झूठ के आंकड़े और आंकड़ों का झूठ
सीताराम येचुरी
बेशक, आंकड़े भी झूठ बोलते हैं। जिसके हाथ में सत्ता हो आंकड़ों को अपनी जरूरत के हिसाब से तोड़-मरोड़ सकता है। अक्सर आंकड़ों की इस तरह की तोड़-मरोड़ का इस्तेमाल खराब आर्थिक स्थिति को, खासतौर पर ऐसी खराब आर्थिक स्थिति को जिसमें जनता से सीधे जुड़े पहलू बुरी स्थिति दिखा रहे हों, हालात को रंग-पोत कर दिखाने के लिए किया जाता है। आर्थिक मानकों पर स्थिति का माप करने के लिए प्रस्थान बिंदु का काम करने वाले आधार वर्ष के ही आंकड़ों में हाल में जो बदलाव किए गए हैं, ऐसी तोड़-मरोड़ का ही उदाहरण है। याद रहे कि आधार वर्ष के आंकड़ों के ही संदर्भ से, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्घि तथा अन्य सभी संकेतकों के संबंध में गणनाएं की जाती हैं।
आइए, पहले तो यही देख लें कि आंकड़ों के साथ तोड़-मरोड़ किस तरह की जा सकती है। मिसाल के तौर पर मुद्रास्फीति की दर में हाल में आई मामूली गिरावट को, जो वास्तव में कीमतों में गिरावट को नहीं, बल्कि कीमतों में बढ़ोतरी की रफ्तार में कमी को दिखाती है, मोदी सरकार की कुशल आर्थिक नीतियों का सबूत बनाकर पेश किया जा रहा है। अब सच्चाई यह है कि कीमतें सबसे बढ़कर मांग और आपूर्ति के संतुलन पर निर्भर करती हैं। किसी भी उत्पाद की, खासतौर पर खाने-पीने की चीजों की आपूर्ति अगर जनता के बीच उसकी मांग से कम है, तो उसकी कीमत बढ़ जाएगी। अब आपूर्ति की यह तंगी अर्थव्यवस्था की किसी गंभीर ढांचागत रुकावट के चलते भी हो सकती है, जो अर्थव्यवस्था को और ज्यादा पैदा करने से रोक रही हो या फिर कीमतों में बढ़ोतरी इससे भी हो सकती है, जैसा कि इस समय हो रहा है, कि बेईमान व्यापारी तथा बिचौलिए मालों की जमाखोरी करने लगें और इस तरह कृत्रिम तरीके से आपूर्ति की तंगी पैदा कर दें। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे महंगाई से उपभोक्ताओं पर चोट पड़ती है, जबकि उत्पादकों (कृषि उत्पादों के मामले में किसानों) को कोई लाभ नहीं मिलता है। हां! बिचौलिए जरूर अपनी तिजोरियां भरते रहते हैं। ऐसी महंगाई से प्रशासनिक कदमों के जरिए निपटना पड़ता है।
इसलिए, खाने-पीने की चीजों के लिए मुद्रास्फीति की दर में गिरावट, मुख्यत: घरेलू मांग में गिरावट का ही नतीजा है और यह गिरावट जनता की रोजी-रोटी की दशा में गिरावट को ही दिखाती है। बेशक, इससे उल्टी बात सही नहीं है कि मुद्रास्फीति की दर अर्थव्यवस्था की दशा में सुधार तथा इसके चलते आपूर्तियों में बढ़ोतरी के चलते गिरी हो। इस तरह यह साफ है कि आंकड़ों का इस्तेमाल, सच्चाई को ढांपने तथा तोड़-मरोड़कर पेश करने के लिए भी किया जा सकता है। मोदी सरकार ठीक यही करने की कोशिश कर रही है।
