Friday, July 15, 2016

जो सोनी सोरी , बेला भाटिया ,  या मुझे नक्सली बता रहे हैं वे वही लोग हैं जो जिनकी वजह से आज लोग हथियार उठाने के लिए मजबूर हुए हैं .
कमल शुक्ला
(पत्रकार)
कोलकाता की एकसभा में
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वर्तमान समय में कई शब्दों के मायने सीधे उलटे हो गए हैं , जो देश को जोड़े रखने की सोचता है उसे देशद्रोही और जनता का लोकतंत्र मजबूत करने की सोचे उसे नक्सलवादी करार दिया जा रहा है | इसके ठीक उलटे जो देश को तोड़ने या बेचने की सोच रहे उन्हें देशभक्त और लोकतंत्र का गला घोटने वालों को विकास समर्थक बताया जा रहा है |
जो सोनी सोरी , बेला भाटिया ,  या मुझे नक्सली बता रहे हैं वे वही लोग हैं जो जिनकी वजह से आज लोग हथियार उठाने के लिए मजबूर हुए हैं | इन्हें बस्तर को कारपोरेट घरानो को सौंपने में अपना हित और मुनाफा दिख रहा है , बहुत पहले जब इन सबके पूर्वज बस्तर में जीवन यापन के लिए आये तो वहां के मालिक आदिवासियों ने उन्हें जमीन दी , स्वागत किया | पर अब ये उन्ही आदिवासियों के जीवन और जल जंगल की कीमत पर अपना विकास चाह रहे हैं |
आप देख लीजिये सरकार के तमाम दमनकारी नीतियों के पक्ष में केवल यही लुटेरा तबका खड़ा है , सरकार में शामिल आदिवासी जनप्रतिनिधि तक नहीं |
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 छत्तीसगढ़ में बस्तर निलंबित लोकतंत्र का अफसरी टापू.
 (सुनील कुमार संपादक छत्तीसगढ़ )
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बस्तर के कलेक्टर अमित कटारिया की वहां के एक पत्रकार के साथ फोन पर बातचीत की रिकॉर्डिंग भयानक है  ,और वह छत्तीसगढ़ के इस नक्सल-हिंसाग्रस्त इलाके में लोकतंत्र की मौजूदा हालत को साबित करती है। एक अफसर अगर अपनी आलोचना पर किसी को कीड़ा और चूहा कहकर कुचल देने की धमकी दे, तो फिर यह बातचीत सामने आने पर यह कलेक्टर की बात नहीं, सरकार की बात है कि इस पर वह क्या कर रही है।
 इस ताजा सुबूत से दो बातें उठती हैं कि नक्सल हिंसा से घिरे बस्तर के लिए सरकार की सोच, बंदूकों के अलावा और कैसी है। दूसरी बात यह कि सत्ता लोगों में जैसी बददिमागी ला रही है उसे सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी कब तक, और किस हद तक बर्दाश्त करेंगी?

बस्तर में अब स्थानीय प्रशासन और पुलिस को राजधानी से यह खुली छूट मिली दिखती है कि वे जिनसे नाखुश हों, उन्हें नक्सल बताकर बस्तर से भगा दें। इसके अलावा पत्रकारों को जेल में डाल दें, सामाजिक कार्यकर्ताओं का सरकारी खर्च पर प्रायोजित-विरोध करवाएं। सुरक्षा बलों की हिंसा के सच कहने वाली राष्ट्रीय संवैधानिक संस्थाओं की बातों को अनदेखा करें और मीडिया को अपनी पसंद के मुताबिक राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी दो कतारों में खड़ा करें।
यह सिलसिला बस्तर में लगातार चल रहा है और छत्तीसगढ़ के बाहर इस प्रदेश को पूरी दुनिया में स्थायी बदनामी दिला रहा है।
जहां सरकार के पास अनगिनत बंदूकें हैं, लोगों के फोन टैप करने की सहूलियत है वहां पर सुबूतों से कार्रवाई के बजाय सामाजिक कार्यकर्ताओं और प्राध्यापकों को नक्सली कहकर भगाना लोकतंत्र की एक शर्मनाक नौबत है।
 अभी जेएनयू के प्राध्यापकों की एक टीम पर आरोप लगाया जा रहा है कि उसके प्राध्यापकों ने गांवों के आदिवासियों की बैैठक में कहा कि वे नक्सलियों से मिलकर रहें। जिस बस्तर में गांव-गांव में पुलिस, खुफिया पुलिस, पुलिस के खबरची हैं, वहां पर या तो पुलिस ऐसे सुबूत जुटाकर दुनिया को सुनाती, या किसी पर नक्सली होने का आरोप लगाने के पहले सोचती कि यह अपने आप में अपराध है, लेकिन बस्तर के बेकाबू अफसरों को लोकतांत्रिक समझ और जिम्मेदारियों से आजाद कर दिया गया है।

हम पहले भी लिख चुके हैं कि बस्तर एक निलंबित लोकतंत्र से गुजर रहा है और वह अफसरों के प्रशासन वाला एक स्वायत्तशासी टापू बना दिया गया है। ऐसे अफसरों को यह माकूल बैठता है कि वहां के पत्रकार बाहरी दुनिया को हालात न बताएं, और बाकी दुनिया वहां न आए, लेकिन इससे नक्सल हिंसा खत्म नहीं होगी, आदिवासियों पर सरकारी जुल्म बेधड़क बढ़ते चलेगा, जिससे नक्सली वहां अधिक जनाधार पाते चलेंगे।
अब दूसरी बात, बस्तर से परे भी छत्तीसगढ़ में जगह-जगह सत्ता या पैसों की ताकत से बददिमागी दिखती ही रहती है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह सहित कई ऐसे मंत्री और अफसर हैं जो अपने विनम्र बर्ताव के लिए जाने जाते हैं, लेकिन जब उनके मातहत मंत्री और अफसर लोगों को लात मारते दिखते हैं, धमकाते दिखते हैं, तो सत्ता की साख चौपट हो जाती है।

 जिस तरह कहा जाता है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है, उसी तरह सत्ता की एक बददिमागी पूरी सत्ता के लिए लोगों के मन में हिकारत और नफरत भर देती है। ऐसे में कुछ लोगों का अच्छा बर्ताव भी लोगों को याद नहीं रहता है।
राज्य सरकार को तुरंत ही इन दोनों बातों पर ध्यान देना चाहिए। अकेले बस्तर के अफसरों की हरकतें इस राज्य की सारी कामयाबी को खबरों से परे धकेल रही है और लोकतंत्र में रमन-सरकार को यह बहुत भारी पड़ रहा है।
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शादी की मेंहदी भी नहीं उतरी थी और नक्सली बताकर मार दिया मेरी बेटी को
(पत्रिका)

शेख तैय्यब ताहिर/जगदलपुर. अभी तो उसकी शादी हुई थी साहब! शादी की मेहंदी तक नहीं उतरी थी और उन वर्दी वाले दरिंदों ने उसे मार डाला। मारने से पहले उसके साथ गलत काम भी किए उन लोगों ने।

इतना कहते उस आदिवासी मां मड़कम लक्ष्मी की आंसू छलक पड़े, जिसकी बेटी मड़कम हिड़मे को कुछ दिन पहले ही मुठभेड़ में मारने का दावा पुलिस ने किया था।
कुछ देर रुक कर उसने कहा साहब! शादी वाले दिन ढोल-नगाड़े बज रहे थे और घर मेहमानों से भरा हुआ था, कितनी खुश भी वह। उसने सहेलियों के साथ खूब मस्ती की थी। शादी के पारंपरिक परिधान में बिल्कुल परी जैसी लग रही थी।

हर तरफ हॅंसी-मजाक चल रहा था। उसकी विदाई हुई तो घर खाली हो गया था। इसके आठ दिन बाद वह पहली बार वह नहाय खाय के रस्म के लिए घर आई थी।

किसे पता था अबकी बार वह इतनी दूर चली जाएगी कि कभी लौट कर नहीं आएगी। अब सभी उसे नक्सली बता रहे हैं, लेकिन मेरी बेटी नक्सली नहीं है। हम गांव में रहते हैं, आदिवासी हैं, गरीब हैं तो इंसान नहीं है क्या?

क्या कोई भी हमें ऐसे मार सकता है? कुछ ऐसे ही तीखे सवालों के साथ वह अपनी बात हमारे सामने रख रही थी। शायद इन सवालों का जवाब मेरे पास भी नहीं था।
इस आदिवासी माँ ने पहली पर पार की गांव की सरहद

अपनी बेटी को न्याय दिलाने धुर नक्सल प्रभावित गांव गोमपाड़ की आदिवासी महिला मड़कम लक्ष्मी ने पहली बार गांव की सरहद पार की है। बिलासपुर हाईकोर्ट में वकीलों के सवालों के जवाब से लेकर मीडिया के सवाल का उसे जवाब देना पड़ रहा है।

इसके बाद भी उसके हौसले और जज्बे में कहीं कोई कमी नहीं आई। दिल में बेटी को खोने की टीस लिए वह न्यायिक प्रणाली पर भरोसा करती है। बिलासपुर में अगली पेशी 28 जून को है।

इससे पहले वह यहां एक स्थानीय होटल में कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ रुकी थी। इस दौरान मुलाकात में रिपोर्टर को उसने अपनी व्यथा बताई। बेटी को खोने का दर्द चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था।

आंखें नम थीं और बोलते हुए होंठ कांप रहे थे। शायद गांव के बाहर की चकाचौंध भरी दुनिया की वह आदी नहीं थी। इसलिए वह कुछ सहमी हुई थी। धीरे-धीरे अपनी बात कह रही थी।

वह गोंडी बोली में बोल रही थी और उसके पति मड़कम कोसा हमें हिन्दी में उसकी बात का अनुवाद कर रहे थे लेकिन भाषायी दीवार के बाद भी उसकी आवाज का दर्द हम तक पहुंच रहा था।

घसीटते हुए घर से उठा ले गए मेरी बेटी को
उस दिन की बात कहते हुए उसकी आंखें भर आई और आंखों में दर्द का सैलाब उमड़ आया। लक्ष्मी ने बताया, हिड़मे शादी के बाद पहली बार नहाने की रस्म के लिए मायके आई थी। यहां आने के बाद वह बीमार हो गई थी।

13 जून की सुबह वह और उसकी बेटी घर पर थी और परिवार के दूसरे लोग खेत गए थे। हिड़मे घर के बाहर पेज बनाने के लिए धान कूट रही थी, तभी पुलिस के जवान वहां आ धमके। उसे पकड़ लिया और उसे अपने साथ ले जाने लगे।

वह चिल्लाई तो उसकी आवाज सुनकर बेटी को छुड़ाने वह दौड़ी। जवानों ने उसे गिरा दिया और उसे घसीटते हुए कुछ दूर ले गए। इसके बाद एक जवान ने कहा कल तेरी बेटी को छोड़ देंगे और हिड़मे को घसीटते हुए अपने साथ लेकर जंगल की ओर चले गए।

उसे बचाने वह उसके पीछे दौड़ती रही लेकिन जवानों ने उसे धमकाया और कहा पीछे आई तो गोली मार देंगे। इसके बाद अगले दिन बेटी की लाश घर पहुंची। एक दिन पहले जो पुलिस वाले उसे घर से जिंदा ले गए थे, वहीं उसे ताबूत में बंद कर लेकर लाए थे।

अब सिर्फ न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा
बेटी के साथ इतना कुछ होने के बाद भी धुर नक्सल प्रभावित गांव के इस दंपत्ति को न्यायिक प्रणाली पर पूरा भरोसा है। उनका मानना है, एक न एक दिन उनकी बेटी के साथ जो कुछ हुआ उसका सच सामने आएगा।

उन हत्यारे पुलिस वालों को इसकी सजा जरूर मिलेगी। उन्होंने बताया, इस लड़ाई में सामाजिक कार्यकर्ता और आप नेत्री सोनी सोरी ने उनकी मदद की। उनकी मदद से ही वे हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर सके।

इसके बाद हाईकोर्ट ने हिड़मे के शव को कब्र से निकालकर मेकॉज में दुबारा पोस्टमार्टम करवाया है।27 जून को सरकार को पीएम रिपोर्ट अदालत में प्रस्तुत करना है। उनका मानना है कि पीएम रिपोर्ट से इस घटना की असलियत सामने आ जाएगी।


सोनी सोरी को नक्सली समर्थक साबित कर जेल भेजने का नया षड्यंत्र

आम आदमी पार्टी की छत्तीसगढ़ राज्य अभियान समिति प्रभारी सोनी सोरी को जेल भेजने का नया षड्यंत्र रमन सिंह सरकार द्वारा सामने आया है ।
सोनी सोरी के ऊपर घातक केमिकल हमले के बाद भी उनका संघर्ष छत्तीसगढ़ की शोषित प्रताड़ित जनता के लिये सतत जारी है । 1 मई से वे आप के राज्य व्यापी रमन मुक्ति यात्रा में लगातार उपस्थित होकर जन जन के मध्य लोकप्रिय हो रही है । सोनी सोरी जी और आम आदमी पार्टी की बढ़ती  लोकप्रियता से परेशान राज्य सरकार ने एक नया पैंतरा चला है । कुछ ही दिनों पूर्व पुलिस प्रताड़ना से पीड़ित आदिवासी महिला हुर्रे निवासी बड़े गुडरा की मृत्यु से पुलिस प्रताड़ना का एक और रूप सोनी सोरी के माध्यम से सामने आया था । गर्भवती हुर्रे पर पुलिस कर्मियो ने उसके पेट पर बन्दूक की बट्ट से हमला किया, जब वह अपने निर्दोष पति के नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तारी का प्रतिरोध कर रही थी ।  समय पूर्व बच्चे को जन्म देने के बाद हुर्रे की 21 मई को मृत्यु हो  गई ।  उसी ही समय 22 मई को गीदम में नगर पंचायत अध्यक्ष अभिलाष तिवारी ने आदिवासी सब्जी विक्रेता को अपमानित करते हुए उसकी सब्जियों पर लात मारी । सोनी सोरी ने इस घटना का विरोध सबके सामने किया और पुलिस एवम् एसडीएम से शिकायत की । लेकिन आज तक इन मामलो में कोई कार्यवाही नही हुई । इसके उलट लगातार अपनी ज्यादतियों की वजह से सुर्ख़ियो में आकर जिल्लत झेल रही राज्य सरकार ने पहले तो जेएनयू के प्रोफेसर्स को नक्सली समर्थक बताकर फर्जी शिकायत दर्ज करवाकर अपने कुकृत्यों पर पर्दा डालने की कोशिश की । और  अब सोनी सोरी जी को जेल में डालने का नया षड्यंत्र सामने आया है ।
24 मई को गादीरास थाना क्षेत्र के लगभग 100 आदिवासियों को पुलिस ने थाने में हिरासत में लिया । आरोप यह लगाया कि वे नक्सल समर्थको की बैठक में शामिल होने वारंगल जा रहे थे जिसके आयोजन की अनुमति कथित रूप से नही दी गई थी । हैरान करने वाली बात यह है कि गादीरास थाने में बिना किसी अपराध में बंधक बनाये गए आदिवासियों के ऊपर यह दबाव डलवाया जा रहा है कि वे लिखित बयान दें कि "सोनी सोरी के कहने पर वे लोग कथित नक्सली बैठक में शामिल होने जा रहे थे" । यद्यपि आज अधिकांश आदिवासियों को तो रिहा कर दिया गया लेकिन 7 आदिवासी अभी भी गादीरास थाने में बन्द है । उनमे से 2 सरपंच और 2 जनपद सदस्य है । पुलिस इनके साथ मारपीट कर उपरोक्त बयान लिखवाने के लिये मजबूर कर रही है ताकि सोनी सोरी को नक्सली समर्थक बताकर जेल में डाला जा सके ।
आम आदमी पार्टी रमन सिंह सरकार के इस षड्यंत्र की कड़े शब्दों में निंदा करती है । गादीरास थाने में बन्द आदिवासियों को तत्काल रिहाई की मांग करती है ।  पार्टी की नेत्री के खिलाफ ऐसे षड्यंत्र के तहत किसी भी कार्यवाही को नही करने की चेतावनी देती है ।
रमन सरकार अपनी दमनकारी नीतियों से बाज आये अन्यथा इसके गम्भीर परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहे ।

डॉ संकेत ठाकुर
राज्य संयोजक
आम आदमी पार्टी
छत्तीसगढ़
दिल्ली में बस्तर पुलिस की कड़ी आलोचना
(आलोक पुतुल )
छत्तीसगढ़ में आत्मसमर्पित माओवादियों को ग्रामीण बता कर उनसे डीयू और जेएनयू प्रोफेसरों के खिलाफ बयान दिलवाना बस्तर पुलिस को भारी पड़ सकता है. एक तरफ जहां ग्रामीणों ने बस्तर पुलिस के इस झूठ के खिलाफ कैमरे के सामने बयान दिया है, वहीं अब देश की मुख्य राजनीति में भी बस्तर के आईजी पुलिस एसआरपी कल्लुरी और एसपी आरएन दास की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो रहे हैं.

