गाँधी की नजरों में आरएसएस
रामपुनियानी
मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद से ही, गांधीजी को इस रूप में प्रस्तुत करने के प्रयास हो रहे हैं, जिससे आरएसएस को लाभ हो। पहले, गांधी जयंती (2 अक्टूबर) से ''स्वच्छता अभियानÓÓ की शुरूआत की गई। फिर, यह दावा किया गया कि गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का आरएसएस से कोई लेना देना नहीं था। अब गांधी से इस आशय का प्रमाणपत्र हासिल करने के प्रयास हो रहे हैं कि ''आरएसएस बहुत अच्छा संगठन हैÓÓ।
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा हाल (जनवरी 2015) में गुजरात के गांधीनगर में गांधीजी पर केंद्रित संग्रहालय ''डांडी कुटीरÓÓ में आने वाले दर्शकों को एक मल्टीमीडिया प्रेजेंटेशन दिखाया जा रहा है, जिसमें यह बताया गया है कि सन् 1930 में गांधीजी, घनश्यामदास बिडला के साथ, वर्धा में आरएसएस के एक शिविर में पहुंचे थे। गांधीजी, आरएसएस की कार्यप्रणाली से अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने संघ के संस्थापक हेडगेवार से मिलने की इच्छा प्रगट की। यह भी दावा किया गया है कि गांधीजी, अगले दिन, हेडगेवार से मिले भी।
जो कुछ हमें निश्चित तौर पर ज्ञात है, उससे ये दावे खोखले प्रतीत होते हैं। यह सर्वज्ञात है कि संघ, गांधीजी की राजनीति का घोर विरोधी था। वह असहयोग आंदोलन से आम लोगों को जोड़कर, राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक स्वरूप देने के गांधीजी के प्रयास का भी आलोचक था। इस आंदोलन से देश में व्यापक जाग्रति आई और आमजन ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन से जुड़े। यह भारत के ''निर्माणाधीन राष्ट्रÓÓ बनने की राह में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था। संघ, इस भारतीय राष्ट्रवाद का कटु आलोचक था। आरएसएस के संस्थापक, गांधीजी के हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के प्रयास से भी इत्तेफाक नहीं रखते थे। वे असहयोग आंदोलन के भी खिलाफ थे। हेडगेवार ने आगे चलकर लिखा, ''महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के नतीजे में देश का उत्साह ठंडा पड़ गया और जिन सामाजिक बुराईयों को इस आंदोलन ने जन्म दिया, वे अपना डरावना सिर उठाने लगींÓÓ। उनके अनुसार, ''इस आंदोलन के कारण ब्राह्मण, गैर-ब्राह्मण टकराव स्पष्ट सामने आ गयाÓÓ (केशव संघ निर्माता, 1979; सीपी भिसीकर, पुणे, पृष्ठ 7)। जिसे हेडगेवार, ब्राह्मण, गैर-ब्राह्मण टकराव बता रहे थे, दरअसल, वह दलितों का भू-अधिकार व सामाजिक गरिमा हासिल करने और जातिगत पदानुक्रम के विरूद्ध संघर्ष था। अस्त होती औद्योगिक सामाजिक व्यवस्था के मूल्यों के प्रति अपनी वफादारी के चलते, हेडगेवार इस आंदोलन के विरोधी थे। गैर-ब्राह्मण आंदोलन तो असल में समाज में जातिगत रिश्तों के यथास्थितिवाद को चुनौती दे रहा था।
हेडगेवार के उत्तराधिकारी गोलवलकर ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की आलोचना इसलिए की क्योंकि वह ''केवल ब्रिटिश-विरोधीÓÓ था। वे लिखते हैं, ''क्षेत्रीय राष्ट्रवाद व समान शत्रु के सिद्धांत, जो राष्ट्र की हमारी अवधारणा का आधार हैं, ने हमें हमारे असली हिंदू राष्ट्रवाद की सकारात्मक व प्रेरणास्पद अंतर्वस्तु से वंचित कर दिया। ब्रिटिश-विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद का पर्याय माना जाने लगा, इस प्रतिक्रियावादी सोच ने स्वाधीनता आंदोलन, उसके नेताओं और उसके समर्थकों पर विनाशकारी प्रभाव डालाÓÓ (बंच ऑफ थॉट्स, बैंगलोर, 1996, पृष्ठ 138)। गांधीजी और भारतीय राष्ट्रवाद की गांधी की अवधारणा व भारत को राष्ट्र-राज्य के रूप में एक करने के उनके संघर्ष के बारे में संघ के ये विचार थे।