हमारे राष्टï्रीय आर्थिक मानकों की गणना के आधार वर्ष में ही बदलाव, इसी का एक उदाहरण है। बेशक, भारत के आर्थिक मानकों की गणना के, नेशनल एकांउट्ïस स्टेटस्टिक्स का आधार वर्ष नियमित रूप से और सामान्यत: हर दस साल पर बदला जाता रहा है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सी एस ओ) ने राष्ट्रीय आय के जो पहले अनुमान निकाले थे, 1948-49 को स्थिर कीमतों पर आधार बनाकर तैयार किए थे। समय गुजरने के साथ बुनियादी आंकड़ों के संकलन में धीरे-धीरे सुधार आने के साथ, आंकड़े निकालनेे की पद्घति की ही चौतरफा समीक्षा की जाती है और इस आधार पर राष्टï्रीय आंकड़ों के लिए आधार वर्ष बदला जा रहा होता है। 1967 में आधार वर्ष, 1948-49 से बदलकर 1960-61 पर ले आया गया। इसी प्रकार 1978 में आधार वर्ष 1960-61 से बदलकर 1970-71 कर दिया गया। 1988 में इसी को 1970-71 से बदलकर 1980-91 कर दिया गया और 1999 में इसे 1980-81 से बदलकर 1993-94 कर दिया गया। इसके बाद, 2006 में आधार वर्ष को बदलकर 2004-05 कर दिया गया। सामान्यत: आधार वर्ष में अगला बदलाव, 2016 में या उसके भी आगे होना चाहिए था। लेकिन, पिछले आम चुनाव में मोदी की जीत के फौरन बाद, अब आधार वर्ष को बदलकर, 2011-12 कर दिया गया है।
लेकिन, इस बार आधार वर्ष में इस बदलाव के साथ ही, अवधारणात्मक रूपरेखा को भी बदल दिया गया है। सकल घरेलू उत्पाद की गणना अब ''कारक लागत'' (फैक्टर कॉस्ट) के आधार पर नहीं की जा रही होगी। इसके बजाय, अब सकल मूल्य संवद्र्घन (ग्रॉस वैल्यू एडेड—जी वी ए) का हिसाब लगाया जा रहा होगा। इसका औचित्य इस आधार पर भी सिद्घ करने की कोशिश की गयी है कि इससे ''अंतरराष्टï्रीय अनुरूपता'' को सुगम बनाया जा सकेगा। राष्टï्रीय आंकड़ों की गणना के लिए आधार वर्ष में इस बदलाव ने 2013-14 की आर्थिक वृद्घि को खिसकाकर 6.9 फीसद पर पहुंंचा दिया है। याद रहे कि 2004-05 के आधार वर्ष वाली पहले के शृंखला के अनुसार, यही दर 4.7 फीसद ही थी। इसी प्रकार, 2012-13 के लिए आर्थिक वृद्घि दर बढ़ाकर 5.1 फीसद कर दी गई, जबकि पहले इसी को 4.5 फीसद ही आंका गया था।
बहरहाल, आंकड़ों के इस फेरबदल को आधार बनाकर जनता की खुशहाली बढऩे का जो प्रचार किया जा रहा है उसके विपरीत, सकल पूंजी निर्माण की दर, जो बुनियादी आर्थिक सच्चाइयों को कहीं बेहतर तरीके से प्रतिबिंबित करती है तथा अर्थव्यवस्था में निवेश की दर तय कर रही होती है, स्थिर कीमतों पर 2012-13 में जहां 37.2 फीसद थी, 2013-14 में घटकर 33.4 फीसद रह गई।