जेएनयू-डीयू के संयुक्त प्रतिनिधिमंडल के बस्तर दौर के बाद मचे बवाल के बीच वामपंथी दलों के निशाने पर बस्तर कलेक्टर अमित कटारिया आ गए हैं। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी ने केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और मुख्यमंत्री रमनसिंह को पत्र लिखकर मांग की है कि बस्तर में राजनीतिक पार्टियों को बिना भय के गतिविधियां संचालित करने तथा पत्रकारों को ईमानदारी से जमीनी सच्चाई की रिपोर्टिंग करने की अनुमति दी जाएं। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने बस्तर प्रशासन द्वारा प्रतिनिधिमंडल पर लगाए आरोपों को निराधार बताया और सोशल मीडिया में कलेक्टर अमित कटारिया की भूमिका पर सवाल उठाते हुए उनके व्यवहार को गैर-जिम्मेदाराना भी बताया है।

वाम नेताओं ने कहा कि वह प्रशासन व पुलिस को निर्देशित करें कि हमारे प्रतिनिधिमंडल सहित स्वतन्त्र शोधकर्ताओं, पत्रकारों व विपक्षी पार्टियों के कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने व उनपर झूठे मुकदमे लादने से बाज आएं। माकपा के छत्तीसगढ़ राज्य सचिव संजय पराते ने माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी द्वारा जारी पत्रों को शनिवार को मीडिया में जारी किया। सीताराम येचुरी ने पत्र में कहा है कि एक पंजीकृत और राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त पार्टी होने के नाते हमें बस्तर और छत्तीसगढ़ सहित देश के किसी भी हिस्से में जाने, लोगों की समस्याओं को समझने, उनसे बातचीत करने तथा संगठित कर उनकी मांगों को उठाने का संवैधानिक और कानूनी अधिकार है। राजनीतिक विरोधियों के दमन से माओवादी समस्या हल करने में कोई मदद नहीं मिलेगी।

नक्सल समर्थक का आरोप सरासर गलत

पूर्व लोकसभा सदस्य व भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी ने राज्य व केन्द्र सरकार को लिखे पत्र में बस्तर प्रशासन व पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़ा किया है। उन्होंने कहा कि जो पुलिस के साथ नहीं है, वह नक्सल-समर्थक है, सरासर वाहियात है। बस्तर पुलिस और विशेषकर आइजी एसआरपी कल्लूरी पत्रकारों, शोधकर्ताओं, वकीलों व अन्य लोगों को स्वतंत्र रूप से बस्तर में घूमने तथा मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं को प्रकाश में लाने से रोकने का काम कर रहे हैं। पुलिस का काम कानून-व्यवस्था को बनाए रखना है, लेकिन ऐसा लगता है कि वे सरकार की नीतियों को ही निर्देशित कर रहे हैं। किसी भी जनतांत्रिक समाज के लिए यह घातक है।

Stop the Killings in Bastar! JNU Forum Against War on People

Posted by asong4nextday

Stop the Killings in Bastar!
Let us stand united with the people’s resistance against corporate loot!

The NDA government is preparing for the phase 3 of Operation Green Hunt in the central heartlands of this country with the announcement of “Chhattisgarh Mission 2016”. This brutal war waged by the ruling classes of this country is against the most oppressed adivasis and Dalits who have been fighting for their right to land, livelihood and dignity and against corporate land grab in this region. Brain child of the Chidambaram-Manmohan government, Operation Green Hunt was enforced in the year 2009 as a full forced military onslaught in the mineral rich forest regions of central India in the name of wiping out the Maoist movement. In actuality, the brutal face of this war was exposed with the atrocities perpetrated by government aided militia like the Salwa Judum, the rape and murder of many adivasi women by paramilitary forces and hounding and forced displacement of adivasis and dalits across this region. The huge deployment of CRPFs, CoBRA, Greyhounds and paramilitary forces trained specially for combat by the ruling classes in the name of Operation Green Hunt while simultaneously signing MoUs and contracts with big corporates and mining companies exposes the agenda of land grab and mining spearheaded by the Indian government. This plundering of land, rivers and forests is facilitated by burning hundreds of villages, extra-judicial torture, brutal killing and rape of innocent adivasis and dalits by brute paramilitary forces like cobra, grey hounds, C-60 etc. Following the steps of the UPA led government; the present Modi-Rajnath government has intensified its military assault on the most oppressed adivasis of this country. This war has further been extended to the Western Ghats with forces like Thunderbolt being deployed for combing and routine harassment of dalits, adivasis and landless poor.

As part of the all-out military offensive in Chhattisgarh and surrounding areas planned by the Indian government, journalist, lawyers, doctors, and democratic rights activists have been targeted and forced to evict and leave Chhattisgarh. Chhattisgarh Mission 2016 equipped with the most advanced warfare machinery is already underway with forest land being cleared for air bases and aerial attacks. With choppers doing aerial surveys and with the agenda of wiping out Maoist entirely with underway last year and prepares for an all-out offensive in Chhattisgarh and the regions surrounding it, more than 600 batallions have been deployed by the ruling classes which is one of the biggest state orchestrated terrors of recent time unleashed by Indian state on the most marginalised adivasis and dalits of central India fighting assertively to uphold their right of land, dignity and livelihood.

As the Indian government is gearing up for its military attack, it is using the most advance satellite technology of ISRO for mapping the region though neither UPA nor NDA government has ever given any sincere thought of employing any measure to mitigate the sufferance of the deprived population of this region. In the name of peaceful election, Election Commission deployed thousands of para-military forces, police personnel, chopper, video cameras, at the interior of Bastar and adjacent areas. In the name of alleged Maoist violence the state of Chhattisgarh with the help of Central government has not only terrorised the residents of the area but also taking all the measures to suppress any kind of resistance against this violence anywhere in subcontinent.

The corporate media goes hand in gloves with BJP led government in creating an atmosphere of terror and framing those who are trying to intervene or to raise voice against such brutal oppression. On the other hand journalists who went to Bastar region and raised questions against this state sponsored terrorism, were either attacked or arrested. In Bastar region itself almost 4 journalists were being picked up by police and journalists like Malini Subramanium are being threatened and forced to leave the place. Malini’s criticism against police oppression on adivasi villagers sparked off the anger of local militia ‘Samajik Ekta Manch’ who took a march against her and vandalised her house. It took 2 days for police to take an FIR and almost no action was taken against it. Bela Bhatia, a human rights activist and social researcher was labeled as Naxal and threatened by Mahila Ekta Manch. Her fault was she helped an adivasi woman to file a complaint of gang rape and grievous sexual assault against security personnel in last November. And no arrest was made. In fact that was the first time security personnel were accused under the Criminal Law Amendment Act (2013). Incidents of gang rapes, sexual assault on women by security personnel is rampant there and they go unnoticed by the BJP led Government of Chhattisgarh. In the name of two pronged effort, development and security measures, to combat Naxalite movement, several adivasi youth have been arrested in Bastar region and kept in jail without any trial. When JagLAG (Jagdalpur Legal Aid Group), started their work at courts of Bastar region they realized there is no bail system for the cases of Naxalite accused and such cases are numerous. However the more the legal aid group became active and effective the more they faced problems from BJP backed lawyers and goons and forced them to leave the region. We all know that after an acid attack on Soni Sori how her family is being heckled, tortured, and threatened and the sole motive behind this was to stop her from raising her voice against the atrocities committed by the security forces and to crush her determination to fight against it in every given situation.

After effectively almost driving out doctors, journalists, social and human right activists from this region now people like IG Kalluri have started a discourse on insider outsider. A team, Women against Sexual Violence and State Repression consisting of academics and activists went for fact finding in the districts of Kanker, Bastar, Sukma and Bijapur. The team, comprising of Prof Nandini Sundar of Delhi University, Prof. Archana Prasad, a member of the JNU faculty and an office bearer of AIDWA, Vineet Tiwari of the Joshi-Adhikar Institute and of the CPI, and Sanjay Parate of the CPI(M) faced opposition from local militia, mostly re-emerged from the disbanded militia Salwa Judum. This team found these districts in its most lawless state possible. Under the gundaraj of police, CRPF, IAF alongside these state sponsored militias the government is abusing its own laws. This team also proposed for a political dialogue between government and their immediate opposition there, including CPI Maoist, but not heeding to their constructive proposal this team was accused of siding with Maoist and a false criminal accusation was made on the team. The corporate media also plunged into this dirty game of framing professors and other activists as outsiders and sympathisers of Maoist who are instigating villagers to join hands with Maoists. Two women, Mangla of Nama and Manju Kawasi of Gadiras, Sukma district who helped them in their fact finding were harassed and detained by police.

This incident absolutely made it evident that the government is in no way interested in having any kind of dialogue with anyone as their sole motive is to facilitate a corporate loot of the age old natural resources of Bastar Region. In the name of annihilating Maoist from the region a war has been waged on the most underprivileged sections of population. Popular leaders of Salwa Judum are resurfacing, leading groups like the Bastar Vikas Sangharsh Samiti, the Mahila Ekta Manch, the Samajik Ekta Manch (SEM), the Nagrik Ekta Manch and the Sarva Dharm Samuday Manch etc. Another phase of terror and human onslaught has been started by this Hindutwavadi Neoliberal Fascist State in the heartland of Central India.

JNU Forum against War on People condemns this grim massacre of human life and corporate loot of natural resources in strongest possible way and we express our solidarity with the Adivasis and Dalits of Chhattisgarh who are fighting for their dignity, their lives, livelihood and land. The war on people of Bastar is not only confined to the particular territory and has spread all over the country. Whenever and wherever, in this subcontinent, cultural activists, political and social activists, intellectuals, students raise their voice against the atrocities perpetrated in the regions of most deprived, government tries to suppress that by either killing them or putting them into jail. But voice of resistance cannot be stopped by brutal state machineries, movement against such hooliganism and violence has only become stronger every time it was attacked. The spirit of fighting back against the cruelest mode of state intervention of the Adivasis and Dalits in Bastar would inspire us to come together to forge a greater unity and to resist the rise of Brahmanical neoliberalist facist tendency in this country. Let’s join the resistance and struggle of the most oppressed section of the population for their right to land, livelihood and dignity and against corporate land grab.

ALL INDIA PEOPLE’S FORUM
Press note
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 ** AIPF Fact-Finding Team Visit To      Bastar
 Several Cases of Fake Encounters, Rapes, Arbitrary Arrests, Fake Surrenders Exposed
 **  Communal Violence Against        Christian Minorities
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Raipur, 12 June 2016
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An 8-member fact-finding team of All India People’s Forum visited four districts of Bastar, Chhattisgarh between 8-11 June 2016. The fact-finding team found several incidents of communal violence against Christians; as well as fake encounters; rapes; fake cases and arbitrary arrests; and fake surrenders.
The AIPF team comprised former Madhya Pradesh MLA Dr Sunilam of Samajwadi Samagam, former Jharkhand MLA and CPIML Central Committee member Vinod Singh, Kavita Krishnan, Secretary of All India Progressive Women’s Association, Brijendra Tiwari of AICCTU, Amlan Bhatacharya, State Secretary of PUCL West Bengal, Advocate Aradhana Bhargava of Chhindwara, Advocate Ajoy Dutta of Kolkata and Amlendu Choudhury. Bela Bhatia and Soni Sori also accompanied the team.      

   **  Communal Violence Against        Christian Minorities

At several villages in Bastar district – including Karmari, Bade Thegli, Sirisguda and Belar – resolutions adopted under Section 129 (g) of Chhattisgarh Gram Panchayat Act have been wrongly invoked in violation of the spirit of the law to restrict non-Hindus from residing or building places of worship, even though the High Court has quashed such gram sabha resolutions in Karmari and Sirisguda.
In Bhadhisgaon (Tokapal Panchayat) in Bastar district, Pastor Pilaram Kawde was given a written notice by the Gram Panchayat denying permission to him to construct a place of worship on his own land.
 The written notice cited Sections 55 (1) and (2) Chhattisgarh Gram Panchayat Act 1993 and said that Pastor Pileman cannot construct a place of worship because “People of big-big castes and religions live in this village, and every Dussehra even the Roopshila Devi Ma joins the celebrations.”

Christians are being prevented from using burial grounds in several villages. In Bhadisgaon, an elderly Christian lady Saradi Bai died on 25.5.2016, but Hindu villagers provoked by the Bajrang Dal stopped Christians from burying her. Eventually, after negotiations conducted by the police, she was buried in a casket but without the cross – but the Hindu villagers warned that no future Christian burial would be allowed. Accordingly, the 200 Christians of the village gave applications to the SDM, Tehsildar, police and Sarpanch asking that burial grounds be allotted separately for Christians, since they were being prevented from using the common burial grounds.
Saradi Bai’s husband Sukhdev Netam passed away on 6.6.2016, and Hindu villagers prevented Christians from carrying out his last rites and burying him, threatening to kill them if they tried to bury him. Eventually after police arrived, he was buried but again, the villagers and Sarpanch warned that in future, they will call Bajrang Dal if there is any attempt by Christians in the village to use the burial grounds.

