पांसरे की मौत और अभिव्यक्ति पर सवाल
- 9 घंटे पहले
महाराष्ट्र की छवि को एक प्रगतिशील राज्य के रूप में बार-बार झटके लग रहे है. राज्य के प्रगतिशील एवं वामपंथी कार्यकर्ताओं का मानना है कि गोविंदराव पांसरे पर हुए हमले और इसके बाद अस्पताल में उनकी मौत से यह धारणा और मजबूत हुई है.
जिस तरह विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा है, उससे ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या राज्य में अपना विचार अभिव्यक्त करना ख़तरनाक है?
पांसरे की मौत ने 20 अगस्त 2013 को पुणे में हुई डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की याद ताज़ा कर दी जो अंधविश्वास विरोधी आंदोलन का चेहरा थे.
पांसरे की तरह ही वह भी सुबह टहलने निकले थे, जब उन पर क़रीब से गोलियां चलाई गई. उन पर हमला करने वाले हमलावर भी पकड़े नहीं जा सके.
'सांप्रदायिकता के विरोध में'
पांसरे पिछले 50 साल से प्रगतिशील आंदोलन के मुखिया थे. सांप्रदायिकता के विरोध में वह काफी सक्रिय थे. हाल ही में नाथुराम गोडसे के महिमामंडन के ख़िलाफ़ उन्होंने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी.
'शिवाजी कोण होता' (शिवाजी कौन था) जैसे पुस्तक के ज़रिए उन्होंने हिंदुत्ववादी ताकतों के शिवाजी की प्रतिमा के दोहन पर सवाल खड़े किए थे.
पिछले कई दिनों से "तुम्हें भी दाभोलकर बना देंगे" जैसी धमकियों भरे पत्र उन्हें मिल रहे थे.
राजनीतिक छींटाकशी
एक तरफ उनके हमलावर अब भी खुलेआम घूम रहे है, वहीं राजनीतिक छींटाकशी ज़ोरों पर है. कांग्रेस एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता जो डॉक्टर दाभोलकर की हत्या के समय सत्ता में थे, अब भाजपा-शिवसेना सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं.
सभी राजनीतिक दलों ने हमले की निंदा की जिनमें विश्व हिंदू परिषद एवं भाजपा भी शामिल है. मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने इसे गंभीर मामला बताते हुए हमलावरों को शीघ्र गिरफ़्तार करने का वादा किया है.
डॉक्टर दाभोलकर की पुत्री मुक्ता अस्पताल में पांसरे से मिली थीं.
वह सवाल करती हैं, "डॉक्टर दाभोलकर की हत्या के समय तत्कालीन सरकार से इस्तीफ़ा मांगनेवाली भाजपा आज सत्ता में है. अब पांसरे और उनकी पत्नी पर हमला हुआ है तो क्या भाजपा सरकार इस्तीफ़ा देगी?"
वह कहती हैं, "अब सवाल यह उठ रहा है कि अगला निशाना कौन होगा? लगता है हमलावरों का यही संदेश है कि जो विचारों की स्वतंत्रता की बात करेगा उनका यही अंजाम होगा."
लगभग 50 साल से पांसरे के सहयोगी रहे वरिष्ठ मज़दूर नेता एनडी पाटिल कहते हैं, "पांसरे की किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी. इस ख़ूनी हमले के लिए सरकार ही ज़िम्मेदार है."
मेधा पाटकर ने सवाल किया है कि सेक्युलर लोगों पर ही हमले क्यों हो रहे है, इस पर विचार होना चाहिए कि हिंसा का माहौल क्यों बन रहा है?
एक दशक का सिलसिला
पिछले दशक में राज्य में अभिव्यक्ति की वजह से हिंसक हमले बढ़े हैं. वर्ष 2004 में संभाजी ब्रिगेड नामक संगठन ने पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पर हमला किया था.
उनका आरोप था कि यहां के ब्राह्मण विद्वानों ने जेम्स लेन नाम के अमरीकी लेखक को शिवाजी का चरित्रहनन करने में मदद की थी.
वर्ष 2007 में हिंदूवादी संगठनों ने एक नाटक का मंचन रोक दिया था, क्योंकि उनके अनुसार इससे हनुमान का अनादर होता था. हालांकि बाद में नाम बदलकर इसका मंचन किया गया.
साल 2008 में ठाणे में सनातन संस्था के दो कार्यकर्ताओं को उच्च न्यायालय ने सज़ा सुनाई थी. एक नाट्यगृह में मंचन के दौरान वहां बम विस्फोट करवाने का उन पर आरोप था. इन कार्यकर्ताओं का कहना था कि उस नाटक में हिंदू देवी-देवताओं का मज़ाक उड़ाया गया था.
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