आधार वर्ष में किया गया यह बदलाव, आर्थिक आंकड़ों को उछाल देने का काम करता है, ताकि अर्थव्यवस्था की कहीं ज्यादा रंगी-चुनी तस्वीर पेश की जा सके। यह सब मोदी सरकार द्वारा पेश किए जाने वाले पहले पूर्ण बजट के लिए अनुकूल हालात बनाने का हिस्सा है। बजट इसी महीने के आखिर में पेश किया जाना है। बढ़ते राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के लिए वित्त मंत्री ने पहले ही गैर-योजना खर्चों में एक सिरे से लगाकर 10 फीसद की कटौती कर दी है। इतना ही नहीं, मोदी के राज के पहले छ: महीनों में, प्रमुख सामाजिक क्षेत्रों के लिए बजट आबंटन का, 30 फीसद भी खर्च नहीं किया गया है। इस तरह खर्चा घटाकर, राजकोषीय घाटा भी घटाया जा रहा है। लेकिन, इस तरह की कटौतियों की जनता की जीवन-दशाओं पर बहुत भारी मार पड़ रही है।
अर्थव्यवस्था के आकार में इस तरह की संाख्यिकीय बढ़ोतरी स्वाभाविक रूप से राजकोषीय घाटे को भी बढ़ाती है। इसका पता इससे चलता है कि यह घाटा (मोदी सरकार आने के बाद) अप्रैल से दिसंबर 2014 के बीच बढ़कर 5.32 लाख करोड़ रुपए हो गया जो पिछले बजट के पूरे साल के 5.31 लाख करोड़ रुपए के अनुमान को भी पार कर गया। इसका अर्थ यह है कि मोदी सरकार ने ज्यादा अनुत्पादक अर्थात बेकार खर्चे किए। इसलिए वर्ष 2014-15 का राजकोषीय घाटा कुल मिलाकर ज्यादा होगा। आधिकारिक रूप से इस ज्यादा घाटे के लिए आर्थिक मंदी के चलते कम राजस्व एकत्रित होने को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री सामाजिक खर्चों में कटौती करने के अलावा, जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश (कोल इंडिया लि. के शेयरों की बिक्री के जरिए सरकार पहले ही 20,000 करोड़ रुपए जुटा चुकी है), टेलीकोम स्पैक्ट्रम की बिक्री और पैट्रोल तथा डीजल (जिनकी घटी हुई अंतरराष्टï्रीय कीमतों का लाभ जनता को देने की बजाय) के उत्पाद शुल्क में हाल की बढ़ोतरियों से छप्पर फाड़ मुनाफे कमाने के जरिए, इससे उबरने की कोशिश कर रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) के 4.1 फीसद तक राजकोषीय घाटे को लाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए सरकार को खर्चों में अभी और कटौती करने की दरकार होगी। इस तरह इसका अर्थ यह है कि आनेवाले बजट में खर्चों में और कटौती होगी और जनता पर और ज्यादा बोझ डाले जाएंगे।
विडंबना यह है और जो मोदी सरकार की परेशानी का सबब ज्यादा है कि आधार वर्ष में इस संशोधन से यूपीए-दो सरकार के पिछले वर्षों के दौरान के विकास के पैमाने भी बढ़ जाएंगे। इसीलिए पूर्व वित्त मंंत्री पी चिदंबरम ने फौरन यह कह दिया कि ''मुझे खुशी है कि सरकार ने संशोधित जीडीपी आंकड़े जारी कर दिए। अब हमेशा के लिए यह आरोप लगना बंद हो जाना चाहिए कि यूपीए सरकार ने अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ठीक ढंग से नहीं किया।'' और कि ''मैं यह उम्मीद करता हूं कि सरकार के नेता बार-बार यह कटाक्ष करना बंद कर देंगे कि पिछले दो वर्षों में विकास की दर 5 फीसद से कम रही।'' नयी श्रंृखला के मुताबिक यूपीए-2 सरकार के तहत पिछले वर्ष अर्थात 2013-14 की विकास दर अब अनुमानत: 6.9 फीसद रही, जबकि पहले इसे 4.7 फीसद बताया जा रहा था। इसी तरह वर्ष 2012-13 के लिए जीडीपी की विकास दर अब बढ़कर 5.1 फीसद हो गयी है, जिसे पहले 4.5 फीसद बताया जा रहा था।