At Ara village, Bario Chowki, Jeypore thana, District Ambikapur, on last Sunday, 5 June 2016, a Bajrang Dal mob of 25 people led by Chhotu Jaiswal, Sonu Gupta, Bipin Gupta, Chhotu Gupta and others attacked the church during Sunday prayers; vandalized the church; and beat up the pastor, his wife and three others. They made a video of the thrashing and made it ‘viral’ – we have a copy of this video.
 They dragged off the Pastor, his wife and three others to the Bario Chowki where they were kept till night. No FIR was registered against the assailtants – instead a case under Section 295 A has been registered against the Pastor who is yet to get bail.

In village Sirisguda, rations were denied to Christian believers, and Food Department authorities were beaten up along with Christians; the ambulance was not allowed to enter the village; injured Christians were not allowed to get proper treatment in the district hospital. After great efforts a case was registered but the statements of the injured are yet to be taken in Court. VHP, Bajrang Dal people prevent Christians from filling water in the village. At a meeting called by the DM, the VHP and Bajrang Dal said that Christians must do ghar wapsi, or else we will evict them from the village invoking Section 129 (g) of the Panchayat Act.

Repression and Intimidation of Villagers Resisting Violations of Forest Rights for Raoghat Mines

A villager of village Kohche, thana Antahgarh in Kanker district said that 25 hectares of land have been acquired for Raoghat Mines without informing the villagers, gram panchayat, or gram sabha. (Officially the Raoghat Mines, as well as adjoining dam and railway lines are for Bhilai Steel Plant but a consortium of private companies will be involved with the mining project).

Trees have been cut, adivasis’ forest land that they have had for the last 50 years is being grabbed; several places of worship of adivasis are being destroyed and even the burial grounds have been taken over by the company. CRPF camps have come up densely at every kilometer in the area.  

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** Fake Encounters

Nagalguda, thana Gadiras, Kuakonda Tehsil, District Dantewada: Four women – Rame, Pandi, Sunno and Mase - were killed here in a fake encounter at 7 am on 21.11.2015, and Badru, one former Maoist who surrendered and became a ‘Pradhan Arakshak’ and had accompanied the force, raped Mase before killing her. 22 DRG jawans were decorated and promoted for this ‘encounter,’ in spite of the fact that rewarding jawans for encounters is against NHRC guidelines and Supreme Court guidelines for encounters.
Arlampalli, Dornapal Tehsil, district Sukma: Here, villagers told the team that on 3 November 2015, three village boys – Dudhi Bhima ( age 23), Sodhi Muya (age 21) and Vetti Lacchu (age 19) were killed by the police. The three boys left the village in the morning o 3 November on two cycles to get a drink of the local alcoholic drink (made out of date palm fruits). After getting their drink, they were going to the Polampalli Bazaar, where Bhima’s mother was waiting for them. Near the ‘nala’ close to the village, one youth Vetti Lacchu got down from the cycle while the other two went ahead. Security forces were in the area for a combing operation, and caught the two boys on cycles and began beating them up. The third youth, Vetti Lacchu, seeing this, began to run away – and was shot dead by the police. The other two youth were asked to carry the body of their friend to the Polampalli thana but on the way, they too were shot dead.
. Two elderly people witnessed the two boys carrying their dead friend. No FIR has been registered as yet.
Palamagdu, Dornapal Tehsil, district Sukma: Police claimed that two women Maoists were killed after an hour-long gun battle on 31 January 2016. In a local newspaper, the police is quoted as saying that the two women Naxalites were wearing saris and could not run and therefore fell into a ditch and were killed. The team found that in fact, the police had killed two small girls in cold blood. The mother of Siriyam Pojje (age 14) said that her daughter along with Manjam Shanti (age 13) had gone to feed the hens and was going to have a bath in the river and return home. On the way the police shot dead both the girls. Manjam Shanti’s father also said that both girls lived in the village and had no connection with Maoists.

Kadenar village, Bijapur district: The police claimed that on 21.5.2016, an encounter took place with 30-35 armed Maoists, in which a husband and wife – Manoj Hapka and his wife Pandi Hapka/Pandi Tanti were killed. On reaching Kadenar village Pandi Hapka’s mother and brother told the team that at 8 pm at night on 21 May, police came to the house where the family was eating dinner. They took Manoj and Pandi away, along with their clothes, other belongings and Rs 13000 that they had earned by harvesting chillies in Andhra Pradesh. We were told that Manoj and Pandi had been with Maoists for a year, but five years ago, the couple left the Maoists and came back to the village where they did farming. Pandi has had TB for the past five years and has been very ill.

  ** Fake Cases and Arbitrary Arrests                        

In Padiya village, Gadiras Thana, Sukma district, on 21 May 2016, at 9 am, a force of 200-300 police came and picked up villagers working on a water body, saying they were involved in the breaking of a Essar pipeline on 19 May 2016. Police took away 11 adivasis, left two of them later, and 8 remain in jail. The night before our team reached the village, the police forced sarpanch Madkam Hadma to wear police uniform and move with the force, arresting four people. Thus the police conspired to make the sarpanch look like a police agent, making him vulnerable to attacks by Maoists.
In the same village, a small 12-year-old boy Joga had been picked up by police on 12 May. The fact finding team met Joga and learned that Joga’s father and brothers had been arrested and detained illegally in the thana for seven days, where they were made to clean utensils and do other cleaning work in the thana. They were later released. The night before our team arrived in the village, Joga’s father had been taken into police custody with three others. The SHO of Gadiras thana said that repeated arrests are done because Joga’s sister is a Maoist ‘Mahila Commander’, whereas more than 150 villagers told the team that this is not true and the girl lives in the village. The team is apprehensive for the safety of Joga’s sister – she may be killed in a fake encounter claiming she is a Maoist. The sarpanch also is in danger of being killed.              

 ***  Rape of minor girl by CRPF Jawan

On 8 June 2016, a girl aged 14 years from Podum village, thana Dantewada was shutting her kirana shop when a CRPF jawan came and raped her throughout the night in the shop. She told her brother in law, who complained in the thana and was sent for medical examination last night (11 June 2016) – a process facilitated by the team and by Soni Sori. The CRPF jawan had given a name – RR Netam – and number in writing to the girl but this appears to be false since the TI says that no jawan of this name is there in the Jarum CRPF camp near Podum village.        

Fake Surrenders  

There have been 70 surrenders in the Chintalnar area. The team visited Chintalnar village where we were told of several staged surrenders. One small trader told us that he was called to the Polampalli thana by an SPO saying there is a warrant against him. He went there where he and 25 others were told that either they must agree to ‘surrender’ or they will be booked in a case of killing Nagesh, an SPO who was killed 2 years ago. He is 55 years old and he said that the other 25 cases were also not genuine surrenders. They all were given Rs 10000 each on the spot. Several others also testified to fake surrenders but are afraid of reprisals from the Maoists. We were told that the sarpanch, Kosa, is also under threat from Maoists for having facilitated the fake surrenders.

Conditions in the Village

Two AIPF teams covered 1650 kilometres in their journey, where they encountered more than 60 police and CRPF camps. But in the 25 villages that the teams visited, the villagers were insecure and suspicious of each other. In these 4 districts, political groups and other organizations are rather inactive, suggesting that the scope for democracy has shrunk there. Most of the villages visited by the teams were without electricity, without roads, and lacking in education and health facilities. In Ketulnar, two baby girls died after drinking milk provided by the anganwadi. We found that the village had 8 mitanin who did not even have medicines to treat diarrhea and vomiting and the hospital is 10 kilometres away because of which the little girls could not be treated. Now after the death of the girls, medicines have been provided but a case of culpable homicide is yet to be registered against the milk provider.

Signed
Dr Sunilam
 (9425109770)
Kavita Krishnan
(09560756628)
Brijendra Tiwari
(9926146022)
               

**   जो अभी तक मानवाधिकार संगठन कहते रहे है ठीक वही  सुप्रीम कोर्ट ने कहा .
छत्तीसगढ़ में बिना आफसा लागू कि हालात उससे भी ज्यादा ख़राब है .
**  इंडियन आर्मी  द्वारा 1528 एक्सट्रा जुडीशियल किलिंग ( मुठभेड़ ) की जांच के आदेश दिये सुप्रीम कोर्ट ने.
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AFSPA का गलत इस्तेमाल नहीं करे आर्मी- सुप्रीम कोर्ट
(8.7.2016.)
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन आर्मी और पैरामिलिट्री फोर्स को अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल न करने की नसीहत दी है।
 कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि इंडियन आर्मी या पैरामिलिटरी फोर्स की तरफ से अत्यधिक प्रतिहिंसक ताकत का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि उन इलाकों में भी ऐसा नहीं किया जाता है जहां विवादित आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) ऐक्ट (AFSPA) लागू है।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर 2000-2012 के दौरान कथित रूप से इंडियन आर्मी द्वारा 1,528 एक्स्ट्रा-जुडिशल किलिंग्स के मामलों की सीबीआई या एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम से जांच कराने की मांग की गई थी। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया है।

सुप्रीम कोर्ट में जो बेंच इस याचिका की सुनवाई कर रही थी उसके हेड जस्टिस एमबी लोकुर ने कहा, 'चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को इन सभी इलाकों में 10 नियमों का पालन करना है। इनमें एक इलाका वह भी है जहां AFSPA लागू है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के उस तर्क को खारिज कर दिया कि मिलिटरी मैन के खिलाफ किसी भी केस की सुनवाई क्रिमिनल कोर्ट के क्षेत्राधिकार में नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट पूर्वोत्तर के राज्यों में एक्स्ट्रा जुडिशल किलिंग्स (फर्जी आरोप लगातर हत्या) के इन मामलों की स्वतंत्र जांच कराने पर राजी हो गया है। हालांकि बेंच ने कहा कि कौन सी एजेंसी जांच करेगी इसका फैसला इस मामले के सभी केसों के क्रमवार डेटा वकील मेनका गुरुस्वामी से मिलने के बाद होगा। इस केस में मेनका गुरुस्वामी सुप्रीम को मदद कर रही हैं।

कोर्ट ने कहा कि आर्मी के पास इसकी आजादी थी कि वह इस मामले में जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कोर्ट ऑफ इन्क्वाइरी शुरू करे, भले ये मामले एक दशक से ज्यादा पुराने क्यों नहीं हैं।
 कोर्ट मार्शल कार्यवाही को सीमित अवधि तक ही रोककर रखा जा सकता है। अब इन मामलों को चार हफ्ते बाद संज्ञान में लाया जाएगा। तब तक वकील गुरुस्वामी 62 मामलों के जुड़े डेटा को जुटाएंगी। इन मामलो की जांच पहले ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और कोर्ट द्वारा नियुक्त एक कमिटी की तरफ से किया जा चुका है। इस कमिटी की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस संतोष हेगड़े ने की थी। इस कमिटी ने जांच के बाद पाया कि 62 में से 15 मामले फर्जी हैं। हालांकि ह्यूमन राइट्स वॉचडॉग ने 31 मामलों को फर्जी बताया है।

याचिकाकर्ताओं ने कहा कि सुरक्षा बल इन कार्रवाइयों से बच सकते थे क्योंकि इन्होंने यह कदम AFSPA के तहत उठाया। AFSPA के तहत आर्म्ड फोर्सेज को खास कवच मिला हुआ है। इस ऐक्ट के तहत ये किसी को भी अरेस्ट कर सकते हैं सर्च अभियान चला सकते हैं। सुरक्षाबलों से जुड़े सदस्यों पर इन मामलों में कोई कानूनी कार्रवाई भी नहीं की जा सकती है।

लोकल पुलिस को दोषी आर्मी स्टाफ के खिलाफ कोई भी कार्रवाई से पहले केंद्र सरकार से अनुमति लेनी होती है। केंद्र इन मौतों का बचाव करता है। केंद्र का तर्क है कि यह संप्रभुता के पक्ष में यूनियन ऑफ इंडिया का कदम है। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि इन मौतों को लिए आर्मी पर आरोप नहीं लगाया जा सकता।

रोहतगी ने कहा, 'आर्मी केवल संप्रभु फंक्शन की जिम्मेदारी का निर्वाह कर रही है। यह कदम बाहरी आक्रामकता और आतंकी हमले से बचाव के लिए है। यदि इसमें कोई मारा जाता है तो हम आर्मी को ब्लेम नहीं कर सकते। लोगों का मारा जाना संप्रभुता को सुरक्षित रखने के कार्यक्रम का हिस्सा है। हम इन वाकयों के साथ नियमित रूप से उत्पन्न होने वाली लॉ ऐंड ऑर्डर प्रॉब्लम की तरह बर्ताव नहीं कर सकते।' गौरतलब है कि आफ्सपा का हटाए जाने की मांग लंबे समय से उठती रही है।
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मणिपुर में फर्जी मुठभेड़ों के मामले में सेना और केंद्र सरकार को बड़ा झटका लगा है. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दो दशकों में मणिपुर में हुए सभी एनकाउंटरों की जांच केआदेश दे दिए हैं. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में सेना की कार्रवाई के विरोध में दायर की गई एक याचिका की सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया है. इंफाल की एक सामाजिक संस्था और एनकाउंटरों में मारे गए लोगों के परिवारों द्वारा दायर की गई इस याचिका में करीब 1500 एनकाउंटरों की जांच सीबीआई या एसआईटी से कराने की मांग की गई थी.

कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि पिछले दो दशकों में सेना और पुलिस द्वारा किए गए 1528 एनकाउंटरों की स्वतंत्र जांचहोना जरूरी है. अदालत ने कहा कि कौन सी एजेंसी यह जांच करेगी, यह बाद में तय किया जाएगा. कोर्ट ने केंद्र से इन सभी मामलों की विस्तृत जानकारी मांगी है. साथ ही उसने यह आदेश भी दिया है कि मणिपुर में अफ्स्पा लगे होने और वहां अशांति होने के बावजूद अपने अभियानों के दौरान सेना अत्यधिक बल का उपयोग नहीं कर सकती है.

इससे पहले 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व न्यायाधीश संतोष हेगड़े की अध्यक्षता वाली एक समिति को करीब 60 एनकाउंटरों की जांच करने को कहा था. जांच में सभी एनकाउंटर फर्जी पाए गए थे जिसके बाद हेगड़े ने कोर्ट से 1500 एनकाउंटरों की जांच कराए जाने की सिफारिश की थी. उधर, केंद्र सरकार हेगड़े जांच रिपोर्ट को गलत बताती है. उसका कहना है कि ये एनकाउंटर विदेशी ताकतों को रोकने और देश की संप्रभुता की रक्षा करने के लिए की गईं जरूरी मुठभेड़ें थीं.
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सुप्रीम कोर्ट ने भी माना भारतीय सेना ने निर्दोष 1528 लोगो की हत्या की है पूर्वोतर में


| 08 Jul 2016

जन उदय : एक याचिका में सुनवाई करते हुए आज सुप्रीम कोर्ट ने मान लिया है की भारतीय सेना द्वारा पूर्वोतर राज्यों में विशेषकर इम्फाल और मणिपुर में १५२८ निर्दोष लोगो की हत्या की है और इसकी जांच के लिए एक विशेष कमेटी बनाई जाएगी

सुप्रीम कोर्ट ने माना है की भारतीय सेना ने सेना के विशेष कानून का गलत इस्तेमाल किया है वहा होने वाले हत्या बलात्कार में सेना के जवान शामिल है

यह बात ध्यान रहनी चाहिए की शर्मिला इरोम नाम की महिला इस कानून के खिलाफ पिछले १६ साल से भूख हडताल पर है , इस तरह के काफी आन्दोलन चले है सेना के इस कानून के खिलाफ , हर राजनैतिक पार्टी यहाँ के लोगो से वादा करती है की अगर उनको जिताया गया तो इस कानून को हटा देंगे लेकिन जितने के बाद इससे सब भूल जाते है

सेना के जवान सिर्फ पूर्वोतर राज्यों में ही नहीं मानवाधिकारों के हनन की बाते कश्मीर , छातिश्गढ़ , महराष्ट्र , ओड़िसा , झारखंड , बिहार ,वेस्ट बंगाल ,तेलंगाना , मध्य प्रदेश आदि सभी जगह सेना अपने अधिकारों का इसेमाल करती है मजबूर , बेसहारा गरीबो को कारती है , कत्ल करती है

Bad news Bastar: Why is objectivity such a risky word in Chhattisgarh?

