Saturday, March 4, 2017

जंग का नहीं गुरमेहर कौर की हिम्मत का जश्न हो .

ब्लॉग: जंग का नहीं गुरमेहर कौर की हिम्मत का जश्न हो

  • 4 घंटे पहले

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अपनी माँ की साड़ी का पल्लू थामे खड़े दो साल के उस बच्चे के मासूम चेहरे को रिटायर्ड कर्नल रणबीर भदौरिया आज तीस साल बाद भी भुला नहीं पाए हैं. रसोई घर में छिपे इस बच्चे और उसकी माँ को अगले ही पल भारतीय सेना के एक जवान ने गोली मार कर ठंडा कर दिया था.
दो बरस के उस श्रीलंकाई तमिल बच्चे को किसने मारा और क्यों - भारतीय फौज ने, भारतीय सैनिक ने, भारतीय सैनिक की बंदूक़ ने या फिर एक अंधी जंग ने?
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ रही गुरमेहर कौर ने इसी सवाल का जवाब देने की हिम्मत की और सोशल मीडिया पर ऐलान किया - मेरे फ़ौजी पिता को पाकिस्तान ने नहीं मारा - वो युद्ध का शिकार हुए.

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बीस बरस की इस लड़की के इस बयान पर उसको रेप और हत्या की धमकी देने वाले सोशल-मीडिया देशभक्तों से लेकर भारत के गृहराज्य मंत्री किरण रिजिजू और भारतीय जनता पार्टी के सांसद प्रताप सिम्हा तक सभी एक पक्ष में खड़े नज़र आए.

'शहीद की बेटी'

किरण रिजिजू ने सवाल किया कि इस लड़की के दिमाग़ को कौन प्रदूषित कर रहा है तो सिम्हा ने गुरमेहर कौर की तुलना अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम से कर दी.
एक झटके में गुरमेहर कौर को 'शहीद की बेटी' के ओहदे से उतारकर 'देशद्रोहियों' की जमात में फेंक दिया गया.

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ये कहना मुश्किल है कि जाफ़ना में भारतीय फ़ौजियों के हाथों मारा गया दो बरस का तमिल बच्चा अगर बच गया होता तो वो भी गुरमेहर कौर की तरह कहता कि मेरी माँ को भारत ने नहीं बल्कि युद्ध ने मारा है.

सबसे बड़ा दुश्मन

हो सकता है उस दौर में भारतीय सैनिकों की गोलियों से बच गए बच्चे भारत को अपना सबसे बड़ा दुश्मन माने बैठे हों. पर क्या कर्नल भदौरिया या उस बच्चे पर गोली चलाने वाला उनका सहयोगी सिपाही वाक़ई उस बच्चे और उसकी माँ के दुश्मन थे?
कर्नल भदौरिया और गोली चलाने वाला उसका सहयोगी फ़ौजी श्रीलंका के तमिल अलगाववादी संगठन लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम के ख़िलाफ़ अस्सी के दशक में हुए भारतीय फ़ौज के ऑपरेशन में शामिल थे. फ़ौजियों के तौर पर उन्हें जो आदेश मिला उन्होंने उसका पालन किया.

तोप और फूलइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

अब रिटायर होकर सीतापुर में जा बसे कर्नल भदौरिया को न उस बच्चे का नाम मालूम है और न पहचान. और न ही ये मालूम है कि उसे और उसकी माँ को गोली क्यों मारी गई.

सही और ग़लत

तमिल अलगाववादियों के ख़िलाफ़ हुए इस ऑपरेशन पर विवेचना के सिलसिले में रेहान फ़ज़ल ने कर्नल भदौरिया से संपर्क किया.
किसी ज़माने में सिर्फ़ बंदूक़ और बम की भाषा बोलने वाले रिटायर्ड कर्नल भदौरिया की आवाज़ में अब अफ़सोस है. उन्होंने माँ-बेटे को अपनी आँखों के सामने ज़िंदा देखा पर उन निहत्थों पर गोली चलाने की हिम्मत नहीं हुई.
उन्होंने अपने सहयोगी फ़ौजी की ओर देखा और घर से बाहर निकल आए. जब वे लौटे तो उनके साथ के फ़ौजी ने माँ-बेटे को गोली मार दी थी.

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कर्नल भदौरिया कहते हैं कि जब मैं अकेले में बैठकर सोचता हूँ तो सही और ग़लत के बारे में सोचता हूँ. जंग में ऐसा होता है - गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है.