जैसे को तैसा के इस कांग्रेस-भाजपा के खेल से अलग आंकड़ों की यह मौजूदा नयी श्रृंखला जमीनी सच्चाइयों पर पर्दापोशी करती है। टिकाऊ उपभोक्ता मालों की बिक्री में आई भारी गिरावट से भारतीय जनता की घटती क्रय शक्ति का पता चलता है। ग्रामीण भारत, जहां हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा रहता है, की स्थिति अभी भी बदतर बनी हुई है।
कृषि क्षेत्र में स्थिति ज्यादा खराब हो गई है। मौजूदा रबी सीजन में 19 दिसंबर 2014 तक फसल के कुल रकबे में 5.3 फीसद की कमी आई है। खरीफ की प्रमुख फसलों के उत्पादन में भी गिरावट आई है। जहां पहले इन फसलों का कुल उत्पादन 12 करोड़ 93 लाख टन था, वह घटकर 12 करोड़ 3 लाख टन रह गया। हमारी जनता के लिए अनाज की कम उपलब्धता के अलावा इस आंकड़े से यह भी पता चलता है कि बड़ी संख्या में किसान कृषि कार्य को छोड़ रहे हैं क्योंकि यह उनके दीर्घावधि जीवनयापन का साधन नहीं रह गई है। कृषि के लाभकर न रहने के कारण कर्ज चुकाने में अपनी अक्षमता के चलते किसान बदहाल होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि किसान कृषि के पेशे को छोड़ रहे हैं और रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। टिकाऊ उपभोक्ता मालों के लिए शहरी मांग में आई गिरावट के अलावा कृषि से होने वाली कम आय उन उत्पादों की बिक्री पर दबाव डाल रही है, जो ग्रामीण खर्च करने के लिए उपलब्ध आय से जुड़े हुए हैं। कार्पोरेट राजस्व और मुनाफों पर इसका नकारात्मक असर हो रहा है जिसके चलते औद्योगिक उत्पादन दरों में गिरावट आ रही है।
इस बदहाली के मद्देनजर उन समस्याओं को संबोधित करने की बजाय जो ''भारत में कृषि में लगे परिवारों की स्थिति के मुख्य संकेतक'' नाम से आई सरकार की हाल की रिपोर्ट में सामने आई है, यह मोदी सरकार चुप्पी साधे हुए है। केंद्रीय कृषि मंत्री ने 'मिंट' (27 जनवरी, 2015) को दिए एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि भारत में 14.5 करोड़ कृषि मिल्कियतों में से 65 फीसद कृषि योग्य भूमि के लिए सिंचाई की सुविधाएं नहीं हैं और इसलिए वह मानसून पर बुरी तरह आश्रित है। यह मोदी सरकार अमानवीय उदासीन रुख का प्रदर्शन कर रही है। किसानों की आत्महत्याओं के मुद्दे से टकराने की बजाय केंद्रीय कृषि मंत्री ग्रामीण बदहाली के बढ़ते प्रतिबिंबन को यह कहते हुए बरतरफ कर देते हैं कि ''किसानों की आत्महत्याओं का सिर्फ 9 फीसद ही कृषि की बदहाली से जुड़ा हुआ है!''