Paramita Ghosh, Hindustan times|Updated: Jul 02, 2016 22:57 IST

Veteran journalist Kamal Shukla has been at the forefront of journalist agitations in Chhattisgarh. He’s the organiser of the ongoing movement to get a law passed to protect journalists working in the state.(Vipin Kumar / HT Photo)

On a winter night in 2014, Mukesh took out his camera to film two dead police jawans, the number that usually qualifies as news in Bastar, on the highway.

The jawans, on a motorcycle, had apparently bumped into an anti-landmine vehicle that exploded. Soon, cops were all over the place. They asked the young television journalist what business he had there. He recalls the conversation:“I said I had come to cover the incident,” says Mukesh. “‘When it is necessary, we will call you’, they said. ‘What you find unimportant or unnecessary, I should not cover?’ I asked.”

Since 2013, the year that began the third term of the Raman Singh-led BJP government in Chhattisgarh, Bastar journalists say they have been given an answer to that question in various ways. By being detained in police stations, with loss of jobs and demotion, and even having FIRs lodged against them but with no action taken, as the first step in intimidation.

Watch: Journalist testimonials about daily pressures at work

In March 2016, Prabhat Singh of Patrika was arrested and sent to Jagdalpur Central Jail under the IT Act for allegedly posting an “obscene message” about a senior police officer on WhatsApp groups. He was released last week. The real reason for his harassment, say fellow journalists, is that he was relentless in exposing the loopholes in police work. Stringer Santosh Yadav and newspaper agent Somaru Nag, are also in the same prison since 2015. When we meet the three in jail a few days before Singh’s release, they said they had been assaulted in police custody and “kept in a cell with hardcore criminals”.



Rajesh Sahu, a Kondagaon-based stringer, was arrested and held in Jagdalpur Central Jail. “I was trapped for exposing a panchayat scam”. (Vipin Kumar / HT Photo)

Rajesh Sahu, a Kondagaon-based stringer, who was also held in the same jail “for exposing a panchayat scam”, says he had met “400 farji Naxali and three actual Maoists inside the jail. All, like me, were people who would speak up…but sometimes even that is not necessary; random things are now happening in Chhattisgarh.”

Nag says, “Someone had pointed to me as being part of a group that was burning a crusher plant employed in road construction, and that was enough for the police to pick me up.” He has been charged under the Indian Penal Code (IPC), the Arms Act, the Unlawful Activities Prevention Act, and the Chhattisgarh Public Security Act (CPSA). Yadav, on the police radar since 2013 for being among the first to reach Darbhagahatti to report the Maoist attack that killed Congress leader and Salwa Judum initiator Mahendra Karma, has been charged under the IPC and the Arms Act. Anwar Sheikh, another journalist, and his wife, Anjali Chouhan, are in Bilaspur Jail since 2012, apparently for his wife’s activism.



Mukesh is a TV journalist based in south Bastar. (Vipin Kumar / Ht Photo)

Three kinds of journalism, they say, are now under attack in Bastar. Journalism that raises the question of human rights of tribals, and the threat to the tribal lands and jungles from state-backed corporates. Second, any critical reporting of security forces, which act as “clearing agents” for state-driven industrialisation. And, of course, the third: to be neutral in the Maoist-state government conflict.

Dinesh Kashyap, BJP MP, Bastar, says “those journalists who write in favour of Maoists are the only ones facing problems. our government is not oppressing them.”

Journalists are supposed to write from two points of view. In Bastar, you are supposed to write from one, says Mukesh. “If you can write from the point of view of the government and publish police handouts of arrests, encounters and surrenders as news, it’s great. If you can’t, don’t.”

“Don’t what?”

“Don’t write. What else?” he says. Hadn’t he just stated the obvious? He leaves us to steer his bike through the broken lanes that fan out from his doorstep to get on to the neat asphalt highway to look for the day’s news.



Has Chhattisgarh become a police state? “In Bastar you don’t see politicians. Here, the police are doing netagiri,” says Devsharan Tiwari, a local journalist. “Either join politics and be a politician or remain a policeman and let us be journalists.” (Vipin Kumar / HT Photo)

New economy, new journalism

Since 2013-14, national highways have drilled through Bastar and released petty entrepreneurial energies in the towns they have passed through. Rows of photostat shops, and those vending truck tyres and mobile phones, flank them now in a scene that used to be dominated by the solitary gas station. In these towns the civil contractor is most likely to be the man with a two-storey shop up a flight of stairs. If he owns a newspaper, it is simply his cash cow. The CRPF camp every few kilometres on the highway is also for his security and the security of his road-laying equipment.

Kamal Shukla, a senior Chhattisgarh journalist, says the stories a journalist at first does does at these contractor-run low-end operations, is “used by the owner to show that he has the arsenal to expose the government. The government then gives the paper ads to stop its critical stories. But when the owner hears that another newspaper, run by another contractor like himself, is also getting government ads, he asks his reporters to be critical of the government again”. Yadav, Mukesh and Pushpa Rokde, who do their journalism sustained by this precarious economy, thus find themselves in dangerous situations, if they bark up the wrong tree – at the wrong time.

But at what point should a journalist curb his or her journalistic instincts and not ask the obvious questions?



Pushpa Rokde of Dainik Prakhar Samachar, south Bastar. “On every road, there’s a paramilitary camp. There is insurgency and counter-insurgecy, there are blasts and firings. We cannot ignore this. Who has got injured? Who shot who? These are not big questions to ask,” she says. (Vipin Kumar / HT Photo)

“This April, I heard there had been a Maoist attack on a CRPF camp. I thought if it’s a full-fledged attack how come only one person is dead and no explosives recovered?” recounts Rokde, who writes and gets ads for her paper, Dainik Prakhar Samachar, in south Bastar. “So I went to the village near the camp. Villagers said the sound of gunfire happened from inside the camp. Last year, too, in the Reddy gram panchayat, I got news that a jawan of the CRPF 85 battalion had drowned in the compound tank. From villagers I got to know he had actually died in the village pond. It’s a mystery what’s happening in these camps. Was it a murder?”

Rokde says she has had cops at the highest level – she won’t say who – tell her this year that she should “cooperate” with them. Nitin Rokde, her husband, a former CRPF man who is now a journalist with the same paper his wife works in, says he left the profession because he had “seen an officer kill a junior”, a startling revelation, after which he clams up.

Who has got injured? Who shot whom? These are surely not big questions to ask. These are the only questions to ask, but it is leading us to trouble, says Rokde. In Bastar, the story is in the missing details. Fear dictates how a journalist will tell that story. Or not tell it at all.



“In 2010, some jawans in Bijapur were kidnapped by Maoists. We searched for them for 15 days in the jungle,” says Dantewada journalist Abdul Siddiqui (Vipin Kumar / HT Photo)

Kamlesh Painkra, a journalist, who had written about the Salwa Judum, recently left the profession to join an NGO. “At present, I’m not a journalist,” he says, “so I cannot speak to you.” It sounded like an apology but one couldn’t be sure. The two-minute meeting in front of his new office had begun to draw glances. By the time our car revved up, he had disappeared from sight.

‘Even Raman Singh can’t sack me’

Salwa Judum, the counter-insurgency movement started in Chhattisgarh in 2005 to fight Maoism, had been a test for journalists in Bastar to figure out reporting techniques that would keep them impartial. And safe. In a press conference at Raipur, the media had been warned through political fora that “the public was angry, journalists should be careful”. Shukla, a journalist of over 30 years who has been slapped by an SPO on reporting duty, had his home raided for ‘Naxal literature’, and had his family break up due to frequent job losses because of police pressures, was, therefore, well prepared for the following conversation that took place in a room with a top cop in 2014.



Arvind Netam, ex Union Minister and one of the most important tribal leaders of Bastar, says the Mission 2016 is “about going after Bastar’s natural resources. Why send the military into the villages? They are not really serious about finishing Maoism. They want to drive adivasis away from their homes.” (Vipin Kumar / HT Photo)

IG Kalluri called me to his office. ‘Even Raman Singh can’t sack me, I’m here for three years and I’ve to start Raoghat and other incomplete projects’, he told me,” says Shukla. Over phone he has also been threatened by the IG to “either leave Bastar or leave journalism”.

Read: Iron in the soul, the issue of Raoghat

“No police officer is above the law,” says a senior police officer on condition of anonymity. “He (Kalluri) is IG today, he may be removed tomorrow…He was transferred as SSP from Bastar by the Raman Singh government in 2011.”

Kalluri is on record saying he has time only for “patriotic journalists”. Subba Rao, head of the vigilante group Samajik Ekta Manch (some say it had been disbanded but continues under other names), which played a major role in hounding out Scroll journalist Malini Subramanium and lawyers Shalini Gera and Isha Khandelwal from Jagdalpur, is a pro-government journalist. “Naxal crime” has been one of Rao’s beats. “There is no restriction in Bastar for journalists,” he says over the phone. On being told that we had experienced that first-hand, he says, “few days back I had gone to Orissa and was stopped there. These things happen. ”



Security personnel take photos of Identity cards at a security check point in Chhattisgarh. The HT team was stopped and tailed three times enroute Dantewada. (Vipin Kumar / HT Photo)

A police state?

In 2016, Shukla was also threatened by Bastar collector Amit Kataria, who said he had “not even the status of a fly” to be taking the positions he had been taking. According to him, Kalluri and Kataria, are the “officers best suited for the plan the government has for Bastar”. Shukla has now turned into more of a symbol of Bastar’s resistance, and the agony uncle of beleaguered journalists. He, has, however, kept up with his journalism by writing for social media. As a security measure, he often changes his name when checking into hotels in Bastar. Every night, hotel staff all across the region, send reports on guests to the police. The staff of Hotel Akanksha, where we stayed while in Jagdalpur, confirmed this; our car was stopped and tailed three times by uniformed police on national highways (even as other cars were allowed to pass), and questioned by a posse of uniformed and plain-clothes cops on the way to Dantewada.

Is Chhattisgarh a police state? Not everyone is allowed to say that of course.



Bappi Ray, head, South Bastar Journalists’ Association. “I once asked an adivasi why he doesn’t want development? He said: ‘What will Essar do for me? If I give up my land and get a lot of compensation, my son w ill take it away. But the tamarind tree on my land will feed me as long as I’m alive.” (Vipin Kumar / HT Photo)

Bappi Ray, a Dantweda journalist, explains the hierarchy: “The district journalist is safer than the journalist in the village. So Bappi Ray is safer reporting in Dantewada than Santosh Yadav in Darbha village. And you in Delhi are safer than us.”

Mission 2016

Not surprisingly, most journalists in Chhattisgarh have taken a stand against Maoist and state violence, and also criticised both when they have interrupted their work. Shukla, Bappi Roy and Abdul Siddiqui have gone on a padyatra to protest Maoist attack on journalists. In 2010, when some jawans in Bijapur were kidnapped, Roy and Siddiqui were part of the team that searched for them in the jungles and persuaded Maoists to release them. “But in the name of controlling Maoists, you begin controlling journalists, is that what Mission 2016 is really about?”, asks Devsharan Tiwari, bureau chief of the reputed daily Deshbandhu.



Anil Mishra, a former Bastar journalist, is now news editor, Nai Dunia. “I had filed an article that contradicted the police version of an encounter. An SP called me saying this would create problems for him. Is it a journalist’s job to make the police look good?” he asks. (Vipin Kumar / HT Photo)

The other question he poses is: “Maovaad ke liye brashtachaar ya brashtachhar ko bachane ke liye Maovaad (Is Maoism a response to corruption or is it being preserved to continue corruption?) There is graft all around. State officials cook their books and show that a road, or a bridge, has been built in Abujhmadh. And because this is Maoist area, no one questions why it has been built with so much money or goes to check if it has actually been built.” In 2014, SPs of Janjgir and Korba is said to have asked for funds to control Maoism. These districts, local journalists say have not known Maoist activity. “But give it time, it can be discovered,” says Shukla.

Anil Mishra, news editor at Chhattisgarh’s well-known Hindi daily, Nai Dunia, has had a career battling angry cops and ambiguous bureaucrats. (Mishra and Tiwari were recently awarded by PUCL for their journalism). Mishra has done spot stories, page one stories, features on Bastar. As we wrap up our assignment, he gets busy with packaging the night’s news. And he says the most generous thing one journalist can say to another: “The written word belongs to no one. Bastar needs to be written about over and over again.”