और गांधी संघ को किस नजर से देखते थे? चूंकि काफी लंबे समय तक आरएसएस 'चुपचापÓ काम करता रहा इसलिये स्वाधीनता आंदोलन के दौरान आरएसएस की भूमिका की विशेष चर्चा तत्कालीन साहित्य में नहीं है। चूंकि संघ, राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल नहीं था इसलिए इस आंदोलन में उसकी भूमिका के बारे में भी हम कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। परंतु उपलब्ध स्त्रोतों से जो भी जानकारी हमें मिलती है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि गांधीजी, आरएसएस के प्रशंसक तो कतई नहीं थे। 'हरिजनÓ के 9 अगस्त 1942- के अंक में गांधी लिखते हैं, ''मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे में सुना है। मैं यह भी जानता हूं कि यह एक सांप्रदायिक संगठन है।ÓÓ उन्होंने यह टिप्पणी 'दूसरेÓ समुदाय के खिलाफ नारेबाजी और भाषणबाजी के संबंध में एक शिकायत के प्रति उत्तर में कही। इसमें गांधी, आरएसएस कार्यकर्ताओं के शारीरिक प्रशिक्षण की चर्चा कर रहे हैं जिसके दौरान कार्यकर्ता ये नारे लगाते थे कि यह राष्ट्र केवल हिंदुओं का है और अंग्रेजों के देश से जाने के बाद हम गैर-हिंदुओं को अपने अधीन कर लेंगे। सांप्रदायिक संगठनों द्वारा की जा रही गुंडागर्दी के संबंध में वे लिखते हैं, ''मैंने आरएसएस के बारे में बहुत सी बातें सुनी हैं। मैंने यह भी सुना है कि जो शैतानी हो रही है, उसकी जड़ में संघ हैÓÓ, (कलेक्टिव वर्क्स ऑफ गांधी, खंड 98, पृष्ठ 320-322)।
आरएसएस के संबंध में गांधीजी के विचारों का सबसे विश्वसनीय स्त्रोत उनके सचिव प्यारेलाल द्वारा वर्णित एक घटना है। सन् 1946 के दंगों के दौरान, प्यारेलाल लिखते हैं, ''गांधीजी के साथ चल रहे लोगों में से किसी ने पंजाब के शरणार्थियों के एक महत्वपूर्ण शिविर वाघा में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की कार्यकुशलता, अनुशासन, साहस और कड़ी मेहनत करने की क्षमता की तारीफ की। गांधीजी ने तुरंत पलटकर कहा, 'पर यह न भूलो कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासीवादियों में भी ये गुण थेÓ। गांधी आरएसएस को तानाशाहीपूर्ण सोच वाला एक सांप्रदायिक संगठन मानते थे।ÓÓ (प्यारेलाल, महात्मा गांधी- द लास्ट फेज, अहमदाबाद, पृष्ठ 440)।
स्वतंत्रता के बाद, दिल्ली में हुई हिंसा के संदर्भ में (राजमोहन गांधी, मोहनदास, पृष्ठ 642), ''गांधी जी ने आरएसएस के मुखिया गोलवलकर से हिंसा में आरएसएस का हाथ होने संबंधी रपटों के बारे में पूछा। आरोपों को नकारते हुए गोलवलकर ने कहा कि आरएसएस, मुसलमानों को मारने के पक्ष में नहीं है। गांधी ने कहा कि वे इस बात को सार्वजनिक रूप से कहें। इस पर गोलवलकर का उत्तर था कि गांधी उन्हें उद्धत कर सकते हैं और गांधीजी ने उसी शाम की अपनी प्रार्थना सभा में गोलवलकर द्वारा कही गई बात का हवाला दिया। परंतु उन्होंने गोलवलकर से कहा कि उन्हें इस आशय का वक्तव्य स्वयं जारी करना चाहिए। बाद में गांधी ने नेहरू से कहा कि उन्हें गोलवलकर की बातें बहुत विश्वसनीय नहीं लगीं।ÓÓ
आज, सत्ता में आने के बाद, आरएसएस, स्वाधीनता आंदोलन की विरासत से स्वयं को किसी भी प्रकार से जोडऩे के लिए बेचैन है। यह तब, जब वह इस आंदोलन से दूर रहा था और उसने इस आंदोलन की इसलिये आलोचना की थी क्योंकि उसमें सभी समुदायों की हिस्सेदारी थी। आरएसएस का लक्ष्य हिंदू राष्ट्र है, ठीक उसी तरह मुस्लिम लीग का लक्ष्य मुस्लिम राष्ट्र था। आज आरएसएस गांधी से प्रमाणपत्र चाहता है। इसलिये उनके कहे वाक्य को अधूरा प्रस्तुत किया जा रहा है। आरएसएस कार्यकर्ताओं के 'अनुशासन और कड़ी मेहनतÓ के बारे में गांधी के कथन को तो उद्धृत किया जा रहा है परंतु उसके बाद जो उन्होंने कहा था अर्थात ''हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासीवादियों में भी ये गुण थेÓÓ, उसकी चर्चा नहीं की जा रही है। दोनों प्रकार के राष्ट्रवादों में जो मूल विरोधाभास हैं उनके चलते आरएसएस के प्रति गांधीजी के दृष्टिकोण के संबंध में किसी प्रकार के संदेह के लिए कोई जगह नहीं है। संघ परिवार चाहे कुछ भी दावा करे, यह मानना असंभव है कि गांधीजी कभी भी आरएसएस जैसे संगठन के प्रशंसक हो सकते हैं।
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