इन हालात के तहत मोदी सरकार आक्रामक ढंग से अमरीकी साम्राज्यवाद की पिछलग्गू बनती जा रही है और इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों को और ज्यादा अमरीकी तथा विदेशी निवेशों के लिए खोल रही है, जिससे मौजूदा कृषिगत बदहाली और बढ़ेगी क्योंकि सरकार भारी सब्सिडियोंवाले अमरीकी तथा यूरोपीय कृषि तथा डेयरी उत्पादों को भारतीय बाजार में बेचने की इजाजत दे रही है। इससे जहां विदेशी पूंजी भारी मुनाफे कमाएगी, वहीं भारतीय किसान और तबाह होता चला जाएगा।
इसलिए साफ है कि जब तक जनसंघर्षों के जरिए इस मोदी सरकार को अपने मौजूदा नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों के रास्ते को पलटने के लिए और भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जिससे हमारी जनता की जीवन स्थितियों में सुधार हो, भारतीय संसाधनों के इस्तेमाल के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, तब तक वे अच्छे दिन कभी नहीं आएंगे जिनका वादा किया गया था।
बेशक, आंकड़े भी झूठ बोलते हैं। जिसके हाथ में सत्ता हो आंकड़ों को अपनी जरूरत के हिसाब से तोड़-मरोड़ सकता है। अक्सर आंकड़ों की इस तरह की तोड़-मरोड़ का इस्तेमाल खराब आर्थिक स्थिति को, खासतौर पर ऐसी खराब आर्थिक स्थिति को जिसमें जनता से सीधे जुड़े पहलू बुरी स्थिति दिखा रहे हों, हालात को रंग-पोत कर दिखाने के लिए किया जाता है। आर्थिक मानकों पर स्थिति का माप करने के लिए प्रस्थान बिंदु का काम करने वाले आधार वर्ष के ही आंकड़ों में हाल में जो बदलाव किए गए हैं, ऐसी तोड़-मरोड़ का ही उदाहरण है। याद रहे कि आधार वर्ष के आंकड़ों के ही संदर्भ से, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्घि तथा अन्य सभी संकेतकों के संबंध में गणनाएं की जाती हैं।
आइए, पहले तो यही देख लें कि आंकड़ों के साथ तोड़-मरोड़ किस तरह की जा सकती है। मिसाल के तौर पर मुद्रास्फीति की दर में हाल में आई मामूली गिरावट को, जो वास्तव में कीमतों में गिरावट को नहीं, बल्कि कीमतों में बढ़ोतरी की रफ्तार में कमी को दिखाती है, मोदी सरकार की कुशल आर्थिक नीतियों का सबूत बनाकर पेश किया जा रहा है। अब सच्चाई यह है कि कीमतें सबसे बढ़कर मांग और आपूर्ति के संतुलन पर निर्भर करती हैं। किसी भी उत्पाद की, खासतौर पर खाने-पीने की चीजों की आपूर्ति अगर जनता के बीच उसकी मांग से कम है, तो उसकी कीमत बढ़ जाएगी। अब आपूर्ति की यह तंगी अर्थव्यवस्था की किसी गंभीर ढांचागत रुकावट के चलते भी हो सकती है, जो अर्थव्यवस्था को और ज्यादा पैदा करने से रोक रही हो या फिर कीमतों में बढ़ोतरी इससे भी हो सकती है, जैसा कि इस समय हो रहा है, कि बेईमान व्यापारी तथा बिचौलिए मालों की जमाखोरी करने लगें और इस तरह कृत्रिम तरीके से आपूर्ति की तंगी पैदा कर दें। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे महंगाई से उपभोक्ताओं पर चोट पड़ती है, जबकि उत्पादकों (कृषि उत्पादों के मामले में किसानों) को कोई लाभ नहीं मिलता है। हां! बिचौलिए जरूर अपनी तिजोरियां भरते रहते हैं। ऐसी महंगाई से प्रशासनिक कदमों के जरिए निपटना पड़ता है।