जस्टिस ग्वाल
* सबसे बडा अपराध है  इस समय निरपराध और ईमानदार होना वो भी एक ज़ज का .
#  ज़ज यदि ह्यूमन राइट डिफेंड करेंगे तो कैसे काम करेगा शासन.
* पुलिस के आड़े आने का खामियाजा उठाना ही था .
**
घोर नक्सली क्षेत्र सुकमा की एक अदालत ,
और ज़ज सीजेएम की कुर्सी पे  पदस्थ एक नौजवान0 दलित
सायकल से कोर्ट जाते ,बेंक बैलेंस न के बराबर
ईमानदारी से भरपूर आत्मविश्वास  परिपूर्ण ...
**
बस्तर की आम अदालत  में और रोज की तरह
पुलिस पेश करती
सीधे साधे निर्दोष  आदिवासी नौजवान और महिलाओं  को ,
नक्सल होने ,सहयोगी या समर्थन करने के गंम्भीर आरोप में.
कल तक  इन सबको बिना कुछ खास सुनवाई  के
जेल के अन्दर .
तीन चार साल,
हां सात आठ साल भी सडते जेल में.
इनमे़ से नब्बे फीसदी लोग निर्दोष  रिहा हो ही जाते है.
क्यों कि उन्होंने कुछ अपराध किया ही नहीं  होता है.
**
ज़ज ने सवाल उठाने शुरू किए पुलिस पे
अभियुक्त का नाम : नामालुम
पिता का नाम  : नामालुम
निवासी :नामालुम
अपराध  : नक्सली हमला हत्या वगैरा
क्यों उठा लाते हो इन सीधे साधे आदिवासी लोगो को ?
इनसे क्या दुशमनी है पुलिस की ?
ये क्यों  मारेंगे किसी को ?
एक दो नहीं ,पूरे हज़ार ग्रामीण को लेके पहुंच गई कोर्ट
कहा की सब माओवादी है.
ज़ज ने कहा ! क्या तमाशा है ?
सब को मिल गई ज़मानत .
चालान नही फोटो नहीँ  गवाही  और सबूत नहीं.....
हथियार के नाम पे कुल्हाड़ी ,भरमा बन्दूक और डंडे
ज़ज ने कह भी ,
ये तो भूमकाल के समय से  रहते है इनके पास
यह हथियार नहीं  इनकी संसकृति  है.
 पुलिस को चेतावनी : तुम और तुम्हारे अधिकारियों को जेल भी जाना पड सकता है ,समझे !
और ऊपर से निर्दोषो को  मिलने लगी थी ज़मानत .
***
पुलिस और प्रशासन  में हडकम्प
कलेक्टर ने फोन भी किया ,
ज़ज साहब ,निर्णय करने से पहले थोड़ा हमसे पूछ भी लिया कीजिए .
ज़ज साहब अचंभित !
उन्होंने कलेक्टर के फोन को वायरल कर दिया.
अख़बारो में छपा
बडी थू थू हुई .
***
आनन फानन में पुलिस प्रशासन और शासन के लोगो ने बैठक की .
निर्णय हुआ ट्रांसफर से काम नहीं चलेगा ,क्यों कि पहले भी जहाँ  जहाँ भी रहे ,इन्होंने पुलिस और करप्ट लोगों  की नाक में दम कर रखा था॥
अब बताओ  यदि ज़ज लोग ,
ह्यूमन राईट डिफेंडर की तरह काम  करने लगे तो
कैसे शासन चलेगा जी .
किसी पुलिस अधिकारी ने फरमाया  .
खैर तय किया गया ,कि
इन्हें तुरंत बरखास्त किया जायें.
पर कैसे ?
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एस पी ने रिपोर्ट तैयार की
कि  ज़ज साहब पुलिस को प्रताड़ित करते है ,
पुलिस का मोराल डाउन कर रहे  हे ,ज्यादा पूछ ताछ करते है ,तुरंत ज़मानत दे देते है
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रिपोर्ट जिला होते हुये उच्च न्यायालय तक पहुचीं
पहले से तैयार अधिकारियों ने बिना किसी बडी जांच के बिना ज़ज साहब से स्पष्टीकरण  के उन्हें बरखास्तगी  आदेश थमा दिया गया .
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और इस तरह बस्तर में  मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ,वकीलों ,पत्रकारों  की प्रताड़ना  मे एक ज़ज भी शामिल हो गये .
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इति श्री कथा एक ईमानदार ज़ज की











बलात्कार, फर्जी मुठभेड़ और हत्या: छत्तीसगढ़ में नए सिरे से पुरानी कहानी

राजकुमार सोनी
@CatchHindi | 18 June 2016,

इस खबर को पढ़ रहे पाठक किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इसकी तस्वीर को कई-कई बार ध्यान से देखें.

जो दिख रहा है उसमें यह साफ है कि एक युवती के शरीर पर उस रंग की वेशभूषा हैं जिसका इस्तेमाल सामान्य तौर पर माओवादी करते हैं. पुलिस का दावा है कि मृत युवती माओवादी है और एक खतरनाक मुठभेड़ के बाद उसे मार गिराया गया है. पुलिस के मुताबिक यह मुठभेड़ छत्तीसगढ़ में बस्तर के उस इलाके में हुई है जहां बतौर आईजी पुलिस शिवराम कल्लूरी पदस्थ है.

यह बताने की जरूरत नहीं है कि पूरे बस्तर इलाके में इन दिनों माओवादियों के समर्पण या मुठभेड़ की बाढ़ आई हुई है.

सुकमा जिले के पुलिस अधीक्षक ईके एलेसेना का कहना है कि इसी महीने 13 जून को जब सुरक्षाबलों के जवान सर्चिंग के लिए निकले थे तब सुबह नौ बजे के आसपास दंतेवाड़ा से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गोमपाड़ और गोरवा के बीच घात लगाकर बैठे माओवादियों ने फायरिंग शुरू कर दी. माओवादियों की संख्या 25 से 30 के आसपास रही होगी. सुरक्षाबलों की जवाबी फायरिंग के बाद वे जंगल की ओर भाग खड़े हुए और एक महिला माओवादी जिसका नाम मडकम हिड़मे है वह मारी गई.

इस घटना के चंद घंटों बाद ही युवती की वह तस्वीर भी सोशल मीडिया में जारी हो गई जिसे लेकर कई तरह की बातें उठ रही है. सूत्रों का कहना है कि युवती की तस्वीर को जारी करने का काम पुलिस ने ही किया है मगर अब पुलिस इससे पल्ला झाड़ रही है.

पल्ला झाड़ने की है कई वजहें

मारी गई युवती की तस्वीर सोशल मीडिया में जारी करने वाले को पुलिस अब तक खोज नहीं पाई है. पुलिस अधीक्षक एलेसेना का कहना है कि जो युवती मारी गई वह हार्डकोर नक्सली रही है और उसके पिता मड़काम देवा भी माओवादी गतिविधियों में लिप्त रहे हैं.

लेकिन मृत महिला नक्सली की फोटो ही कई तरह के सवाल खड़ा करती है. पुलिस के पास इस बात का जवाब नहीं है कि युवती के शरीर पर एकदम नई वर्दी कैसे है? ऐसी वर्दी जिसकी धारियां तक भयंकर मुठभेड़ के बाद सही सलामत हैं. युवती के शरीर पर वर्दी इतनी बड़ी और ढीली हो गई है कि उसे नीचे से मोड़कर पहनाया गया है. बेसाइज की वर्दी एक खुंखार नक्सली क्यों पहनेगा? एक नई क्रीज वाली वर्दी के साथ माओवादी हिड़मे ने बेल्ट नहीं पहनी और वह चप्पल पहनकर मुठभेड़ करती रही.

उसकी बंदूक भी मुठभेड़ पर सवालिया निशान लगाती है. सुरक्षाबलों से उसकी मुठभेड़ उस बंदूक से होती रही जिसे भरमार बंदूक कहते हैं. यानी देशी बंदूक. पुलिस अधीक्षक एलेसेना का दावा है कि युवती को तीन से पांच गोली लगने के बाद मौत के घाट उतारा जा सका है. जबकि सोशल मीडिया में खबर वायरल हुई थी कि उसे 20 गोली मारी गई.

×

अगर पुलिस अधीक्षक के दावे को सच भी मान लें तो पांच गोलियों के इस्तेमाल के बाद भी वर्दी में एक भी छेद दिखाई नहीं देता है. इस तस्वीर के साथ यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि कहीं युवती को गोली मारने के बाद तो वर्दी नहीं पहनाई गई?

गांव को बना दिया छावनी

घटना के बाद गांव के कुछ लोगों ने आदिवासी नेत्री सोनी सोरी के भतीजे लिंगा कोडपी से संपर्क किया तो पता चला कि सुरक्षाबलों ने कथित तौर पर युवती को 12 जून को ही गोमपाड़ गांव से अगवा कर लिया था. ग्रामीणों ने लिंगा को जो बताया उसके मुताबिक युवती की शादी होने वाली थी और वह अपने घर के सामने धान कूट रही थी.

डा.लाखन सिंह  के मुताबिक उसी दौरान गश्त पर निकले सुरक्षाबल उसे अपने साथ उठा ले गए. उनका  का आरोप है कि युवती के साथ अनाचार के बाद उसकी हत्या कर दी गई और अपना कृत्य छिपाने के लिए माओवादी वर्दी पहना दी गई. घटना के बाद पुलिस ने गांव तक जाने वाले सभी रास्तों पर पहरेदारी बढ़ा दी है ताकि सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया के लोग वहां पहुंच ही न सकें.

सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने अपने कुछ साथियों के साथ कोशिश की तो शुक्रवार को उनके साथ कुछ लोगों ने धक्का-मुक्की की. सोरी का आरोप है कि जिन लोगों ने उन्हें गांव जाने से रोकने के लिए तमाशा किया वे सभी पुलिस से मिले हुए हैं और कुछ तो पुलिसवाले ही है जो सादी वर्दी में ग्रामीण बनकर आए थे.

याचिका दायर

फिलहाल यह साफ नहीं है कि युवती के शव को जला दिया गया अथवा उसे दफनाया गया है. आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक संकेत ठाकुर ने शुक्रवार को हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर शव का पोस्टमार्टम कराने की मांग की है. ठाकुर का कहना है इस पूरे मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन भी होना चाहिए.

Rajkumr soni 

Stop the Killings in Bastar! JNU Forum Against War on People

Posted by asong4nextday

Stop the Killings in Bastar!
Let us stand united with the people’s resistance against corporate loot!

The NDA government is preparing for the phase 3 of Operation Green Hunt in the central heartlands of this country with the announcement of “Chhattisgarh Mission 2016”. This brutal war waged by the ruling classes of this country is against the most oppressed adivasis and Dalits who have been fighting for their right to land, livelihood and dignity and against corporate land grab in this region. Brain child of the Chidambaram-Manmohan government, Operation Green Hunt was enforced in the year 2009 as a full forced military onslaught in the mineral rich forest regions of central India in the name of wiping out the Maoist movement. In actuality, the brutal face of this war was exposed with the atrocities perpetrated by government aided militia like the Salwa Judum, the rape and murder of many adivasi women by paramilitary forces and hounding and forced displacement of adivasis and dalits across this region. The huge deployment of CRPFs, CoBRA, Greyhounds and paramilitary forces trained specially for combat by the ruling classes in the name of Operation Green Hunt while simultaneously signing MoUs and contracts with big corporates and mining companies exposes the agenda of land grab and mining spearheaded by the Indian government. This plundering of land, rivers and forests is facilitated by burning hundreds of villages, extra-judicial torture, brutal killing and rape of innocent adivasis and dalits by brute paramilitary forces like cobra, grey hounds, C-60 etc. Following the steps of the UPA led government; the present Modi-Rajnath government has intensified its military assault on the most oppressed adivasis of this country. This war has further been extended to the Western Ghats with forces like Thunderbolt being deployed for combing and routine harassment of dalits, adivasis and landless poor.

As part of the all-out military offensive in Chhattisgarh and surrounding areas planned by the Indian government, journalist, lawyers, doctors, and democratic rights activists have been targeted and forced to evict and leave Chhattisgarh. Chhattisgarh Mission 2016 equipped with the most advanced warfare machinery is already underway with forest land being cleared for air bases and aerial attacks. With choppers doing aerial surveys and with the agenda of wiping out Maoist entirely with underway last year and prepares for an all-out offensive in Chhattisgarh and the regions surrounding it, more than 600 batallions have been deployed by the ruling classes which is one of the biggest state orchestrated terrors of recent time unleashed by Indian state on the most marginalised adivasis and dalits of central India fighting assertively to uphold their right of land, dignity and livelihood.

As the Indian government is gearing up for its military attack, it is using the most advance satellite technology of ISRO for mapping the region though neither UPA nor NDA government has ever given any sincere thought of employing any measure to mitigate the sufferance of the deprived population of this region. In the name of peaceful election, Election Commission deployed thousands of para-military forces, police personnel, chopper, video cameras, at the interior of Bastar and adjacent areas. In the name of alleged Maoist violence the state of Chhattisgarh with the help of Central government has not only terrorised the residents of the area but also taking all the measures to suppress any kind of resistance against this violence anywhere in subcontinent.

The corporate media goes hand in gloves with BJP led government in creating an atmosphere of terror and framing those who are trying to intervene or to raise voice against such brutal oppression. On the other hand journalists who went to Bastar region and raised questions against this state sponsored terrorism, were either attacked or arrested. In Bastar region itself almost 4 journalists were being picked up by police and journalists like Malini Subramanium are being threatened and forced to leave the place. Malini’s criticism against police oppression on adivasi villagers sparked off the anger of local militia ‘Samajik Ekta Manch’ who took a march against her and vandalised her house. It took 2 days for police to take an FIR and almost no action was taken against it. Bela Bhatia, a human rights activist and social researcher was labeled as Naxal and threatened by Mahila Ekta Manch. Her fault was she helped an adivasi woman to file a complaint of gang rape and grievous sexual assault against security personnel in last November. And no arrest was made. In fact that was the first time security personnel were accused under the Criminal Law Amendment Act (2013). Incidents of gang rapes, sexual assault on women by security personnel is rampant there and they go unnoticed by the BJP led Government of Chhattisgarh. In the name of two pronged effort, development and security measures, to combat Naxalite movement, several adivasi youth have been arrested in Bastar region and kept in jail without any trial. When JagLAG (Jagdalpur Legal Aid Group), started their work at courts of Bastar region they realized there is no bail system for the cases of Naxalite accused and such cases are numerous. However the more the legal aid group became active and effective the more they faced problems from BJP backed lawyers and goons and forced them to leave the region. We all know that after an acid attack on Soni Sori how her family is being heckled, tortured, and threatened and the sole motive behind this was to stop her from raising her voice against the atrocities committed by the security forces and to crush her determination to fight against it in every given situation.

After effectively almost driving out doctors, journalists, social and human right activists from this region now people like IG Kalluri have started a discourse on insider outsider. A team, Women against Sexual Violence and State Repression consisting of academics and activists went for fact finding in the districts of Kanker, Bastar, Sukma and Bijapur. The team, comprising of Prof Nandini Sundar of Delhi University, Prof. Archana Prasad, a member of the JNU faculty and an office bearer of AIDWA, Vineet Tiwari of the Joshi-Adhikar Institute and of the CPI, and Sanjay Parate of the CPI(M) faced opposition from local militia, mostly re-emerged from the disbanded militia Salwa Judum. This team found these districts in its most lawless state possible. Under the gundaraj of police, CRPF, IAF alongside these state sponsored militias the government is abusing its own laws. This team also proposed for a political dialogue between government and their immediate opposition there, including CPI Maoist, but not heeding to their constructive proposal this team was accused of siding with Maoist and a false criminal accusation was made on the team. The corporate media also plunged into this dirty game of framing professors and other activists as outsiders and sympathisers of Maoist who are instigating villagers to join hands with Maoists. Two women, Mangla of Nama and Manju Kawasi of Gadiras, Sukma district who helped them in their fact finding were harassed and detained by police.

This incident absolutely made it evident that the government is in no way interested in having any kind of dialogue with anyone as their sole motive is to facilitate a corporate loot of the age old natural resources of Bastar Region. In the name of annihilating Maoist from the region a war has been waged on the most underprivileged sections of population. Popular leaders of Salwa Judum are resurfacing, leading groups like the Bastar Vikas Sangharsh Samiti, the Mahila Ekta Manch, the Samajik Ekta Manch (SEM), the Nagrik Ekta Manch and the Sarva Dharm Samuday Manch etc. Another phase of terror and human onslaught has been started by this Hindutwavadi Neoliberal Fascist State in the heartland of Central India.