अंधी जंग

एक रिपोर्टर के तौर पर ऐसी ही अंधी जंग का गवाह मैं भी रहा हूँ. भारत और पाकिस्तान के बीच 1999 की गर्मियों में हुए कारगिल युद्ध की रिपोर्टिंग करने के लिए आउटलुक पत्रिका के संपादक विनोद मेहता ने मुझे वहाँ भेजा.
गर्मियों के मौसम में कारगिल और द्रास का इलाक़ा बेहद ख़ूबसूरत हो जाता है. हवा में मादकता घुली होती है और पहाड़ों पर खिले जंगली फूल अपनी ओर खींचते हैं.

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सड़क किनारे लगाई गई बोफ़ोर्स तोपों की गड़गड़ाहट के बीच मैंने एक स्थानीय चरवाहे से पूछा कि क्या ये फूल हमेशा ऐसे ही रहते हैं. उसने बताया कि गर्मियों में कारगिल में एक त्योहार मनाया जाता है जिसमें बच्चे इन जंगली फूलों को इकट्ठा करके अपने बुज़ुर्गों को देते हैं.

कारगिल युद्ध

पर इस बार इन फूलों को चुनने कोई बच्चा नहीं गया क्योंकि युद्ध से अपनी जान बचाने के लिए सब सुरक्षित इलाक़ों में चले गए हैं.
एक ख़ास शाम मुझे अब भी याद है. उस रोज़ दिनभर की थका देने वाली रिपोर्टिंग से लौटकर हम सभी रिपोर्टर कारगिल होटल के एक कमरे में इकट्ठा हुए थे. हमारे साथ किसी विदेशी समाचार एजेंसी का एक कच्चा नौजवान फ़ोटोग्राफ़र भी था जो कारगिल युद्ध को शायद वीडियो गेम जैसा समझ रहा था.

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"ये मेरे करियर की पहली जंग है (दिस इज़ द फ़र्स्ट वॉर ऑफ़ माइ करियर)" - अँग्रेज़ी में बच्चों जैसे उत्साह के साथ कहा गया ये सामान्य वाक्य उस वक़्त मेरे ज़ेहन में नश्तर की तरह उतर गया और मैं ख़ुद को रोक न पाया.
"जंग जैसा दुर्भाग्य और कुछ नहीं होता - जिन्होंने युद्ध झेला है उनसे जाकर पूछो (वॉर इज़ द मोस्ट अनफ़ॉर्चूनेट थिंग टु हैपन)" — मैंने शायद कुछ उत्तेजित होकर जवाब दिया था.

राष्ट्र का सिपाही

कमरे में कुछ देर के लिए सब चुप हो गए. सबने युद्ध की भयावह कहानियाँ पढ़ी थीं और कारगिल और द्रास की उन पहाड़ियों में घूमते हुए ऐसे लोगों से मुलाक़ातें की थीं कि जिन्होंने पाकिस्तानी बमों के चाक़ू जैसे टुकड़ों से लोगों को कटते और मरते देखा था.
वह उस दौर में कारगिल-द्रास पहुँचे सभी रिपोर्टरों के करियर का पहला युद्ध था और कुछ एक अपवादों को छोड़कर हममे से ज़्यादातर ख़ुद को पत्रकार कम और राष्ट्र का सिपाही ज़्यादा समझने लगे थे.


श्रीलंका में भारतीय फ़ौज की दास्तां

युद्ध इतिहासकार आपको बताएँगे कि कच्चा और अनुभवहीन सिपाही सबसे बहादुर होता है और जंग वही जितवाता है क्योंकि वो नहीं जानता कि युद्ध किस क़दर तबाही लेकर आता है.
जिसने युद्ध की तबाही देखी हो, औरतों, बच्चों, मर्दों और बुज़ुर्गों को बमों से चीथड़े-चीथड़े होते देखा हो, गाँव के गाँव जलते हुए, औरतों को बलात्कार का शिकार होते और मौत को अपने सामने नाचते देखा हो - ऐसा अनुभवी फ़ौजी सीतापुर के रिटायर्ड कर्नल रणबीर भदौरिया की तरह युद्ध का सिर्फ़ अफ़सोस करेगा. वो युद्ध को देशप्रेम की अनिवार्य शर्त मानकर उसका जश्न नहीं मना सकता.
जश्न तो इस बात का मनाया जाना चाहिए कि हिंदुस्तान में बीस बरस की छोटी उम्र में ही युद्ध की असलियत समझ लेने वाली 'शहीद की बेटी' गुरमेहर कौर जैसी लड़कियाँ मौजूद है.
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