इसलिए, खाने-पीने की चीजों के लिए मुद्रास्फीति की दर में गिरावट, मुख्यत: घरेलू मांग में गिरावट का ही नतीजा है और यह गिरावट जनता की रोजी-रोटी की दशा में गिरावट को ही दिखाती है। बेशक, इससे उल्टी बात सही नहीं है कि मुद्रास्फीति की दर अर्थव्यवस्था की दशा में सुधार तथा इसके चलते आपूर्तियों में बढ़ोतरी के चलते गिरी हो। इस तरह यह साफ है कि आंकड़ों का इस्तेमाल, सच्चाई को ढांपने तथा तोड़-मरोड़कर पेश करने के लिए भी किया जा सकता है। मोदी सरकार ठीक यही करने की कोशिश कर रही है।
हमारे राष्टï्रीय आर्थिक मानकों की गणना के आधार वर्ष में ही बदलाव, इसी का एक उदाहरण है। बेशक, भारत के आर्थिक मानकों की गणना के, नेशनल एकांउट्ïस स्टेटस्टिक्स का आधार वर्ष नियमित रूप से और सामान्यत: हर दस साल पर बदला जाता रहा है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सी एस ओ) ने राष्ट्रीय आय के जो पहले अनुमान निकाले थे, 1948-49 को स्थिर कीमतों पर आधार बनाकर तैयार किए थे। समय गुजरने के साथ बुनियादी आंकड़ों के संकलन में धीरे-धीरे सुधार आने के साथ, आंकड़े निकालनेे की पद्घति की ही चौतरफा समीक्षा की जाती है और इस आधार पर राष्टï्रीय आंकड़ों के लिए आधार वर्ष बदला जा रहा होता है। 1967 में आधार वर्ष, 1948-49 से बदलकर 1960-61 पर ले आया गया। इसी प्रकार 1978 में आधार वर्ष 1960-61 से बदलकर 1970-71 कर दिया गया। 1988 में इसी को 1970-71 से बदलकर 1980-91 कर दिया गया और 1999 में इसे 1980-81 से बदलकर 1993-94 कर दिया गया। इसके बाद, 2006 में आधार वर्ष को बदलकर 2004-05 कर दिया गया। सामान्यत: आधार वर्ष में अगला बदलाव, 2016 में या उसके भी आगे होना चाहिए था। लेकिन, पिछले आम चुनाव में मोदी की जीत के फौरन बाद, अब आधार वर्ष को बदलकर, 2011-12 कर दिया गया है।
लेकिन, इस बार आधार वर्ष में इस बदलाव के साथ ही, अवधारणात्मक रूपरेखा को भी बदल दिया गया है। सकल घरेलू उत्पाद की गणना अब ''कारक लागत'' (फैक्टर कॉस्ट) के आधार पर नहीं की जा रही होगी। इसके बजाय, अब सकल मूल्य संवद्र्घन (ग्रॉस वैल्यू एडेड—जी वी ए) का हिसाब लगाया जा रहा होगा। इसका औचित्य इस आधार पर भी सिद्घ करने की कोशिश की गयी है कि इससे ''अंतरराष्टï्रीय अनुरूपता'' को सुगम बनाया जा सकेगा। राष्टï्रीय आंकड़ों की गणना के लिए आधार वर्ष में इस बदलाव ने 2013-14 की आर्थिक वृद्घि को खिसकाकर 6.9 फीसद पर पहुंंचा दिया है। याद रहे कि 2004-05 के आधार वर्ष वाली पहले के शृंखला के अनुसार, यही दर 4.7 फीसद ही थी। इसी प्रकार, 2012-13 के लिए आर्थिक वृद्घि दर बढ़ाकर 5.1 फीसद कर दी गई, जबकि पहले इसी को 4.5 फीसद ही आंका गया था।
बहरहाल, आंकड़ों के इस फेरबदल को आधार बनाकर जनता की खुशहाली बढऩे का जो प्रचार किया जा रहा है उसके विपरीत, सकल पूंजी निर्माण की दर, जो बुनियादी आर्थिक सच्चाइयों को कहीं बेहतर तरीके से प्रतिबिंबित करती है तथा अर्थव्यवस्था में निवेश की दर तय कर रही होती है, स्थिर कीमतों पर 2012-13 में जहां 37.2 फीसद थी, 2013-14 में घटकर 33.4 फीसद रह गई।
