किया गया । आज भी बस्तर संभाग या अन्य आदिवासी क्षेत्रों के थानों में कई भरमार पेनक जमा किये गये हैं .
वही उस दौरान या उसके बाद भी कई पेनक भरमार जो पंजीकृत नहीं हो पाये या बाद में पेनकरण हुये उसे पुलिस द्वारा अवैध हथियार के रुप में जब्ती की गई जो कि हथियार नहीं पेन हैं । चूंकि पेनक पुरखा हैं और वे समुदाय के परब नेंग में उनकी सेवा अर्जि अनिवार्य होती है। इसलिए इन्हें जब्ति नहीं करना चाहिए . अब किसी मंदिर के भगवान का कोई प्रतिकृति को जब्ति करता है क्या??? यह पेनक प्रतिकृतियों को जब्ति करना मतलब आदिवासियों की "बुढालपेन " को जब्ति कर रहे हैं .आदिवासी क्षेत्रों में आज भी आंगापेन जब मड़यी मेला या किसी अन्य पेन कार्यों से उन थानों से गुजरते हैं तब आंगापेन उन थानों में स्वस्फुर्त प्रवेश करके जब्ती कमरे के पास जाकर जोहार भेंट करते हैं । यह आंगापेन उन जब्तशुदा भरमार पेनक जो कि किसी गोत्र के बुढालपेन(कुलपेन) होते हैं कि सेवा अर्जि करने के लिए ही बस्तर क्षेत्र के थानों में बड़े आतुरता से प्रवेश करते हैं यह इस बात का सबूत है कि वो भरमार नहीं पेनक हैं आंगापेन किसी अन्य सरकारी कार्यालय जैसे तहसील औअन्य कार्यालय में कभी प्रवेश नही करते सिर्फ थानों में ही क्यों प्रवेश करता है? ?? वह भी उसी  थाना में प्रवेश करता है जहां पेनक भरमार,भाला ,तलवार या अन्य पेन प्रतिकृति जब्ती रहता है। जहाँ जब्ती ही नही वहाँ आंगापेन नहीं जाते। उसके बाद ही गंतव्य की ओर अग्रसर होते हैं । वर्तमान में इन पेनक भरमार को ग्रामीण आदिवासियों के द्वारा पेनक बताये जाने के बावजूद भी पुलिस द्वारा जबरन जब्ति करते हुए केस बनाया जाता है।

*इस सम्बन्ध में युवा आदिवासी नारायण मरकाम कहते है कि बस्तर में जो अवैध हथियार के रूप में पुलिस द्वारा आदिवासी ग्रामो से भरमार बन्दुक जप्त कर केस बनाया जाता है या उन्हें नक्सली समर्थक बताया जाता है दरसल भरमार आदिवासियों का पारंपरिक औजार है, वह इसकी सेवा कई वर्षो से करते आ रहे है, भरमार बंदूक होना मतलब हर आदिवासी नक्सली नहीं है यह उनकी संस्कृति है जो पारम्परिक औजारों जैसे बरछी, भाला ,त्रिशूल ,कटार व भरमार का प्रयोग शिकार के लिए प्रयुक्त करते आ रहे है।*

तामेश्वर सिन्हा का लेख

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