JNU Forum against War on People condemns this grim massacre of human life and corporate loot of natural resources in strongest possible way and we express our solidarity with the Adivasis and Dalits of Chhattisgarh who are fighting for their dignity, their lives, livelihood and land. The war on people of Bastar is not only confined to the particular territory and has spread all over the country. Whenever and wherever, in this subcontinent, cultural activists, political and social activists, intellectuals, students raise their voice against the atrocities perpetrated in the regions of most deprived, government tries to suppress that by either killing them or putting them into jail. But voice of resistance cannot be stopped by brutal state machineries, movement against such hooliganism and violence has only become stronger every time it was attacked. The spirit of fighting back against the cruelest mode of state intervention of the Adivasis and Dalits in Bastar would inspire us to come together to forge a greater unity and to resist the rise of Brahmanical neoliberalist facist tendency in this country. Let’s join the resistance and struggle of the most oppressed section of the population for their right to land, livelihood and dignity and against corporate land grab.

भरमार बन्दूक और आदिवासी संस्कृति पर तथ्यात्मक लेख.
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*बस्तर में भरमार बन्दुक आदिवासियों का पारम्परिक औजार..और उनकी संस्कृति है.
*अवैध हथियार के रुप में जब्त की जा रही  भरमार बन्दुक  हथियार  नहीं आदिवासियों का पेनक ( पुरखा) है.
**  तामेश्वर सिन्हा पत्रकार

छत्तीसगढ़ (बस्तर)- बस्तर में आदिवासियों पर नक्सल उन्मूलन के नाम पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर हमेशा से हमला होते आ रहा है , साथ ही संस्कृति-सभ्यता को भी सुनियोजित तरीके से नष्ट किया जा रह है, बस्तर में नक्सलवाद ने जब से अपना पैर पसारा है,आदिवासियों की संस्कृति और उनके रहन सहन पर अत्यन्त विपरीत प्रभाव पड़ रहा  है .
नतीजा यह है की आज बस्तर में नक्सल उन्मूलन के नाम पर तैनात फ़ोर्स हर आदिवासी को नक्सली समझ बैठती है? आदिवासियों की पारम्परिक औजार भरमार बन्दुक जिसे आदिवासी अपना पेनक(पुरखा) मानते है और उसकी सेवा करते है आज वही पारम्परिक औजार आदिवासियों के लिये जी का जंजाल बन गया है.
 बस्तर में आदिवासी समुदाय भरमार बन्दुक की सेवा करते है. लेकिन बस्तर में नक्सल उन्मूलन के नाम पर तैनात फ़ोर्स उनकी सेवा को नक्सल समर्थक मान बैठती है। यह भरमार उनकी संस्कृति है .
यह आदिवासी संस्कृति पर बिना जानकारी का हमला है. कई बार आदिवासियों द्वारा फोर्स को यह बताने के बाद भी कि यह हमारा पेनशक्ति है पुरखा है फिर भी जब्ति नामा किया जाता है.
चूंकि विश्व में सिर्फ बस्तर ही एक ऐसा आदिवासियों का गढ़ है जहां पेन व्यवस्था पाया जाता है। यहाँ पर पेनक (पुरखा) के कई रुप संबंधित गोत्र के दादा के दादा के दादा जो कई पीढ़ी पूर्व हास होकर मतलब मरकर उनके टोटेमिक जीव वनस्पति या सर्वोच्च प्रिय वस्तु को प्रतिकृति स्वीकार करती है उसी प्रतिकृति को पेनकरण करसाड़ के द्वारा उस पेन का नाल काटकर उसमें शक्ति उत्पन्‍न किया जाता है ,
यह प्रिय वस्तु किसी गोत्र का टंगिया, डांग, लाट, तीर-कमान, भरमार ,बरछी, तलवार, त्रिशूल, छुरी ,गपली,  कोई पेड़, भाला ,लोहे का भाग ,फरसी या हंसिया भी हो सकता है। फोर्स को यहां की पेन सिस्टम की जानकारी ही नहीं है। उपरोक्त प्रतिकृतियां बस्तर की पेनक हैं । इन पेनक को जब्ती करके फोर्स आदिवासियों की पुरखा पेन को खत्म कर रही है मतलब कोया पुनेमी संस्कृति को क्षति पहुंचा रही है। उस पेन के पुझारी के विरोध करने से उसे वही परम्परागत फर्जी नक्सली मामलों में गिरफ्तार करती है.
 हमेशा सुर्खियों में रहा है कि भरमार के साथ नक्सली ने समर्पण किया। दरसल यह भरमार के साथ का समर्पण हमेशा सवालों के घेरे में रहा है . नक्सलियों ने भी आदिवासियों के पारंपरिक औजार भरमार बन्दुक का उपयोग बखूबी किया है .
 लेकिन सरकार और नक्सलवादीयों को क्या मालूम  की आदिवासियों का पारम्परिक औजार भरमार की आदिवासी समुदाय सेवा करता है और उनका यह पेन संस्कृति का आदिम हिस्सा है । यही भरमार बन्दुक(औजार) आज बस्तर के हर आदिवासी के लिये एक विनाश साबित हो रहा है , और उनकी संस्कृति की विलुप्तता बरकारार है ,

*भरमार क्या है और उसकी उत्पत्ति कैसे होती है
आदिवासी समुदाय आदिम काल से ही रचनात्मक गुण पाया गया है जैसे आग की खोज , हिंसक पशुओं को नियंत्रित करने के लिए टेपरा, कोटोड़का का विकास कर हिंसक प्रवृत्ति को मधुर ध्वनि से नियंत्रण में कर पशुपालन का व्यवस्था कायम किये । वैसे ही शिकार करना भी आदिवासी की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति रही है। शिकार के लिए प्रयुक्त पारम्परिक औजार बरछी,भाला ,त्रिशूल ,कटार व भरमार का प्रयोग करते आ रहे हैं .
यह सभी पारम्परिक औजार आज भी आदिवासी क्षेत्रों में ही सभी क्षेत्रों में पाये जाते हैं .गोण्डवाना लेण्ड के रहवासियों में टण्डा, मण्डा व कुण्डा नेंग पूरे जीवनकाल को पूर्ण करती है। इन नेंग के बिना कोई भी कोयतोर का जीवन असंभव है।
जब किसी शिकारी आदिवासी की मृत्यु होती है तब मरनी काम के दौरान कुण्डा होड़हना नेंग होता है। कुण्डा होड़हना मतलब पानी घाट से हासपेन मतलब मर कर पेन होने की क्रिया के महत्वपूर्ण नेंग कुण्डा होड़हना होता है जिसमें पानी घाट जैसे तालाब या नदी से कोई भी जलीय प्राणी (जीव) को नये मिट्टी के घड़ा में रखा जाता है। तब यह जीव में ही उस मृत व्यक्ति का जीव उस परिवार के पेन बानाओं से मिलान करने हेतु लाया जाता है.
 इसी दौरान उस परिवार के विशेष रिश्तेदार सदस्य को पेन जनाता है मतलब स्वप्न या अन्य माध्यम से उसे दिखाई देता है कि अमुक मृत सदस्य किस रुप के पेन में पेन रुप में आना चाहता है. वो उपरोक्त प्रतिकृति में से किसी भी एक औजार ,वृक्ष या अन्य पेन स्वरुप को पेन मांदी में स्वीकार करता है.
यही प्रक्रिया के दौरान यदि शिकारी व्यक्ति के मृत्यु उपरान्त किया जाता है तब वह उसके लोकप्रिय औजार भाला,बरछी, त्रिशूल या भरमार को चयन करता है.वह उसी हथियार में पेनरुप में आरुढ़ हो जाता है.यही औजार भविष्य में पेन रुप में उस परिवार के खुंदा पेन के रुप में जन्म लेते हैं और उस परिवार की रक्षा व मार्गदर्शन करते रहते हैं .
यह इन हथियारों की पेन बनने की प्रक्रिया है.

*बदलते परिवेश में पेनक औजारों की स्थिति
उस समय में इन भरमार या पेनक औजारों को जो उस दौरान परम्परागत बुमकाल (पंचायत)  द्वारा स्वीकृति प्रदान की जाती थी जो बाद में पंजीकृत हुए । इन पंजीकृत भरमारों को थाना व्यवस्था स्थापित होने व नक्सली गतिविधियां होने के बाद सरकार द्वारा थानों में रखने का फरमान जारी किया गया । आज भी बस्तर संभाग या अन्य आदिवासी क्षेत्रों के थानों में कई भरमार पेनक जमा किये गये हैं .
वही उस दौरान या उसके बाद भी कई पेनक भरमार जो पंजीकृत नहीं हो पाये या बाद में पेनकरण हुये उसे पुलिस द्वारा अवैध हथियार के रुप में जब्ती की गई जो कि हथियार नहीं पेन हैं । चूंकि पेनक पुरखा हैं और वे समुदाय के परब नेंग में उनकी सेवा अर्जि अनिवार्य होती है। इसलिए इन्हें जब्ति नहीं करना चाहिए . अब किसी मंदिर के भगवान का कोई प्रतिकृति को जब्ति करता है क्या??? यह पेनक प्रतिकृतियों को जब्ति करना मतलब आदिवासियों की "बुढालपेन " को जब्ति कर रहे हैं .आदिवासी क्षेत्रों में आज भी आंगापेन जब मड़यी मेला या किसी अन्य पेन कार्यों से उन थानों से गुजरते हैं तब आंगापेन उन थानों में स्वस्फुर्त प्रवेश करके जब्ती कमरे के पास जाकर जोहार भेंट करते हैं । यह आंगापेन उन जब्तशुदा भरमार पेनक जो कि किसी गोत्र के बुढालपेन(कुलपेन) होते हैं कि सेवा अर्जि करने के लिए ही बस्तर क्षेत्र के थानों में बड़े आतुरता से प्रवेश करते हैं यह इस बात का सबूत है कि वो भरमार नहीं पेनक हैं आंगापेन किसी अन्य सरकारी कार्यालय जैसे तहसील औअन्य कार्यालय में कभी प्रवेश नही करते सिर्फ थानों में ही क्यों प्रवेश करता है? ?? वह भी उसी  थाना में प्रवेश करता है जहां पेनक भरमार,भाला ,तलवार या अन्य पेन प्रतिकृति जब्ती रहता है। जहाँ जब्ती ही नही वहाँ आंगापेन नहीं जाते। उसके बाद ही गंतव्य की ओर अग्रसर होते हैं । वर्तमान में इन पेनक भरमार को ग्रामीण आदिवासियों के द्वारा पेनक बताये जाने के बावजूद भी पुलिस द्वारा जबरन जब्ति करते हुए केस बनाया जाता है।

*इस सम्बन्ध में युवा आदिवासी नारायण मरकाम कहते है कि बस्तर में जो अवैध हथियार के रूप में पुलिस द्वारा आदिवासी ग्रामो से भरमार बन्दुक जप्त कर केस बनाया जाता है या उन्हें नक्सली समर्थक बताया जाता है दरसल भरमार आदिवासियों का पारंपरिक औजार है, वह इसकी सेवा कई वर्षो से करते आ रहे है, भरमार बंदूक होना मतलब हर आदिवासी नक्सली नहीं है यह उनकी संस्कृति है जो पारम्परिक औजारों जैसे बरछी, भाला ,त्रिशूल ,कटार व भरमार का प्रयोग शिकार के लिए प्रयुक्त करते आ रहे है।*

तामेश्वर सिन्हा का लेख
एनकाउंटर पर उठे सवाल : हार्ड कोर महिला नक्सली को लगी थीं 10 गोली, वर्दी में एक का भी निशान नहीं

Posted on: Jun 16,
Avdhesh Mallick, Pradesh18

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले के कोंटा में गोमपाड़-गोरखा के जंगलों में तीन दिन पहले हुई सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच हुई मुठभेड़ अब सवालों के घेरे में आ गई है. पुलिस ने इस मुठभेड़ में एक वर्दीधारी एक हार्ड कोर महिला नक्सली को मार गिराने का दावा किया था.

इस मुठभेड़ में उस महिला नक्सली को दस गोलियां लगने की बात भी कही गई थी और कुछ घंटों बाद ही सोशल मीडिया में वर्दी पहने उसकी फोटो भी सर्कुलेट कर दी गई थी. लेकिन पुलिस की ओर से जारी की गई इस फोटो में उसकी वर्दी पर कहीं एक भी गोली लगने का निशान नहीं है. इसके
पुलिस मुठभेड़ में मारी गई कथित हार्ड कोर नक्सली

चलते स्थानीय लोग और कार्यकर्ता इस मुठभेड़ को फर्जी बता रहे हैं.

पंचनामा के दौरान गोमपाड़ गांव के लोगों ने नक्सली के तौर पर उसकी शिनाख्त करने से मना करते हुए आरोप लगाया था कि सुरक्षाकर्मी जबरन उस महिला को जंगल में खींचकर ले गए थे और रातभर उसके साथ गैंगरेप किया था. ग्रामीणों ने यह भी आरोप लगाया है कि इस घटना को छुपाने और अलग रूप देने के लिए ही उसकी हत्या कर शव को जंगल में फेंक दिया गया था.

पुलिस की इस कार्रवाई से गुस्साए महिला के परिजनों और ग्रामीणों ने उसके अंतिम संस्कार से इनकार करते हुए उच्च स्तरीय जांच की मांग की है.

ग्रामीणों ने इस मामले में स्थानीय कार्यकर्ता और आम आदमी पार्टी की नेता सोनी सोरी से मदद मांगते हुए गांव का दौरा करने की गुहार लगाई थी. इसके बाद जब सोनी सोरी और उनकी टीम बुधवार को स्थानीय मीडिया के साथ वहां पहुंची तो पुलिस ने दोरनापाल, इराबोर और इंजाराम में ही उन्हें रोक दिया. अंत में पुलिस ने उन्हें इंजाराम से आगे नहीं बढ़ने दिया.

इस मामले में सुकमा की एसपी इंदिरा कल्याण एलिसिला का कहना है कि सोनी सोरी को गांव नें जाने से रोका नहीं गया था. अगर वह गांव में जाना चाहती हैं तो उन्हें पुलिस के संरक्षण में ही होगा, क्योंकि पुलिस को इस क्षेत्र में नक्सलियों की मौजूदगी की जानकारी मिली है, जिसके चलते उनकी जान को खतरा हो सकता है. महिला को 10 गोली लगने के मामले में उन्होंने कहा कि इस मामले जांच चल रही है.

जिंदल ने छीनी जमीन...मार दिया भाई को...तार-तार कर दी मेरी आबरू
12.4.2016
( राजकुमार सोनी )

 यह दास्तां है रायगढ़ क्षेत्र की आदिवासी महिला तारिका की। जमीन हथियाने के लिए उसके परिवार पर प्रमुख उद्योग समूह और नौकरशाहों ने जो जुल्म ढाए, वह रूह कंपा देने वाले हैं। उसने अपनी आपबीती नया रायपुर उपरवारा स्थित हिदायतउल्ला विधि विश्वविद्यालय में देश के नामचीन कानूनविदें को चीख-चीख कर सुनाई। वहां सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज एके पटनायक, मानवाधिकार मामलों के पैरोकार कोलिन गोजांलविस और ऑल इंडिया लॉयर्स यूनियन के सचिव शौकत अली भी उपस्थित थे।
 यहां प्रस्तुत हैं उस दर्द को बयां करता अनकट ऑडियो...सुनने के लिए फोटो पर क्लिक करें...