आधार वर्ष में किया गया यह बदलाव, आर्थिक आंकड़ों को उछाल देने का काम करता है, ताकि अर्थव्यवस्था की कहीं ज्यादा रंगी-चुनी तस्वीर पेश की जा सके। यह सब मोदी सरकार द्वारा पेश किए जाने वाले पहले पूर्ण बजट के लिए अनुकूल हालात बनाने का हिस्सा है। बजट इसी महीने के आखिर में पेश किया जाना है। बढ़ते राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के लिए वित्त मंत्री ने पहले ही गैर-योजना खर्चों में एक सिरे से लगाकर 10 फीसद की कटौती कर दी है। इतना ही नहीं, मोदी के राज के पहले छ: महीनों में, प्रमुख सामाजिक क्षेत्रों के लिए बजट आबंटन का, 30 फीसद भी खर्च नहीं किया गया है। इस तरह खर्चा घटाकर, राजकोषीय घाटा भी घटाया जा रहा है। लेकिन, इस तरह की कटौतियों की जनता की जीवन-दशाओं पर बहुत भारी मार पड़ रही है।
अर्थव्यवस्था के आकार में इस तरह की संाख्यिकीय बढ़ोतरी स्वाभाविक रूप से राजकोषीय घाटे को भी बढ़ाती है। इसका पता इससे चलता है कि यह घाटा (मोदी सरकार आने के बाद) अप्रैल से दिसंबर 2014 के बीच बढ़कर 5.32 लाख करोड़ रुपए हो गया जो पिछले बजट के पूरे साल के 5.31 लाख करोड़ रुपए के अनुमान को भी पार कर गया। इसका अर्थ यह है कि मोदी सरकार ने ज्यादा अनुत्पादक अर्थात बेकार खर्चे किए। इसलिए वर्ष 2014-15 का राजकोषीय घाटा कुल मिलाकर ज्यादा होगा। आधिकारिक रूप से इस ज्यादा घाटे के लिए आर्थिक मंदी के चलते कम राजस्व एकत्रित होने को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री सामाजिक खर्चों में कटौती करने के अलावा, जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश (कोल इंडिया लि. के शेयरों की बिक्री के जरिए सरकार पहले ही 20,000 करोड़ रुपए जुटा चुकी है), टेलीकोम स्पैक्ट्रम की बिक्री और पैट्रोल तथा डीजल (जिनकी घटी हुई अंतरराष्टï्रीय कीमतों का लाभ जनता को देने की बजाय) के उत्पाद शुल्क में हाल की बढ़ोतरियों से छप्पर फाड़ मुनाफे कमाने के जरिए, इससे उबरने की कोशिश कर रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) के 4.1 फीसद तक राजकोषीय घाटे को लाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए सरकार को खर्चों में अभी और कटौती करने की दरकार होगी। इस तरह इसका अर्थ यह है कि आनेवाले बजट में खर्चों में और कटौती होगी और जनता पर और ज्यादा बोझ डाले जाएंगे।
विडंबना यह है और जो मोदी सरकार की परेशानी का सबब ज्यादा है कि आधार वर्ष में इस संशोधन से यूपीए-दो सरकार के पिछले वर्षों के दौरान के विकास के पैमाने भी बढ़ जाएंगे। इसीलिए पूर्व वित्त मंंत्री पी चिदंबरम ने फौरन यह कह दिया कि ''मुझे खुशी है कि सरकार ने संशोधित जीडीपी आंकड़े जारी कर दिए। अब हमेशा के लिए यह आरोप लगना बंद हो जाना चाहिए कि यूपीए सरकार ने अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ठीक ढंग से नहीं किया।'' और कि ''मैं यह उम्मीद करता हूं कि सरकार के नेता बार-बार यह कटाक्ष करना बंद कर देंगे कि पिछले दो वर्षों में विकास की दर 5 फीसद से कम रही।'' नयी श्रंृखला के मुताबिक यूपीए-2 सरकार के तहत पिछले वर्ष अर्थात 2013-14 की विकास दर अब अनुमानत: 6.9 फीसद रही, जबकि पहले इसे 4.7 फीसद बताया जा रहा था। इसी तरह वर्ष 2012-13 के लिए जीडीपी की विकास दर अब बढ़कर 5.1 फीसद हो गयी है, जिसे पहले 4.5 फीसद बताया जा रहा था।
जैसे को तैसा के इस कांग्रेस-भाजपा के खेल से अलग आंकड़ों की यह मौजूदा नयी श्रृंखला जमीनी सच्चाइयों पर पर्दापोशी करती है। टिकाऊ उपभोक्ता मालों की बिक्री में आई भारी गिरावट से भारतीय जनता की घटती क्रय शक्ति का पता चलता है। ग्रामीण भारत, जहां हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा रहता है, की स्थिति अभी भी बदतर बनी हुई है।
कृषि क्षेत्र में स्थिति ज्यादा खराब हो गई है। मौजूदा रबी सीजन में 19 दिसंबर 2014 तक फसल के कुल रकबे में 5.3 फीसद की कमी आई है। खरीफ की प्रमुख फसलों के उत्पादन में भी गिरावट आई है। जहां पहले इन फसलों का कुल उत्पादन 12 करोड़ 93 लाख टन था, वह घटकर 12 करोड़ 3 लाख टन रह गया। हमारी जनता के लिए अनाज की कम उपलब्धता के अलावा इस आंकड़े से यह भी पता चलता है कि बड़ी संख्या में किसान कृषि कार्य को छोड़ रहे हैं क्योंकि यह उनके दीर्घावधि जीवनयापन का साधन नहीं रह गई है। कृषि के लाभकर न रहने के कारण कर्ज चुकाने में अपनी अक्षमता के चलते किसान बदहाल होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि किसान कृषि के पेशे को छोड़ रहे हैं और रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। टिकाऊ उपभोक्ता मालों के लिए शहरी मांग में आई गिरावट के अलावा कृषि से होने वाली कम आय उन उत्पादों की बिक्री पर दबाव डाल रही है, जो ग्रामीण खर्च करने के लिए उपलब्ध आय से जुड़े हुए हैं। कार्पोरेट राजस्व और मुनाफों पर इसका नकारात्मक असर हो रहा है जिसके चलते औद्योगिक उत्पादन दरों में गिरावट आ रही है।
इस बदहाली के मद्देनजर उन समस्याओं को संबोधित करने की बजाय जो ''भारत में कृषि में लगे परिवारों की स्थिति के मुख्य संकेतक'' नाम से आई सरकार की हाल की रिपोर्ट में सामने आई है, यह मोदी सरकार चुप्पी साधे हुए है। केंद्रीय कृषि मंत्री ने 'मिंट' (27 जनवरी, 2015) को दिए एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि भारत में 14.5 करोड़ कृषि मिल्कियतों में से 65 फीसद कृषि योग्य भूमि के लिए सिंचाई की सुविधाएं नहीं हैं और इसलिए वह मानसून पर बुरी तरह आश्रित है। यह मोदी सरकार अमानवीय उदासीन रुख का प्रदर्शन कर रही है। किसानों की आत्महत्याओं के मुद्दे से टकराने की बजाय केंद्रीय कृषि मंत्री ग्रामीण बदहाली के बढ़ते प्रतिबिंबन को यह कहते हुए बरतरफ कर देते हैं कि ''किसानों की आत्महत्याओं का सिर्फ 9 फीसद ही कृषि की बदहाली से जुड़ा हुआ है!''
इन हालात के तहत मोदी सरकार आक्रामक ढंग से अमरीकी साम्राज्यवाद की पिछलग्गू बनती जा रही है और इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों को और ज्यादा अमरीकी तथा विदेशी निवेशों के लिए खोल रही है, जिससे मौजूदा कृषिगत बदहाली और बढ़ेगी क्योंकि सरकार भारी सब्सिडियोंवाले अमरीकी तथा यूरोपीय कृषि तथा डेयरी उत्पादों को भारतीय बाजार में बेचने की इजाजत दे रही है। इससे जहां विदेशी पूंजी भारी मुनाफे कमाएगी, वहीं भारतीय किसान और तबाह होता चला जाएगा।
इसलिए साफ है कि जब तक जनसंघर्षों के जरिए इस मोदी सरकार को अपने मौजूदा नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों के रास्ते को पलटने के लिए और भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जिससे हमारी जनता की जीवन स्थितियों में सुधार हो, भारतीय संसाधनों के इस्तेमाल के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा, तब तक वे अच्छे दिन कभी नहीं आएंगे जिनका वादा किया गया था।
No comments:
Post a Comment