पीडि़ता ने कानूनविदें को सुनाई आपबीती::

मेरे पापा सरकारी अधिकारी थे। 1998 में उनका देहांत हो गया। हमारी जमीन गांव से तीन किमी दूर है। वर्ष 2000 में जिंदल दो साथियों के साथ जमीन लेने आए थे, लेकिन तब मां ने मना कर दिया, क्योंकि वो पापा के निधन के बाद उस जमीन से हम दो भाई-बहिनों को संभाल रही थीं। हमें गांव तक बिजली लाने के लिए रिश्वत देनी पड़ी थी, लेकिन राज्य का निर्माण हमारे लिए दुखद दिन था। बिजली वायर चोरी हो गए। इसकी शिकायत की, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई।

2003 में पता चला कि हमारी जमीन का अधिग्रहण होगा। सरपंच से पता चला कि पूंजीपथरा में जमीनों के अधिग्रहण को लेकर कोई ग्राम सभा नहीं हुई। कोटवार और एक आरक्षक ने मां को बताया कि हमारी जमीन अधिग्रहण दायरे में है, मुआवजा लेने आओ। मां ने आपत्ति की तो दबाव का खेल शुरू हुआ। एक रोज घर के बाड़े को तोड़ा जा रहा था, तब मां जो स्वयं सरकारी मुलाजिम थी, वह घरघोड़ा के एसडीएम सुनील जैन के पास सूचना देने गईं। मां शुगर और बीपी की मरीज है, लेकिन उन्हें वहां बंधक बना लिया गया। एक तरफ मां कैद थी तो दूसरी तरफ मैं अपने पति और भाई के साथ अपनी जमीन पर खड़ी थी। हम विरोध कर रहे थे कि जमीन पर बुलडोजर नहीं चलने देंगे।

उधर एसडीएम दफ्तर में मां को धमकी दी जा रही थी कि जमीन नहीं दोगी तो बच्चों पर बुलडोजर चढ़ा देंगे। दफ्तर के बाहर डीके भार्गव और राकेश जिन्दल, जो जिन्दल के दलाल थे, वे बैठे हुए थे। जब यह तय हो गया कि हम पर बुलडोजर चल जाएगा, तब मां ने हमें एसडीएम दफ्तर बुला लिया। हम चार घंटे तक वहां थे, हमारी जमीन पर बुलडोजर चल चुका था। आम-काजू के पेड़ बरबाद हो गए। वहां कच्ची सडक़ बन गई और गाडिय़ां आने-जाने लगीं।

भाई की हत्या को दुर्घटना में बदल दिया
मां ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए, पुलिसवाले मेरे भाई प्रवीण पर दबाव बनाने लगे। वे उसे हर दूसरे-तीसरे रोज थाने ले जाते थे, धूप में खड़ा रखते, मुर्गा बनाते। एक अप्रैल 2007 को भाई अपने दोस्तों के साथ तराईमाल गया। 2 अप्रैल की सुबह खबर मिली कि उसका एक्सीडेंट हो गया। मैं घटनास्थल पर पहुंची तो प्रवीण के साथ उसके दोस्तों की भी मौत हो चुकी थी। कहीं से भी नहीं लग रहा था कि वह एक एक्सीडेंट है। शासन-प्रशासन ने उनकी हत्या को एक्सीडेंट साबित कर दिया। हमारी आधी जमीन पर कब्जा हो चुका था। शिकायत करनी चाही तो मां पर ही शांति भंग का प्रकरण दर्ज कर दिया।

...और वो भयानक दिन
31 मई 2015 को मां के साथ पूंजीपथरा में थी। रात में तेज बुखार आया। सुबह अकेली ही इलाज के लिए घर से निकली। सडक़ पर खड़ी होकर बस का इन्तजार कर रही थी, तभी एक फोरव्हीलर आकर रुकी। ड्राइवर ने पूछा कि क्या तमनार जाना है। मैं गाड़ी में बैठ गई। मुझे पता नहीं चला, क्या हुआ...। होश आया तो कुछ आवाजें सुनीं। मेरे दोनों हाथ पलंग पर बंधे थे। कुछ लोग एक-दूसरे को मैनेजर-डायरेक्टर बोलकर बात कर रहे थे।

मैं चिल्लाई तो एक आदमी आया और उसने मेरे कंधों को पकडक़र कहा कि तुम्हारी जमीन हमारे कब्जे में है। तुम कलक्टर को लिख दो कि हम जमीन छोडक़र जा रहे हैं। जब उसने मुझे झकझोरा, तब मुझे पता चला कि मेरे शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। मेरी आंखों पर पट्टी बंधी थी। वो जानवर मेरे हाथों में अपना गुप्तांग पकड़ा रहे थे। चिल्लाना चाहती थी लेकिन चिल्ला नहीं पा रही थी। इन जल्लादों की बात अगर मैं कहूं तो आप सभी अपना सिर शर्म से नीचे कर लेंगे। जब मेरी आंखों की पट्टी खुली तो मैंने कपड़े पहने। जल्लादों ने मुझे वहीं छोड़ दिया, जहां से लेकर आए थे। हम तीन जून को तमनार थाने गए तो मुंशी ने शिकायत रख ली। पांच जून को पुलिसवालों ने घर आकर मेरे पति को धमकाया कि ज्यादा नेतागिरी करोगे तो नक्सली बनाकर मार देंगे। मेरी कम्पलेन फाड़ दी।

जिंदा हूं, तब तक लडूंगी...
मैंने अपने छह साल के बच्चे को बाहर पढऩे भेज दिया। यह फैसला बेहद कठिन था। 2014 में तय किया कि मैं लड़ाई लडूंगी। सुप्रीम कोर्ट गई तो मेरा केस रजिस्ट्रार के पास ही खारिज हो गया। सात अप्रैल 2015 को मेरा केस फिर सुप्रीम कोर्ट में लगा। जो वकील जिन्दल के पक्ष में खड़े थे, वे कार्यक्रम में मौजूद हैं। उन्हें देखकर बेहद तकलीफ हुई। मेरी ओर से एक-दो वकील। और उसके लिए 20-20 वकील। कैसे मिलेगा साधारण इंसान को न्याय। जब मैं वहां से गुहार लगाकर लौटी तो कलक्टर ने मुझे दोबारा ज्वाइनिंग नहीं दी। ट्रांसफर कर दिया। वेतन नहीं दी जा रही। एफआईआर तक दर्ज नहीं, लेकिन मैं लड़ाई लडूंगी। जब तक मैं जिन्दा रहूंगी अपनी लड़ाई लडूंगी।

ऑल इंडिया लॉयर्स यूनियन के सचिव शौकत अली कहते हैं, तारिका हयूमन राइट लॉ नेटवर्क के माध्यम से कार्यक्रम में पहुंची थी। उसने कानूनविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामने जो कुछ बयां किया वह दिल को दहला देने वाला था। उसकी एक-एक बात अकल्पनीय है। तारिका ने सबके सामने जो कुछ कहा, वही पूंजीपथरा का सच है। हम उसके साथ हैं।
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बस और नहीं l
देश की विकास के लिए कब तक कोरबा की जनता देती रहेगी बलिदान ?
पिछले 60 वर्षों से कोरबा ज़िला ना सिर्फ देश में कोयला खनन का महत्वपूर्ण केंद्र है बल्कि भारत के औद्योगिक विकास की रीढ़ बना हुआ है l  कोरबा जिले से ही देश का 15 प्रतिशत से भी अधिक कोयला खनन होता है और यहाँ 10 से अधिक ताप विद्युत् संयत्र हैं जिनका देश की ऊर्जा उत्पादन में बड़ा योगदान हैं l  परन्तु इसके लिए कोरबा जिले के मूल निवासियों को एक भारी कीमत चुकानी पड़ी है l  कई लोगों को बिना मुआवज़े व पुनर्वास के ही विस्थापित होना पड़ा है और अपनी जीवन-यापन, पहचान तथा संस्कृति को नष्ट होते देखना पड़ा है l साथ ही एक हरे भरे, दुर्लभ जैव-विविधता से परिपूर्ण और खुशहाल क्षेत्र की पहचान कहीं इतनी खो चुकी है की आज वही कोरबा जिले देश के सबसे अधिक प्रदूषित जिलों में से एक है जहां खुशहाल जीवन तो क्या सांस लेने में भी निवासियों को ज़हर का सेवन करना पड़ता है l
पिछले 60 सालों में सरकार की परियोजना स्वीकृति, पुनर्वास और मुआवज़े की नीतियों में कई जन-पक्षीय परिवर्तन आये परन्तु कंपनी और प्रशासन के मूल दृष्टिकोण में शायद ही कुछ बदलाव हुआ हैं l यही कारण हैं की प्रशासन और कंपनिया आज भी ज़िले के मूल निवासियों के प्रति असंवेदनशील है और उन्हें मात्र विकास की राह में बाधा के रूप में देखती है l  इसलिए सभी जनपक्षीय कानूनों ( जैसे की पेसा कानून 1996, वनाधिकार मान्यता कानून 2006, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1984, भू अधिग्रहण कानून 2013 या राज्य की पुनर्वास नीति 2007आदि) के क्रियान्वयन में इतनी भारी अनियमित्ताएं हैं की केवल औद्योगिक मुनाफे के लिए सभी कानूनों का मज़ाक भर बन के रह गया है l  इसीलिए शायद कोरबा का विकास मॉडल आज भी र्विस्थापितों की न्यायपूर्ण मागों के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष तथा  कंपनी और सरकार के बीच  शक्ति प्रदर्शन के बीच उलझ के रह गया है |l इसी सन्दर्भ  में मई माह में क्षेत्र के भू-विस्थापितों को अपनी न्यायिक मांगों की सुनवाई के लिए भारी संख्या में विरोध प्रदर्शन कर गेवरा ओपन कास्ट माइन का साइलो बंद कराना पड़ा थाl
इन्हीं विषयों और कोयला खदानों तथा रेल कॉरीडोर से उत्पन्न विस्थापन की समस्याओं के अध्ययन के लिए सोमवार 6 जनवरी 2016 को एक प्रतिनिधि मंडल ने प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया और किसानों व भू-विस्थापितों से विस्तृत चर्चा की l जांच दल में छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के सदस्य और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव का. संजय पराते, छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के संयोजक मंडल सदस्य  आलोक शुक्ला, IIM कलकत्ता से शोध-करता प्रियांशु, दिल्ली से आये सत्यम श्रीवास्तव, माकपा के कोरबा ज़िला इकाई के सचिव सपुरन कुलदीप, संदीप पटेल तथा सुखरंजन नंदी शामिल थे l  दल के सदस्यों ने एसईसीएल के गेवरा परियोजना से प्रभावित गाँव भठोरा, रलिया, बाहनपाठ और नरईबोध का विस्तृत दौरा किया l पाली में आयोजित एक बैठक में कुसमुंडा परियोजना से प्रभावित गाँव सोनपुरी, रिस्दी, पड़निया, पाली, जटराज के किसानों से भी चर्चा की l  इसके अतिरिक्त गेवरा – पेंड्रा रेल कॉरीडोर तथा एसईसीएल के खदान विस्तार परियोजना से प्रभावित ग्राम भैरोताल, रोहिना, मडवाढोढा, पुरैना गाँवों का भी दौरा किया और प्रभीवित किसानों से चर्चा की l

(गेवरा कोयला परियोजना )

च से निकले कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
एस.ई.सी.एल द्वारा भूमि अधिग्रहण के मूल उद्देश्य के विपरीत ज़मीन की जमाखोरी और स्थानांतरण – सन 1964, 1965 और1971 में ग्राम भैरोताल, रोहिना, इत्यादि में एस.ई.सी.एल. ने कोयला खनन के लिए ज़मीन अधिग्रहण या लीज़ पर ली थी परन्तु आज तक इस जमीन का उपयोग एस.ई.सी.एल. द्वारा नहीं किया गया l इन जमीनों पर कब्ज़ा आज भी किसानो का हैं वो या तो उस पर निवासरत हैं या इसमें खेती कर रहे हैं l इनमें से कई परिवारों को मुआवज़ा या पुनर्वास भी एस.ई.सी.एल. के द्वारा नहीं दिया गया था, परन्तु सभी ज़मीन के कागज़ कंपनी के नाम पर चले गए हैं | कई वर्षों तक इन जमीनों का उपयोग ना होने के बावजूद, और लीज़ लेने के 50 वर्षों के बाद भी ज़मीन के पट्टे मूल भू स्वामियों  के नाम स्थानांतरित नहीं किये गए | वर्तमान में बिना ग्रामीणों से परामर्श किये या उनको मुआवज़ा, पुनर्वास दिए बिना ही एस.ई.सी.एल. अब इस ज़मीन गेवरा-पेंड्रा रेल कॉरीडोर को स्थानांतरित कर रहा है जोकि ना सिर्फ ग्रामवासियों के अधिकारों का हनन है बल्कि भू अधिग्रहण के मूल उद्देश्य के विपरीत एक गैर कानूनी कार्यवाही है |
बिना सहमती के भूमि अधिग्रहण और अवैध रूप से रेल कॉरीडोर का निर्माण – गेवरा – पेंड्रा रेल कॉरीडोर के अधिग्रहण से पूर्व ग्रामवासियों की आपत्तियों पर कोई सुनवाई नहीं हुई | आपत्ति लगाने के लिए कलेक्टर ऑफिस में बुलाया गया ना की गाँव में जिससे कई लोग अपनी आपत्तियां नहीं लगा पाए | लगाई गयी आपत्तियों पर भी कोई ध्यान दिए बिना ही भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है | इनमें पुरैना मडवा ढोढा के 54 किसानों के साथ अन्य गाँवों के लोग भी शामिल हैं | साथ ही रेल कॉरीडोर बंद पड़ी अंडरग्राउंड माइन के उपर बनाया जा रहा है जोकि कानूनी प्रावधान के विपरीत है | इस रेल कॉरीडोर से केवल कोयला ढूलाई का प्रयोग होगा जिसके लिए पहले से ही रेल मार्ग उपलब्ध है | अतः केवल कुछ किलोमीटर का रास्ता कम करने के लिए ही ग्रामवासियों को विस्थापित किया जा रहा है | इसके साथ ही इस रेल मार्ग के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई भी की जाएगी जो की एक समृद्ध वन क्षेत्र हैं l
कोल इंडिया लिमिटेड की पुनर्वास नीति में जन-विरोधी रोज़गार प्रावधान और उनके क्रियान्वयन में गड़बड़ियां – कोल इंडिया पुनर्वास नीति 2012 में कट-ऑफ पॉइंट सिस्टम के कारण विस्थापितों को बहुत कम रोज़गार दिए जा रहे हैं | 0.53 एकढ़ से कम खातेदार छोटे किसानों को कोई रोज़गार उपलब्ध नहीं है | इस प्रणाली के चलते कई रोज़गार केवल इसलिए रिक्त हो जा रहे हैं क्यूंकि बड़े किसानों के परिवार में रोज़गार योग्य व्यक्ति नहीं हैं | एस. ई. सी. एल के द्वारा प्रभावितों को न्यूनतम मुवावजा, पुनर्वास और रोजगार देना पड़े इसके लिए वह अपनी सुविधा अनुसार प्रावधानों का पालन करता हैं l ग्रामीणों के अनुसार रथोबाई बनाम एसईसीएल के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए  विभिन्न निर्णयों का हवाला देते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने स्प्ष्ट रूप से कहा है कि कोल इण्डिया पुनर्वास नीति की कोई वैधानिकता नही है । लेकिन इसके बावजूद नए भू-अधिग्रहण कानून को लागू करने के बजाय एस. ई. सी. एल  भू-विस्थापितों पर अपनी असंवैधानिक नीति थेाप रही है । गेवरा विस्तार परियोजना के लिए किये गए भू अधिग्रहण से प्रभावित 989 लोगो को रोजगार का प्रावधान था लेकिन एस. ई. सी. एल के द्वारा मात्र  294 लोगो को ही रोजगार मिला है ।

चने के लिए भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में गड़बड़ियां की जा रही हैं | गेवरा विस्तार परियोजना के लिए 7 गाँव भटोरा, पोड़ी, बाहनपाठ, आमगांव, रलिया, भिलाईबाजार, तथा नरईबोट            भूमि 2004 में अधिग्रहण कर मुआवज़ा कम दाम पर तय कर दिया गया जिसका मुआवज़ा 12 साल बाद 2016 में दिया गया | ग्राम भठोरा में 2010 में मुआवज़ा राशि का दर तय कर दिया गया जिसका मुआवज़ा 2016 में दिया जाना है जबकि इस दर पर आज कोई भी ज़मीन खरीदना असंभव है | साथ ही पक्का घर का मुआवज़ा लागत से बहुत ही कम है | भू-अधिग्रहण कानून (“भूमि अर्जन पुनर्वास व् पुनर्विस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 यथा संशोधन 2015”) के प्रावधानों की पूर्णतया अवहेलना की जा रही है | कई गाँव का केवल आंशिक अधिग्रहण हुआ है जिससे उचित मुआवज़ा और पुनर्वास नहीं दिया जा रहा है |
नियमों एवं सुरक्षा कायदों की अनदेखी कर बिना पुनर्वास दिए ,15 दिन के अन्दर गाँव खाली करने का निर्देश – किसी भी परियोजना को शुरू करने के पूर्व प्रभावितों के हको का संरक्षण करते हुए मुवावजा और पुनर्वास देना आवश्यक हैं, परन्तु कोरबा में इसका पालन नहीं हो रहा हैं l     एस.ई.सी.एल. की गेवरा विस्तार परियोजना से प्रभावित ग्राम बाहनपाठ में घरों के बिलकुल बगल में ब्लास्टिंग कार्य किया जा रहा है, जबकि वहां अभी तक परिवार रह रहे हैं | गाँव के 743 घरो को तोडा गया है और 40 घरों को तोडना बाकि है l ग्रामीणों ने चर्चा के दोरान बताया की पुनर्वास की जगह पेसा दिया जा रहा हैं उसमे भी बहुत से लोगो को पेसा नहीं मिला हैं l  इस गाँव में 123 परिवारों में से केवल 25 लोगो को ही नौकरी दी गयी है और 4 लोगो को नोकरी के बदले पेसा दिया गया हैं | बिना पुनर्वास के लोगो की उजाडना और गाँव के समीप ही बिलास्टिंग किया जा रहा हैं जो ना केवल कानूनों का उल्लंघन है बल्कि मानवाधिकारों का भी हनन हो रहा है | वनाधिकार पत्रक ना होने के कारण उन्हें उन्हें वन भूमि में काबिज जमीन का मुआवजा नहीं मिला

कुसमुंडा खदान क्षेत्र में पेसा और वनाधिकार कानूनों का उल्लंघन – क्षेत्र में 5 गाँवों का विस्थापन कार्य जारी है परन्तु वनाधिकार मान्यता कानून का क्रियान्वयन ना होने के कारण लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है | एसइसीएल लगातर अपनी मनमर्जी से कार्य करा रहा है l कोरबा जिला पांचवी अनुसूचित जिला हैं जहाँ किसी भी भू- अधिग्रहण के पूर्व ग्रामसभा की अनुमति आवश्यक हैं, परन्तु कुसमुंडा विस्तार परियोजना में भू-अधिग्रहण के पूर्व प्रभावित गाँव की ग्रामसभाओ से सहमती नहीं ली गई l यह  कानूनी मामला अभी कोर्ट में लंबित है |

(कुसमुंडा कोयला खदान कोरबा )
ज़ाली स्वीकृति के साथ माइन क्लोज़र  - कोल बेयरिंग एक्ट के  प्रावधान  अनुसार किसी भी भूमिगत खदान को बंद करने के पूर्व स्थानीय ग्रामसभा या निकाय से अनुमति लेना आवश्यक हैं परन्तु एस.ई.सी.एल. के द्वारा इसका भी खुला उल्लंघन किया जा रहा हैं l  ग्राम मडवा ढोढा में पुरानी अंडरग्राउंड माइन को बंद करने से पूर्व आवश्यक ग्राम सभा की स्वीकृति में भारी पैमाने पर फर्जी हस्ताक्षर हैं और ग्रामवासियों को पता भी नहीं था की यहाँ माइन को बंद किया जा रहा है | इसके माइन क्लोज़र के बाद ज़मीन धसने से ना सिर्फ गाँव वालों पर खतरा उत्पन्न हो गया है बल्कि उनकी फसल इत्यादि पर भी प्रभाव पड़ा है |
डिस्ट्रिक्ट मिनरल फण्ड का गैरकानूनी इस्तेमाल – खनन की रॉयल्टी को विस्थापितों के हितों के लिए इस्तेमाल करना अनिवार्य है परन्तु इसके लिए अधिवक्ता संघ के लिए भवन, पत्रकार भवन, वृद्धाशाला, ओवेरब्रिज का निर्माण किया जा रहा है जोकि कानून का उल्लंघन है |
   

जांच से उभरते सवाल और सरकार का जन-विरोधी चेहरा
इन सभी तथ्यों से एस.ई.सी.एल और सरकार के रवय्ये पर गंभीर सवाल उत्पन्न होते हैं | एस.ई.सी.एल. एक कोयला खनन कंपनी की जगह एक ज़मींदार और ज़मीन जमाखोर के रूप में काम करती प्रतीत होती है जोकि उसके मूल उद्देश्य के बिलकुल विपरीत है | हालांकि पिछले 60 सालों में कई नए कानून बने हैं, सरकार उनके प्रति बिल्कुल असंवेदनशील है और कानूनों की अवहेलना और मानवाधिकारों के हनन से नहीं चूकती है चाहे वो मुआवज़ा,पुनर्वास, रोज़गार, माइन क्लोज़र, या पर्यावरण सम्बन्धी कानून हों|
इससे यह स्पष्ट है की सरकार की नज़र में कोरबा के विकास मॉडल में मूल-वासियों और विस्थापितों के लिए कोई जगह नहीं है और उनके प्रति असंवेदनशील दृष्टिकोण है | सरकार और कंपनी मूल-वासियों को मात्र विकास कार्य में बाधा के रूप में देखते हैं | इससे यह भी स्पष्ट है की देश ने अभी तक कोरबा के मूल-वासियों और किसानों के बलिदानों को नहीं समझा है | 60 साल तक विकास राह में पिसते हुए लोगों से सरकार आज भी और बलिदानों की अपेक्षा करती है |
मांगपत्र
भू-अधिग्रहण के सभी लंबित तथा नए  प्रकरण को “भूमि अर्जन पुनर्वास व् पुनर्विस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 यथा संशोधन 2015” के आधार पर ही किये जाने चाहिए | कोल इंडिया पुनर्वास नीति 2012 को इस कानून के अनुसार संशोधित किया जाना चाहिए |
किसी भी परियोजना के लिए ज़रुरत से अधिक भूमि लेने की प्रक्रिया तुरंत बंद होनी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जान चाहिए की मूल-निवासियों को कम से कम क्षति हो |
 जिस अधिग्रित भूमि का उपयोग 5 सालो में नही  किया गया हैं, उसे शीघ्र ही भू – स्वामी को वापिस किया जाये l
पेसा कानून 1996 और वनाधिकार मान्यता कानून 2006 का विधिवत क्रियान्वयन किया जाना चाहिए l
 वनाधिकारों की मान्यता प्रक्रिया की समाप्ति और ग्रामसभा की लिखित सहमती के बिना जमीन अधिग्रहण या वन भूमि के डायवर्सन की प्रक्रिया पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए |
गेवरा विस्तार परियोजना क्षेत्र में प्रभावितों के पुनर्वास किये बिना और सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर किये जा रहे खनन कार्य पर तत्काल रोक लगाई जाये ।
माइन क्लोज़र पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और इस भूमि को पहले जैसा बनाकर मूल-निवासियों को या फिर विस्थापितों को दिया जाना चाहिए |
खदानों के डी-पिल्लरिंग के कारण होने वाले जमीन व संपत्ति नुकसान का मुआवजा एवं फसल नुकसान की क्षतिपूर्ति राशि प्रति वर्ष समर्थन मूल्य के आधार पर भुगतान किया जाना चाहिए  l
पर्यावरण संरक्षण कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिशचित किया जाना चाहिए
डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन के मदों का खर्चा उसके उदेश्य अनुसार प्रभावित समुदाय के जीवन स्तर को सुधारने के लिए किया जाना चाहिए l


कुसमुंडा खदान क्षेत्र में पेसा और वनाधिकार कानूनों का उल्लंघन – क्षेत्र में 5 गाँवों का विस्थापन कार्य जारी है परन्तु वनाधिकार मान्यता कानून का क्रियान्वयन ना होने के कारण लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है | एसइसीएल लगातर अपनी मनमर्जी से कार्य करा रहा है l कोरबा जिला पांचवी अनुसूचित जिला हैं जहाँ किसी भी भू- अधिग्रहण के पूर्व ग्रामसभा की अनुमति आवश्यक हैं, परन्तु कुसमुंडा विस्तार परियोजना में भू-अधिग्रहण के पूर्व प्रभावित गाँव की ग्रामसभाओ से सहमती नहीं ली गई l यह  कानूनी मामला अभी कोर्ट में लंबित है |

(कुसमुंडा कोयला खदान कोरबा )
ज़ाली स्वीकृति के साथ माइन क्लोज़र  - कोल बेयरिंग एक्ट के  प्रावधान  अनुसार किसी भी भूमिगत खदान को बंद करने के पूर्व स्थानीय ग्रामसभा या निकाय से अनुमति लेना आवश्यक हैं परन्तु एस.ई.सी.एल. के द्वारा इसका भी खुला उल्लंघन किया जा रहा हैं l  ग्राम मडवा ढोढा में पुरानी अंडरग्राउंड माइन को बंद करने से पूर्व आवश्यक ग्राम सभा की स्वीकृति में भारी पैमाने पर फर्जी हस्ताक्षर हैं और ग्रामवासियों को पता भी नहीं था की यहाँ माइन को बंद किया जा रहा है | इसके माइन क्लोज़र के बाद ज़मीन धसने से ना सिर्फ गाँव वालों पर खतरा उत्पन्न हो गया है बल्कि उनकी फसल इत्यादि पर भी प्रभाव पड़ा है |
डिस्ट्रिक्ट मिनरल फण्ड का गैरकानूनी इस्तेमाल – खनन की रॉयल्टी को विस्थापितों के हितों के लिए इस्तेमाल करना अनिवार्य है परन्तु इसके लिए अधिवक्ता संघ के लिए भवन, पत्रकार भवन, वृद्धाशाला, ओवेरब्रिज का निर्माण किया जा रहा है जोकि कानून का उल्लंघन है |
   

जांच से उभरते सवाल और सरकार का जन-विरोधी चेहरा
इन सभी तथ्यों से एस.ई.सी.एल और सरकार के रवय्ये पर गंभीर सवाल उत्पन्न होते हैं | एस.ई.सी.एल. एक कोयला खनन कंपनी की जगह एक ज़मींदार और ज़मीन जमाखोर के रूप में काम करती प्रतीत होती है जोकि उसके मूल उद्देश्य के बिलकुल विपरीत है | हालांकि पिछले 60 सालों में कई नए कानून बने हैं, सरकार उनके प्रति बिल्कुल असंवेदनशील है और कानूनों की अवहेलना और मानवाधिकारों के हनन से नहीं चूकती है चाहे वो मुआवज़ा,पुनर्वास, रोज़गार, माइन क्लोज़र, या पर्यावरण सम्बन्धी कानून हों|
इससे यह स्पष्ट है की सरकार की नज़र में कोरबा के विकास मॉडल में मूल-वासियों और विस्थापितों के लिए कोई जगह नहीं है और उनके प्रति असंवेदनशील दृष्टिकोण है | सरकार और कंपनी मूल-वासियों को मात्र विकास कार्य में बाधा के रूप में देखते हैं | इससे यह भी स्पष्ट है की देश ने अभी तक कोरबा के मूल-वासियों और किसानों के बलिदानों को नहीं समझा है | 60 साल तक विकास राह में पिसते हुए लोगों से सरकार आज भी और बलिदानों की अपेक्षा करती है |
मांगपत्र
भू-अधिग्रहण के सभी लंबित तथा नए  प्रकरण को “भूमि अर्जन पुनर्वास व् पुनर्विस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 यथा संशोधन 2015” के आधार पर ही किये जाने चाहिए | कोल इंडिया पुनर्वास नीति 2012 को इस कानून के अनुसार संशोधित किया जाना चाहिए |
किसी भी परियोजना के लिए ज़रुरत से अधिक भूमि लेने की प्रक्रिया तुरंत बंद होनी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जान चाहिए की मूल-निवासियों को कम से कम क्षति हो |
 जिस अधिग्रित भूमि का उपयोग 5 सालो में नही  किया गया हैं, उसे शीघ्र ही भू – स्वामी को वापिस किया जाये l
पेसा कानून 1996 और वनाधिकार मान्यता कानून 2006 का विधिवत क्रियान्वयन किया जाना चाहिए l
 वनाधिकारों की मान्यता प्रक्रिया की समाप्ति और ग्रामसभा की लिखित सहमती के बिना जमीन अधिग्रहण या वन भूमि के डायवर्सन की प्रक्रिया पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए |
गेवरा विस्तार परियोजना क्षेत्र में प्रभावितों के पुनर्वास किये बिना और सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर किये जा रहे खनन कार्य पर तत्काल रोक लगाई जाये ।
माइन क्लोज़र पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और इस भूमि को पहले जैसा बनाकर मूल-निवासियों को या फिर विस्थापितों को दिया जाना चाहिए |
खदानों के डी-पिल्लरिंग के कारण होने वाले जमीन व संपत्ति नुकसान का मुआवजा एवं फसल नुकसान की क्षतिपूर्ति राशि प्रति वर्ष समर्थन मूल्य के आधार पर भुगतान किया जाना चाहिए  l
पर्यावरण संरक्षण कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिशचित किया जाना चाहिए
डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन के मदों का खर्चा उसके उदेश्य अनुसार प्रभावित समुदाय के जीवन स्तर को सुधारने के लिए किया जाना चाहिए l